MSK-002-SOLVED PAPERS

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No. of Printed Pages: 4

MSK-02

2021-स्नातकोत्तर कला उपाधि (संस्कत) (एम. एस. के.) सत्रांत परीक्षा 

दिसम्बर, 2021

 एम.एस.के.-02: व्याकरण

समय: 3 घण्टे

अधिकतम अंक 100


निर्देश: इस प्रश्न-पत्र में कुल 10 प्रश्न हैं। सभी प्रश्न अनिवार्य हैं। प्रत्येक प्रश्न के 10 अंक हैं।

1. ‘रामाणाम’ पद की सत्रोल्लेखपर्वक सिद्धि-प्रक्रिया स्पष्ट कीजिए।

(21) रामाणाम् – राम शब्द की प्रातिपदिक संज्ञा होने पर षष्ठी बहुवचन की विवक्षा में ‘आम्’ प्रत्यय होकर ‘राम+आम्’ रूप बना। ‘राम+आम्’ इस स्थिति में ‘यस्मात्प्रत्ययविधिस्तदादि प्रत्ययेऽङ्गम्’ सूत्र से राम शब्द की अंग संज्ञा हुई और राम शब्द अदन्त अंग बना। ‘इस्वनद्यापो नुट्’ सूत्र से नुटागम (न्) होने पर ‘आद्यन्तौ टकितौ’ सूत्र की सहायता से आम् का आदि अवयव होता है। ‘राम+नाम्’ इस स्थिति में ‘नामि’ सूत्र से राम के अकार को दीर्घ होकर तथा ‘अट्कुप्वाङ्‌नुम्व्यवायेऽपि’ सूत्र से नकार को णकार करने पर ‘रामाणाम्’ रूप सिद्ध हुआ। हुआ। 

इकाई 1 सुबन्त प्रकरण अजन्त पुंल्लिङ्ग (अकारान्त, इकारान्त ) राम एवं हरिं

Printed Page No 24

अथवा

‘प्रथमयोः पूर्व सवर्णः’ सूत्र की उदाहरण सहित व्याख्या और ‘हरिणा’ पद की सम्बद्ध सत्रोल्लेखपर्वक सिद्धि- प्रक्रिया स्पष्ट कीजिए।

सूत्र – प्रथमयोः पूर्वसवर्णः 6/1/102

वृत्ति – अकः प्रथमाद्वितीययोरचि पूर्वसवर्णदीर्घ एकादेशः स्यात् । इति प्राप्ते।

अर्थ एवं व्याख्या – यह विधिसूत्र है। ‘प्रथमयोः’ यह षष्ठी विभक्ति द्विवचन का रूप है।

‘पूर्वसवर्णः’ यह प्रथमा का एकवचन है। इस प्रकार इस सूत्र में दो पद हैं। यहाँ पर ‘अकः सवर्णे दीर्घः इस सूत्र से ‘अकः’ एवं ‘दीर्घः’ इन दोनों पदों की, ‘इकोयणचि’ सूत्र से ‘अचि’ पद की अनुवृत्ति होती है तथा ‘एकः पूर्वपरयोः’ इसका भी अधिकार आता है। इस प्रकार अक् से (अ इ उ ऋ लृ से) प्रथमा द्वितीया सम्बन्धी अच् पर में होने पर पूर्वसवर्ण दीर्घ एकादेश होता है, यह सूत्रार्थ निष्पन्न होता है। इस सूत्र में ‘प्रथमयोः’ से प्रथमा द्वितीया पद वाच्य का ग्रहण किया जाता है। 

उदाहरण- जैसे ‘हरिऔ’ इस स्थिति में अक् है हरि का इकार, उससे पर में प्रथमा द्वितीया सम्बन्धी अच् है ‘औं’। इस प्रकार पूर्व पर ‘इ+औ’ के स्थान में पूर्व का सवर्ण दीर्घ ई आदेश हो जाता है और हरी रूप बनता है। जिस प्रकार ‘हरी’ में पूर्वसवर्ण दीर्घ होता है, उसी प्रकार ‘राम+औं’ यहाँ पर भी पूर्वसवर्ण दीर्घ ‘आ’ प्राप्त है किन्तु उसका निषेध करने के लिए अग्रिम सूत्र आता है-

इकाई 1 सुबन्त प्रकरण अजन्त पुंल्लिङ्ग (अकारान्त, इकारान्त ) राम एवं हरिं    Source

इकाई 1 सुबन्त प्रकरण अजन्त पुंल्लिङ्ग (अकारान्त, इकारान्त ) राम एवं हरिं printed page 29

10) हरिणा – हरि शब्द की प्रातिपदिक संज्ञा होकर तृतीया विभक्ति एकवचन की विवक्षा में ‘टा’ प्रत्यय करने पर ‘हरि टा’ रूप बना। ‘चुटू’ सूत्र से टकार की इत्संज्ञा तथा ‘तस्य लोपः’ से लोप करने पर ‘हरि+आ’ रूप बना। ‘हरि+आ’ इस स्थिति में ‘शेषो घ्यसखि सूत्र से हरि शब्द की ‘घि’ संज्ञा तथा ‘आडो नाऽस्त्रियाम्’ इस सूत्र से ‘आ’ के स्थान पर ‘ना’ आदेश होने पर ‘हरि+ना’ रूप बना। ‘अट्‌कुप्वाङ्‌नुव्यवायेऽपि सूत्र से नकार के स्थान पर णकार आदेश होकर ‘हरिणा’ रूप सिद्ध हुआ।

2. ‘रमा’ शब्द के सभी विभक्तियों में रूप लिखिए और ‘मति’ शब्द के समान रूप चलने वाले किन्हीं पाँच ह्रस्व इकारान्त, स्त्रीलिङ्ग शब्दों का उल्लेख कीजिए।

अथवा

‘जान’ शब्द के सभी विभक्तियों में रूप लिखिए और ‘साधु’ शब्द के समान रूप चलने वाले किन्हीं पाँच ह्रस्व उकारान्त पल्लिङ शब्दों का उल्लेख कीजिए।

3.  कर्तुरीप्सिततमं कर्म  सूत्र की सोदाहरण व्याख्या प्रस्तत कीजिए।

प्रथमावृत्तिः

सूत्रम्॥ कर्तुरीप्सिततमं कर्म॥ १।४।४९

पदच्छेदः॥ कर्तुः ६।१ ईप्सिततमम् १।१ कर्म १।१ ५३ कारके ७।१ २३

अर्थः॥क्रियायां सत्यां यत् कर्तुः ईप्सिततमं = इष्टतमं कारकं तत् कर्मसंज्ञं भवति।

उदाहरणम्॥

देवदत्तः कटं करोति। ग्रामं गच्छति देवदत्तः।

अथवा

‘सप्तम्यधिकरणे च’ सूत्र के पदच्छेद और विभक्तियों का उल्लेख करते हुए उदाहरण सहित व्याख्या कीजिए।

व्याख्या – ‘सप्तमी’ प्रथमा विभक्ति एकवचन, ‘अधिकरणे सप्तमी विभक्ति एकवचन, च इत्यव्ययपदम्। यहाँ पर सूत्र में स्थित ‘च’ पद से ही स्पष्ट है कि यह सूत्र पूर्ण नहीं है। इसके स्पष्टीकरण के लिए ‘दूरान्तिकार्थेभ्यो द्वितीया च’ 2.3.35 से ‘दूरान्तिकार्थेभ्यः’ की अनुवृत्ति करनी होगी। इस प्रकार सूत्र का भावार्थ होगा “अधिकरण में सप्तमी विभक्ति होती है; और दूर तथा अन्तिक (निकट) अर्थवाचक शब्दों से भी (सप्तमी विभक्ति होती है)। दूसरे शब्दों में, अधिकरण और दूर तथा समीप अर्थवाचक शब्दों में सप्तमी विभक्ति होती है।” उदाहरणार्थ ‘कटे आस्ते’ (चटाई पर है) में ‘कट’ आधार होने से अधिकरण है; अतः सप्तम्यधिकरणे च’ सूत्र से उसमें सप्तमी विभक्ति होकर ‘कटे’ रूप बना। इसी प्रकार स्थाल्यां पचति’ (बटलोई में पकाता है) में अधिकरण ‘स्थाली’ में सप्तमी विभक्ति होकर ‘स्थाल्याम्’ बना। ‘मोक्षे इच्छास्ति (मोक्ष विषय इच्छा है) में अधिकरण ‘मोक्ष’ में, ‘सर्वस्मिन्नात्मास्ति’ में अधिकरण ‘सर्व’ में सप्तमी विभक्ति होकर ‘मोक्षे’ और ‘सर्वस्मिन् रूप बने। ‘दूर’ तथा ‘समीप’ अर्थवाचक शब्दों का उदाहरण – ‘वनस्य दूरे अन्तिके वा’ (वन से दूर या निकट)। यहाँ दूर अर्थवाचक ‘दूर’ तथा ‘समीप’ अर्थवाचक शब्दों का उदाहरण ‘वनस्य दूरे अन्तिके वा’ (वन से दूर या निकट)। यहाँ दूर अर्थवाचक ‘दूर’ तथा समीप अर्थवाचक ‘अन्तिक’ शब्द में सप्तमी विभक्ति होकर ‘दूरे’ और ‘अन्तिके’ रूप बने।

4. ‘व्रजम अवरुणद्धि गाम’ यहाँ रेखाङित पद में प्रयक्त विभक्ति के विधायक सूत्र का उल्लेख करते हुए उक्त उदाहरण वाक्य को स्पष्ट कीजिए।

अथवा

‘हरये रोचते भक्तिः’ इस प्रयोग की सत्रोल्लेखपर्वक सिद्धि करते हुए कारक स्पष्ट कीजिए।

‘व्रजमसरुणद्धि गाम्’ (श्रीकृष्ण व्रज में गौ को राकते हैं)। क्रिया अवरुणद्धि, इष्टतम कर्म गौ और अकथित कर्म व्रज है। इष्टतम कर्म गौ की “कर्तुरीप्तिसततमं कर्म” सूत्र से कर्मसंज्ञा होती है और व्रज में अधिकरण होने के कारण सप्तमीविभक्ति की सम्भावना है किन्तु वक्ता से अधिकरण अविवक्षित होने के कारण अकथित मानकर “अकथितं च” से कर्मसंज्ञा होकर व्रज और गौ में द्वितीयाविभक्ति हुई। अतः ‘व्रजम् अवरुणद्धि गाम्’ बना।

अथवा

‘हरये रोचते भक्तिः’ इस प्रयोग की सत्रोल्लेखपर्वक सिद्धि करते हुए कारक स्पष्ट कीजिए।

‘हरये रोचते भक्तिः वाक्य में ‘हरये’ पद में चतुर्थी विभक्ति है।

• रुच्यर्थानां प्रीयमाणः (१।४।३३।।) इस पाणिनीय सूत्र के अनुसार रुच् रोच् (१ गण, आत्मनेपद) इस धातु का अर्थ प्रिय होना है।

• इस धातु का उपयोग वाक्य में करने के समय जिसको प्रिय है, उस शब्द के लिये चतुर्थी विभक्ति का प्रयोग होता है। • हरये रोचते भक्तिः। इस का अर्थ हरि को भक्ति प्रिय है।

• हर्य यह रूप हरि इकारान्त पुल्लिंग शब्द की चतुर्थी विभक्ति एकवचन का रूप है, जो कवि शब्द की नाम-तालिका के समान प्रयोग होता है।

5. (क) ‘भवानि’ अथवा ‘भविता’ की सिद्धि प्रक्रिया को सम्बद्ध सत्रोल्लेखपर्वक स्पष्ट कीजिए।5

(ख) ‘परोक्षे लिट’ अथवा ‘तिङशितसार्वधातकम’ सूत्र के अर्थ को स्पष्ट कीजिए।5

6. (क) ‘लोट च’ अथवा ‘सार्वधातकार्धधातकयोः सूत्र की सोदाहरण व्याख्या कीजिए।5

(ख) ‘अभत’ अथवा ‘भविष्यति’ की सिद्धि प्रक्रिया को सम्बद्ध सत्रों का उल्लेख करते हुए स्पष्ट कीजिए।5

7. (क) ‘लिटस्तझयोरेशिरेच’ अथवा ‘आतोडितः’ सूत्र की व्याख्या कीजिए।5

(ख) ‘एधते’ अथवा ‘एधाञ्चक्रे’ की सिद्धि-प्रक्रिया को सम्बद्ध सत्रों का उल्लेख करते हए स्पष्ट कीजिए। 5

8. (क) ‘तत्प्रयोजको हेतश्च’ अथवा ‘धातोः कर्मणः समान कर्तकादिच्छायां वा’ को उदाहरण सहित व्याख्या कीजिए।5

कर्तुः प्रयोजको हेतुसंज्ञः कर्तृसंज्ञश्च स्यात् ॥

[24.1]

और इसके प्रयोग का कारण. (1.4.55)

सूत्र का अर्थ यह है कि कर्ता का विषय कारण संज्ञा और कर्ता संज्ञा है।

सूत्र की व्याख्या: इस संज्ञा सूत्र में तीन पद होते हैं। विषय (1/1) और कारण (1/1) (इनफिनिटिव) सूत्र में वाक्यांश हैं। वह पद विषय को पिछले सूत्र, स्वतंत्र विषय (1.4.54) से लेता है। उसका = कर्ता का विषय छठा पुरुष एकवचन है। जो प्रेरित करता है उसे उपयोगकर्ता, प्रेरक या प्रेरक कहा जाता है। और जो प्रेरित होता है उसे प्रेरित या उपयोग के लिए प्रेरित कहा जाता है। उदाहरण के लिए, यज्ञदत्त में देवदत्त के साथ ओदन पकाते समय, खाना पकाने की क्रिया में यज्ञदत्त देवदत्त से प्रेरित होता है, इसलिए उसे प्रयुक्त कहा जाता है, और यज्ञदत्त प्रेरित होता है, इसलिए उसे प्रयोगक कहा जाता है। इस उपयोगकर्ता की विषय संज्ञा और कारण संज्ञा इस सूत्र द्वारा निर्धारित हैं। कर्ता के लेन-देन में ‘निच’ प्रत्यय की सिद्धि ‘संज्ञा कारण के फल तथा कारण में’ सूत्र द्वारा की जाती है (3.1.26)। तथापि कर्ता संज्ञा का फल क्रिया में तथा क्रिया के अर्थ में ला सूत्र द्वारा होता है।

सूत्र – धातोः कर्मणः समानकर्तृकादिच्छायां वा 3/1/7

वृत्ति :- इषिकर्मण इषिणैककर्तृकाद्धातोः सन् प्रत्ययो वा स्यादिच्छायाम्। पठ् व्यक्तायां वाचि। पदविश्लेषण :- समानः कर्ता यस्य सः समानकर्तृकस्तस्मात् समानकर्तृकाद्। धातोः पंचम्यन्तं, कर्मणः पंचम्यन्तं, समानकर्तृकाद् पंचम्यन्तं, इच्छायां सप्तम्यन्तं, वा अव्ययपदम्, अनेकपदमिदं सूत्रम् ।

सूत्रार्थ :- जो इच्छार्थक इष्-धातु का कर्म हो और इष्-धातु के साथ समानकर्तृक भी हो उस धातु से इच्छा अर्थ में विकल्प से सन् प्रत्यय होता है।

प्रकृत सूत्र के द्वारा धातु से सन् प्रत्यय का विधान करने के लिए धातु में दो शर्तें होना आवश्यक है। (1) इष धातु (चाहना) का कर्म हो। (2) इष् धातु का जो कर्ता है। वह उस क्रिया का भी वही कर्ता हो। जैसे रामः पठितुमिच्छति इति पिपठिषति (राम पढना चाहता है)। यहाँ पर पठ् धातु से इच्छा अर्थ में सन् प्रत्यय हुआ है। पठितुम् में पठ् धातु इष् धातु का कर्म है और इष के साथ समानकर्तृक भी है अर्थात् इष् का जो कर्ता है, वही कर्ता पठ् का है। पठितुम् इच्छति में इच्छा श्रुत है उसके प्रति ही कर्मत्व रहेगा। अतः समानकर्तृकत्व भी इच्छानिरूपित ही होगा। कर्म स्ववाचक शब्द के द्वारा धातु में सामानाधिकरण्य से अन्वित होता है। इस तरह सूत्र का अर्थ होगा इच्छा का समानकर्तृक होता हुआ इच्छाकर्मीभूत जो व्यापार, तद्वाचक धातु से इच्छार्थ में सन् प्रत्यय विकल्प से होता है।

सन् में नकार की इत्संज्ञा होती है, ‘स’ अवशिष्ट रहता है। इस ‘स’ की आर्धधातुकसंज्ञा होती है। यदि धातु सेट् है तो इट् का आगम होता है और यदि सेट् नहीं है तो इट् का आगम नहीं होगा। सन्नन्त का विग्रह तुमुन् प्रत्यान्त के साथ इच्छति लगाकर किया जाता है। जैसे पठितुम् इच्छति पिपठिषति। भवितुम् इच्छति बुभूषति इत्यादि ।

(ख) ‘भावयति’ अथवा ‘पिपठिषति’ की सिद्धि प्रक्रिया को स्पष्ट कीजिए।5

9. ‘शतृ’ और ‘शानच्’ प्रत्ययों पर उदाहरण के साथ विस्तत टिप्पणी लिखिए।10

शतृ प्रत्यय से बनने वाले रूपों की प्रक्रिया-

शतृ प्रत्यय में से शकार और ऋकार को हटा दिया जाता है केवल ‘अत्’ भाग का प्रयोग किया जाता है। वह ‘अत्’ भाग धातु से जुड़कर शतृ प्रत्ययान्त शब्द बन जाता है। जैसे- पठ् + अत् (शतृ) पठत्। इसी प्रकार से हम अन्य धातुओं से भी शतृ प्रत्ययान्त शब्द बना सकते हैं। शतृ प्रत्ययान्त शब्द निम्नलिखित प्रक्रिया से बना सकते हैं-

जिस धातु से शतृ प्रत्यय लगाना है, उस धातु का लट् लकार में प्रथम पुरुष का एकवचन रूप में “अति” निकालकर उससे स्थान पर “अत्” जोड़ देना है। जैसे पठ् + शतृ । इसमें पठ् धातु के लट् लकार में पठति रूप बनता है। इसमें से अति हटाने पर पठ् बचता है। अब इसमें “अत्” जोड़ने से पठत् शब्द बन जाता है। इसकी रूपमाला “भवत्” शब्द जैसी चलती है।

शानच् प्रत्यय से बनने वाले रूपों की प्रक्रिया-

शानच् प्रत्यय में से शकार और चकार का लोप हो जाता है केवल ‘आन’ भाग शेष रहता है। कुछ धातुओं में मुक् प्रत्यय होता है, जिसका ‘म्’ शेष रहता है। किन्तु यह मकार सब धातुओं में नहीं होता है। भ्वादि, दिवादि, चुरादि और तुदादिगण की धातु में मुक् प्रत्यय होता है। जैसे सेवमान, पचमान, विद्यमान, शोभमान, यजमान आदि । अदादि, स्वादि, क्रयादि, तनादि, जुहोत्यादिगण की धातुओं में मुक् नहीं होगा, अतः म् नहीं दिखेगा कुर्वाण, दधान, ददान, शयान आदि । इसी प्रकार से हम अन्य धातुओं से भी शानच् प्रत्ययान्त शब्द बना सकते हैं । जैसे कि- मुक्

जो धातु जिस गण की हो, उस गण का विकरण भी धातु के साथ प्रयोग होता है, जैसे- एध् + शप् + शानच् एधमान । एध् धातु भ्वादिगण की है, तो शप् विकरण का प्रयोग हुआ। इसी प्रकार दिवादिगण की धातु के साथ श्यन्, स्वादि से श्रु आदि । 

शतृ प्रत्यय और शानच् प्रत्यय के 20 उदाहरण इस प्रकार हैं…

शतृ प्रत्यय के ‘श्’ एवं ‘ऋ’ लोप हो जाता है, और उसके अंत में ‘अत्’ जुड़ जाता है।

शानच् प्रत्यय के ‘श्’ का और ‘च्’ का लोप हो जाता है, और उसके ’आन्’ जुड़कर ‘म्’ आगम हो जाता है, इस तरह इसका ‘आन्’ हो जाता है।

शतृ प्रत्यय के 10 उदाहरण…

गम् + शतृ  ▬ गच्छत्

दृश् + शतृ  ▬ पश्यत्

भू  + शतृ  ▬ भवत्

दा + शतृ  ▬ ददत्

पा + शतृ  ▬ पिबत्

पच् + शतृ  ▬  पचत्

नृत् + शतृ  ▬  नृत्यत्

नी + शतृ  ▬ नयत्

प्रच्छ् + शतृ  ▬  पृच्छत्

गण् + शतृ  ▬  गणयत्

यज् + शतृ  ▬ यजत्

गृह + शतृ  ▬ गृहत्

शानच् प्रत्यय के 10 उदाहरण…

यज् + शानच्  ▬ यजमान

सह् + शानच्  ▬  सहमान

लभ् + शानच्  ▬  लभमान

वृध् + शानच्  ▬  वर्धमान

शीङ् + शानच्  ▬  शयान

जन + शानच्  ▬  जायमान

मुद् + शानच्  ▬  मोदमान

सेव् + शानच्  ▬  सेवमान

वृत् + शानच्  ▬  वर्तमान

पच् + शानच्  ▬  पचमान

10. ‘मतुप’ प्रत्यय के अर्थ में आने वाले किन्हीं तीन प्रत्ययों को उदाहरण सहित स्पष्ट कीजिए।10

ANSWER – 

मत्वर्थीय प्रत्यय सूत्र, अर्थ एवं व्याख्या

सूत्र – तदस्यास्त्यस्मिन्निति मतुप् 5/2/94 

वृत्तिः गावः अस्य अस्मिन् वा सन्ति गोमान् । –

सूत्र पद विवरण – तद् प्रथमान्त, अस्य षष्ठ्यन्त, अस्ति सत्ता क्रिया का प्रतिरूपक क अव्यय, अस्मिन् सप्तम्यन्त इति विशेष विषय का प्रतिबोधक अव्यय, मतुप् प्रथमान्त, कुल छह पद हैं। इस सूत्र में तथा इस प्रकरण के प्रत्यय विधायक सभी सूत्रों में ‘समर्थानां प्रथमाद् वा’ इस अधिकार सूत्र के तीनों पदों की अनुवृत्ति होती है। अतः सूत्र का प्रथम पद ‘तद्’ समर्थ प्रथमान्त पद का बोधक है जो ‘अस्ति’ के समानाधिकरण से सत्ता – क्रिया के कर्ता का बोधक होता है और उसी से प्रत्यय का विधान होता है। ‘अस्य’ पद षष्ठ्यर्थ और ‘अस्मिन्’ पद सप्तम्यर्थ का बोधक है।

सूत्रार्थ- ‘तद् अस्य अस्ति’ अथवा ‘तद् अस्मिन् अस्ति’ इस विग्रह में अस्ति क्रिया के कर्ता के वाचक कृत सन्धि समर्थ प्रथमान्त पद से षष्ठ्यर्थ स्वामित्व आदि सम्बन्ध में अथवा सप्तम्यर्थ अधिकरणता संबन्ध में मतुप् प्रत्यय विकल्प से हो, यह आदेश है। –

(‘ग्मिन्’ प्रत्यय का विधि सूत्र)

सूत्र – वाचो ग्मिनिः 5/2/124

सूत्रार्थ – प्रथमान्त वाच् शब्द से मत्वर्थ में ग्मिनि प्रत्यय हो। प्रत्यय का अन्त्य इकार इत् संज्ञक अनुबन्ध है, अतः इसका स्वरूप ग्मिन् है। ‘लशक्वतद्धिते’ सूत्र से प्रत्यय के गकार की इत् संज्ञा नहीं होती है, क्योंकि यह तद्धित प्रत्यय है। यद्यपि वाच् के चकार को कुत्व होकर गकार हो सकता है, फिर भी प्रत्यय में गकार इसलिए किया है कि ‘प्रत्यये भाषायां नित्यम्’ वार्तिक से अनुनासिक न हो। अन्यथा मकार पर में होने से ग् को अनुनासिक ङ् होता।

वाग्ग्मी वाचः अस्य सन्ति (अच्छा बोलने वाला) इस विग्रह में प्रथमान्त ‘वाच् जस्’ से ‘वाचो ग्मिनिः सूत्र से ग्मिनि प्रत्यय अनुबन्ध लोप होने पर ‘वाच् ग्मिन् स्थिति में ‘स्वादिषु असर्वनामस्थाने सूत्र से पद संज्ञा ‘झलां जश् झशि सूत्र से जशत्व होकर वाच् के चकार को जकार होने पर ‘चोः कुः’ सूत्र से उसको गकार होकर वाग्ग्मिन् से प्रथमा एक वचन में पूर्ववत् उपधा दीर्घ, सुलोप एवं नलोप होकर वाग्ग्मी रूप सिद्ध होता है। इस शब्द में दो गकार हैं। प्रत्यय से प्रशंसा सूचित होती हैय अतः अच्छे वक्ता को वाग्ग्मी कहते हैं।

(‘अच्’ प्रत्यय का विधि सूत्र)

सूत्र – अर्श आदिभ्योऽच् 5/2/127

सूत्रार्थ – प्रथमान्त अर्शस् आदि शब्दों से मत्वर्थ में अच् प्रत्यय हो। प्रत्यय में ‘च्’ इत्संज्ञक अनुबन्ध है, प्रत्यय का स्वरूप है- अ, यह चित् है।

अर्श आदि गण है। इसमें निम्नांकित शब्द हैं- अर्शस्, उरस्, तुन्द, चतुर, कलित, जटा, घटा, घाटा, अभ्र, अघ, कर्दम, अम्ल, लवण। स्वा‌ङ्गाद् हीनात् (अंग विकार के वाचक)। वर्णात् (ककारादि वर्ण वाची)। अर्श आदि आकृति गण है। अर्थात् जिन शब्दों से मत्वर्थ की प्रतीति हो और अन्य मत्वर्थीय प्रत्यय का विधान किसी सूत्र से न हुआ हो तो ऐसे शब्दों को इस गण का समझ लेना चाहिए। जैसे पाप शब्द पापवाला अर्थ में प्रयुक्त हो तो उसे इस गण का समझ कर अच् प्रत्यय से सिद्ध कर लेना चाहिए। यह प्रत्यय होने पर रूप में कोई अन्तर नहीं पड़ता क्योंकि भ संज्ञक प्रकृति के अन्त्य अच् का यस्येति लोप हो जाता है और प्रत्यय का अ उसमें मिल जाता है।

अर्शसः – अर्शासि सन्ति अस्य अस्मिन् वा (बवासीर रोगवाला) इस विग्रह में प्रथमान्त ‘अर्शस् जस् स्थिति में ‘अर्श आदिभ्योऽच् सूत्र से अच् प्रत्यय, अनुबन्ध लोप, प्रातिपदिक संज्ञा और विभक्ति लोप होने पर ‘अर्शस् अ’ स्थिति में सम्मेलन से अकारान्त ‘अर्शस’ शब्द से प्रथमा एकवचन में सु को रुत्व विसर्ग होकर यह रूप सिद्ध होता है।

(‘युस्’ प्रत्यय का विधि सूत्र)

सूत्र – अहं शुभमोर्युस् 5/2/140

सूत्रार्थ – अहम् और शुभम् इस मकारान्त अव्ययों से मत्वर्थ में युस् प्रत्यय हो। युस् में अन्त्य स् की इत् संज्ञा और ‘तस्य लोपः’ से लोप होता है, अतः यह प्रत्यय सित् है। इसमें ‘यु’ प्रत्यय स्वरूप है।

– = में ‘अहम’ अव्य अस्ति (अहंकारी) इस विग्रह में अव्यय से ‘अहंशुभमोर्युस्’ सूत्र से युस् प्रत्यय अनुबन्ध लोप होकर ‘अहम् यु’ स्थिति में सित् प्रत्यय पर में होने से अहम् प्रकृति की ‘सिति च’ वार्तिक से पद संज्ञा होने पर ‘मोऽनुस्वारः’ सूत्र से अनुस्वार होकर ‘अहंयु’ प्रातिपदिक से प्रथमा एकवचन में सु विभक्ति को रुत्व-विसर्ग होकर ‘अहंयुः’ रूप सिद्ध होता है।

अहंयुः अहम् अहंकारः अस्य अस्मिन् वा

शुभंयुः शुभम् कल्याणम् अस्य अस्मिन् वा अस्ति (शुभ से युक्त) इस विग्रह में शुभम् अव्यय से ‘अहंशुभमोर्युस्’ सूत्र से यु होने पर अनुबन्धलोप ‘सिति च’ वार्तिक से प्रकृति की पद संज्ञा ‘मोऽनुस्वारः’ सूत्र से अनुस्वार होकर ‘शुभंयु’ प्रातिपदिक से प्रथमा एकवचन में सु विभक्ति को रुत्व-विसर्ग होकर यह रूप निष्पन्न होता है।


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MSK-02

स्नातकोत्तर कला उपाधि (संस्कृत) (एम. एस. के.) सत्रांत परीक्षा 

दिसम्बर, 2022

एम. एस. के.-02 : व्याकरण

समय : 3 घण्टे

अधिकतम अंक : 100


निर्देश : सभी प्रश्न अनिवार्य हैं। प्रत्येक प्रश्न के 10 अंक हैं।

1. ‘अतो भिस ऐस्’ सूत्र की उदाहरण सहित व्याख्या कीजिए।10

अतो भिस ऐस् 7.1.1  इस सूत्र से यहाँ अतः इस पञ्चम्यन्त पद की, भिसः इस षष्ठ्यन्त पद की, और ऐस् इस प्रथमान्त पद की यहाँ अनुवृति है। छन्दसि अत: भिसः ऐस् बहुलम् इति पदयोजना । उससे यहा सूत्र का अर्थ होता है- छन्द में अकारान्त के परे भिस के स्थान में एकादेश हो, और वह आदेश बहुल करके होता है।

अतो भिस ऐस् ७।१।९

अकारान्तादङ्गादुत्तरस्य भिसः ऐसित्ययम् आदेशो भवति। वृक्षैः। प्लक्षैः। अतिजरसैः। जरामतिक्रान्तैः इति विगृह्य समासे कृते ह्रस्वत्वे च भिस ऐसादेशो भवति। एकदेशविकृतमनन्यवद् भवति इति जरशब्दस्य जरसादेशः। सन्निपातलक्षणो विधिरनिमित्तं तद्विघातस्य इति परिभाषा इयम् अनित्या, कष्टाय क्रमणे ३।१।१४ इति निर्देशात्। अतः इति किम्? अग्निभिः। वायुभिः। तपरकरणं किम्? खट्वाभिः। मालाभिः। एत्वम् भिसि परत्वाच् चेदत ऐस् क्व भविष्यति। कृते ऽप्येत्वे भौतपूर्व्यादैस् तु नित्यस् तथा सति। अतः इत्यधिकारो जसः शी इति यावत्।

अथवा

‘मातुः’ पद की सम्बध सूत्रोल्लेखपूर्वक सिद्धि-प्रक्रिया को स्पष्ट कीजिए।

13) मातुः – ऋकारान्त मातृ शब्द से पञ्चमी विभक्ति एकवचन की विवक्षा में ‘स्वौजसमौट्.

….. सूत्र से ‘ङसि’ प्रत्यय, पूर्ववत् ‘ड्’ व ‘इ’ की इत् संज्ञा तथा लोप, ‘मातृ अस्’ इस अवस्था में ‘ऋत उत्’ इस सूत्र से ह्रस्व ऋकारान्त अङ्ग से उत्तर ङसि का ह्रस्व अकार परे होने पर पूर्व और पर के स्थान पर ह्रस्व उकार आदेश, ‘उरण रपरः’ सूत्र से रेफ सहित ‘उर्’ ऐसा आदेश होकर ‘मातुरस्’ बना। ‘सुप्तिङन्तं पदम्’ सूत्र से ‘मातुर् स्’ की पद संज्ञा एवं ‘पदस्य’ के अधिकार में स्थित ‘रात्सस्य’ सूत्र से रेफ से उत्तर संयोगान्त में स्थित स् का लोप करके अवसान में स्थित ‘र’ को पूर्ववत् विसर्जनीय करने पर ‘मातुः’ रूप सिद्ध होता है।

2. ‘युष्मद्’ सर्वनाम शब्द के सभी विभक्तियों में रूप लिखिए और राम शब्द के समान रूप चलने वाले किन्हीं पाँच अकारान्त शब्दों का उल्लेख कीजिए।10

युष्मद् शब्द रूप

विभक्तिएकवचनद्विवचनबहुवचन
प्रथमात्वम्युवाम्यूयम्
द्वितीयात्वाम्, त्वायुवाम्, वाम्युष्मान्,  व:
तृतीयात्वाययुवाभ्याम्युस्माभिः
चतुर्थीतुभ्यम्, तेयुवाभ्याम्, वाम्युष्मभ्यम्,  व:
पंचमीत्वत्युवाभ्याम्युष्मत्
षष्ठीतव, तेयुवयोः, वाम्युष्माकम्,  व:
सप्तमीत्वयियुवयोःयुष्मासु

अकारान्त पुल्लिंग के शब्द रूप से संबंधित

बालक शब्द रूप

राम शब्द रूप

ब्राह्मण शब्द रूप

वृक्ष शब्द रूप

गज शब्द रूप

सूर्य शब्द रूप

देव शब्द रूप

मानव शब्द रूप

सुर शब्द रूप

अथवा

‘पितृ’ शब्द के सभी विभक्तियों में रूप लिखिए।

विभक्तिएकवचनद्विवचनबहुवचन
प्रथमापितापितरौपितरः
द्वितीयापितरम्पितरौपितॄन्
तृतीयापित्रापितृभ्याम्पितृभि
चतुर्थीपित्रेपितृभ्याम्पितृभ्यः
पंचमीपितुःपितृभ्याम्पितृभ्यः
षष्ठीपितुःपित्रोःपितृणाम्
सप्तमीपितरिपित्रोःपितृषु
सम्बोधनहे पितः !हे पितरौ !हे पितरः !

3. ‘कर्तृकरणयोस्तृतीया’ सूत्र के पदच्छेद और विभक्तियों का उल्लेख करते हुए उदाहरण सहित व्याख्या कीजिए।

अथवा

‘षष्ठी शेषे’ सूत्र के पदच्छेद और विभक्तियों का उल्लेख करते हुए उदाहरण सहित व्याख्या कीजिए।

सूत्र – कर्तृकरणयोस्तृतीया 2/3/18

वृत्ति – अनभिहिते कर्तरि करणे च तृतीया स्यात्। रामेण बाणेन हतो बाली। “प्रकृत्यादिभ्यः उपसंख्यानम्” (वार्तिक 1466)। प्रकृत्या चारु। प्रायेण याज्ञिकः। गोत्रेण गार्ग्यः। समेनैति । विषमेणैति । द्विद्रोणेन धान्यं क्रीणाति सुखेन दुःखेन वा यातीत्यादि ।

पदविश्लेषण – कर्ता च करणं च कर्तृकरणे, तयोः कर्तृकरणयोः सप्तम्यन्तं, तृतीया प्रथमान्तं द्विपदमिदं सूत्रम् ।

सूत्रार्थ – अनुक्त कर्ता और करण में तृतीया विभक्ति होती है। इस सूत्र में अनभिहिते का अधिकार है। अनभिहितं का अर्थ है अनुक्ते अर्थात् अनुक्त कर्ता और अनुक्त करण में तृतीया विभक्ति होती है। अधिकृत अनभिहिते पद को वचनविपरिणाम के द्वारा द्विवचनान्त अनभिहितयोः बना लिया जाता है। अतः अनभिहित का कर्ता और करण दोनों के साथ अन्वय होता है।

उदाहरण :- ‘रामेण बाणेन हतो बाली’ (राम के द्वारा बाण से बाली मारा गया)। यहाँ पर हननक्रिया में स्वतन्त्रतया विवक्षित होने से ‘स्वतन्त्रः कर्ता’ के अनुसार राम कर्ता है और हननक्रिया में अत्यन्त सहायक होने से ‘साधकतमं करणम्’ से बाण की करणसंज्ञा होती है। हतः में ‘हन्’ धातु से कर्म अर्थ में ‘क्त’ प्रत्यय होकर हतः बना है। कर्म अर्थ में प्रत्यय होने के कारण कर्म उक्त हुआ और कर्ता अनुक्त हुआ। अतः “कर्तृकरणयोस्तृतीया’ सूत्र से अनुक्त कर्ता राम और करण बाण में तृतीयाविभक्ति होकर रामेण बाणेन हतो बाली वाक्य सिद्ध होता है। अतएव ‘रामकर्तृक-बाणकरणक-हिंसाक्रियाविषयो बाली’ शब्दबोध होता है।

“प्रकृत्यादिभ्यः उपसंख्यानम्। यह वार्तिक है। प्रकृत्यादि गण में पठित शब्दों से तृतीया विभक्ति होती है।

4. ‘अनृषि आनन्तर्ये विदादिभ्योऽम्’ यहाँ अधोरेखांकित पद में प्रयुक्त विभक्ति के विधायक सूत्र का उल्लेख करते हुए उक्त उदाहरण वाक्य को स्पष्ट कीजिए।10

अथवा

‘हरये रोचते भक्तिः’ पद में प्रयुक्त विभक्ति के विधायक सूत्र का उल्लेख करते हुए उक्त उदाहरण वाक्य में कारक स्पष्ट कीजिए।

5.(क) ‘अभवत्’ अथवा ‘भवामि’ की सिद्धि-प्रक्रिया को सम्बद्ध सूत्रोल्लेखपूर्वक स्पष्ट कीजिए। 5

(ख) ‘लोटो लङ्वत् अथवा ‘परस्मैपदानां णलतुसुस्थल थुसणल्वमाः’ सूत्र के अर्थ को स्पष्ट कीजिए। 5

6.(क) ‘अनद्यतने लुट्’ सूत्र की व्याख्या कीजिए। अथवा ‘भूयात्’ पद की सिद्धि-प्रक्रिया स्पष्ट कीजिए। 5

(ख) ‘भवामः की सिद्धि प्रक्रिया अथवा आशिषि लिङ्‌लोटौ सूत्र की व्याख्या कीजिए।5

7.(क) ‘आनेतः’ अथवा ‘एधिष्येते’ की सिद्धि-प्रक्रिया को स्पष्ट कीजिए।5

(ख) ‘अतोदीर्घायञ्चि अथवा ‘लिडः सीयुट्’ की सिद्धि-प्रक्रिया को सम्बद्ध सूत्रों का उल्लेख करते हुए स्पष्ट कीजिए।5

अतः ‘“अतो दीर्घो यञि” इस सूत्र से अदन्ताङ्ग भव इसके वकारोत्तप अकार का दीर्घ होता है । तब भवा वस् यह होत है । भवावस् यह समुदाय तिङन्त है । अतः तस्य ‘सुप्तिङन्तं पदम् ‘ इस सूत्र से पदसंज्ञा होती है।

8.(क) ‘धातोरेकाचो ह्यलादेः क्रियासमभिहारे यङ्’ अथवा ‘गुणोयड्लुको’ की उदाहरण सहित व्याख्या कीजिए।5

(ख) ‘अबीभवत्’ अथवा ‘पुत्रीयति’ की सिद्धि-प्रक्रिया को स्पष्ट कीजिए।5

9. किन्हीं तीन कृत् प्रत्यय विधायक सूत्रों का उल्लेख करते हुए उन्हें उदाहरण सहित स्पष्ट कीजिए।10

कृत्-प्रत्ययों का विधान साधारणतः कर्ता अर्थ में किया गया है। इन कृत् संज्ञक प्रत्ययों के अन्तर्गत ही कुछ विशेष प्रत्ययों की कृत्य संज्ञा भी की जाती है। इस प्रकार इन कृत्य प्रत्ययों की दो-दो संज्ञाएं होती हैं कृत् और कृत्य। यद्यपि कृत् प्रत्यय मुख्यतः कर्ता अर्थ में विहित हैं लेकिन कृत्य प्रत्यय सदा कर्ता से भिन्न भाव और कर्म अर्थ में होते हैं। साथ ही ये कृत्य और ल्युट् बहुल प्रकार से होते हैं, अतः वे कर्म और भाव से भिन्न स्थलों में भी हो सकते हैं।

कृत्य प्रत्यय के अन्तर्गत कुल सात (7) प्रत्यय आते हैं ‘तव्य, तव्यत्, अनीयर, केलिमर, यत्, क्यप् और ण्यतः ।

सूत्र – कृत्याः 3/1/95

वृत्ति – ण्वुल्तृचावित्यतः प्राक् कृत्यसंज्ञाः स्युः।

सूत्रार्थ – ण्वुल्तृचौ (3/1/133) से पहले तक कहे जाने वाले प्रत्यय कृत्य संज्ञक हों।

व्याख्या – यह संज्ञा अथवा अधिकार सूत्र है। कृत्याः यह प्रथमा बहुवचन का रूप है। ण्वुल्तृचौ 3/1/133) सूत्र से पहले जितने प्रत्यय कहे गये हैं, उनकी कृत्य संज्ञा होती है। इस प्रकार यह सूत्र कृत्य संज्ञा (कृत् संज्ञा के अन्तर्गत ही एक द्वितीय संज्ञा) के अधिकार का विधान करता है ।

कृत्य के अन्तर्गत सात प्रत्यय आते हैं। इन प्रकरण के सूत्रों के द्वारा 1. तव्यत्, 2. तव्य, 3. अनीयर् 4. यत्, 5. क्यप् और 6. ण्यत् प्रत्यय और वार्तिक के द्वारा 7. केलिमर प्रत्यय विहित होता है। इस प्रकार कृत्य प्रत्ययों की कुल संख्या 7 होती है। इन सात प्रत्ययों का एक कारिका में किया गया परिगणन अधोलिखित है :

तव्यञ्च तव्यतञ्चानीयरं केलिमरं तथा। 

यतं ण्यतं क्यपं चौव सप्त कृत्यान् प्रचक्षते ।।

सूत्र – कर्तरि कृत् 3/ 4/67

वृत्ति – कृत् प्रत्ययः कर्तरि स्यात्। इति प्राप्ते।

सूत्रार्थ – कृत् संज्ञक प्रत्यय कर्ता अर्थ में होते हैं।

व्याख्या- यह प्रत्यय के अर्थ का निर्धारण करने वाला विधि सूत्र है। कर्तरि यह सप्तमी एकवचन का रूप है। कृत् यह प्रथमा एकवचन का रूप है।

कृदन्त प्रकरण में जितने भी प्रत्यय होते हैं, वे सब किसी अर्थ विशेष को लेकर के ही होते हैं। अतः यहां यह ध्यातव्य रहे कि जो प्रत्यय जिस अर्थ में विहित होता है वह उस अर्थ का बोध कराता है। जैसे कर्ता अर्थ में प्रत्यय होने का तात्पर्य है, कर्ता अर्थ का बोध कराना। सामान्यतः कृत् प्रत्यय कर्ता अर्थ में होता है यह व्यवस्था इस सूत्र से विहित होती है। कर्ता के अतिरिक्त जिन विशेष अर्थों में कृत् प्रत्यय होता है, उसका निर्देश अग्रिम सूत्रों में करेंगे।

सूत्र – तयोरेव कृत्यक्तखलर्थाः 3/4/70

वृत्ति – एते भावकर्मणोरेव स्युः ।

सूत्रार्थ – कृत्यसंज्ञक प्रत्यय, क्त प्रत्यय तथा खलर्थ प्रत्यय भाव और कर्म अर्थ में हैं।

व्याख्या – यह प्रत्यय के अर्थ का निर्धारण करने वाला विधि सूत्र है। तयोः यह सप्तमी द्विवचन का रूप है। एव अव्यय पद है। कृत्यक्तखलर्थाः प्रथमा बहुवचन का पद है।

का भी पूर्व सूत्र से कृत् प्रत्यय कर्ता अर्थ में विहित हो रहे हैं। कृत् संज्ञा के अन्तर्गत आने के कारण कृत्य प्रत्यय भी स्वाभाविक रूप से उसी कर्ता अर्थ में विहित हो रहे थे। इसके साथ ही पूर्व कृदन्त प्रकरण में आये हुये क्त तथा उत्तर कृदन्त प्रकरण में आये हुये खलर्थ प्रत्ययों सामान्यतः कर्ता अर्थ में ही विधान प्राप्त था। यह सूत्र कृत्य प्रत्ययों (तव्यत् आदि), क्त और खलर्थ प्रत्ययों का कृत् संज्ञक होने के कारण सामान्यतः कर्ता अर्थ में प्राप्त विधान का बाध करके भाव और कर्म अर्थ में विहित होने का विशेष विधान करता है। खल् प्रत्यय जिस अर्थ में होता है, उसी अर्थ में होने वाले प्रत्ययों को खलर्थ प्रत्यय कहते हैं। 

10. अपत्यार्थक प्रत्यय विधायक के किन्हीं तीन सूत्रों का उल्लेख करते हुए उन्हें उदाहरण सहित स्पष्ट कीजिए।10


No. of Printed Pages: 3

एम.एस.के.-02

जून, 2022

स्नातकोत्तर कला उपाधि (संस्कृत) (एम.एस.के.) सत्रांत परीक्षा 

एम.एस. के.-02 : व्याकरण

समय :3 घण्टे

अधिकतम अंक : 100


नोटः सभी प्रश्न अनिवार्य हैं। सभी प्रश्नों के अंक समान हैं। खण्डों में दिए गए निर्देशों के अनुसार ही उत्तर दीजिए ।

विशेष : इस प्रश्न-पत्र में कुल 10 प्रश्न हैं। प्रत्येक प्रश्न के 10 अंक हैं।

1. ‘तस्मिन्निति निर्दिष्टे पूर्वस्य’ सूत्र की उदाहरण सहित व्याख्या कीजिए।  10

तस्मिन्निति निर्दिष्टे पूर्वस्य १।१।६६

तस्मिनिति सप्तम्यर्थनिर्देशे पूर्वस्यैव कार्यं भवति, नौत्तरस्य। इको यणचि ६।१।७४दध्युदकम्। मध्विदम्। पचत्योदनम्। निर्दिष्टग्रहणम् आनन्तर्यार्थम्। अग्निचिदत्र इति व्यवहितस्य मा भूत्।

सूत्र – तस्मिन्निति निर्दिष्टे पूर्वस्य 1/1/66

वृत्ति – सप्तमी निर्देशेन विधीयमानं कार्यं वर्णान्तरेणाव्यवहितस्य पूर्वस्य बोध्यम् ।

अर्थ एवं व्याख्या- ‘तस्मिन्’ सप्तमी एकवचन, ‘इति’ अव्ययपद, ‘निर्दिष्टे’ सप्तमी एकवचन, ‘पूर्वस्य’ षष्ठी एकवचन है। सप्तमी विभक्ति के निर्देश से किया जा रहा कार्य अव्यवहित पूर्व के स्थान पर होता है। पाणिनीय सूत्रों में तत् सर्वनाम में प्रयुक्त विभक्ति उस विभक्ति का परिचायक होती है, जैसे सूत्र में तत् की सप्तमी विभक्ति ‘तस्मिन्’ का निर्देश किया गया है तो ‘तस्मिन् इति निर्दिष्टे’ का अर्थ ‘सप्तमी निर्देश से’ ऐसा अर्थ होगा। इस प्रकार सप्तमी का पाठ होने पर निर्दिष्ट से अव्यवहित पूर्व को कार्य होगा। सप्तमी का अर्थ पर भी है अतः निर्दिष्ट के परे रहते निर्दिष्ट से ठीक पहले अर्थात् अव्यवहित पूर्व को कार्य होगा, जैसे ‘इको यणचि’ में ‘अचि’ में सप्तमी है- ‘अच्’ सप्तमी निर्दिष्ट है। अतः ‘अच्’ परे रहते इसी ‘अच्’ से ठीक पूर्व में स्थित ‘इक्’ वर्ण के स्थान पर यणादेश होगा। ‘साधु ओस्’ में ओ से अव्यवहित पूर्व ‘इक्’ वर्ण ‘उ’ को व् यण होगा, अतः ‘साधू व् ओस् साध्वोस = साध्वोः रूप बनेगा। ‘स्थानेऽन्तरतमः’ कहा है, अतः स्थान सादृश्य का ध्यान रखा जायेगा। –

अथवा

‘पितरौ’ पद की सूत्रोल्लेखपूर्वक सिद्धि-प्रक्रिया को स्पष्ट कीजिए ।

 5) पितरौ ऋकारान्त पितृ शब्द से द्वितीया विभक्ति द्विवचन की विवक्षा में ‘स्वौजसमौट्.’ सूत्र से ‘औट्’ प्रत्यय, ‘ट्’ की ‘हलन्त्यम्’ से इत् संज्ञा एवं लोप, ‘पितृ औ’ इस स्थिति में पूर्ववत् ‘सुडनपुंसकस्य’ से सर्वनामस्थान संज्ञा, ‘ऋतो ङिसर्वनामस्थानयोः’ से ‘ऋ’ को गुण तथा ‘उरण रपरः’ से रेफ सहित ‘अर्’ गुण करके वर्ण संयोग करने पर ‘पितरौ’ रूप सिद्ध होता है।

2. ‘ज्ञान’ शब्द के सभी विभक्तियों में रूप लिखिए ।10

विभक्तिएकवचनद्विवचनबहुवचन
प्रथमाज्ञानम्ज्ञानेज्ञानानि
द्वितीयाज्ञानम्ज्ञानेज्ञानानि
तृतीयाज्ञानेनज्ञानाभ्याम्ज्ञानैः
चतुर्थीज्ञानायज्ञानाभ्याम्ज्ञानेभ्यः
पंचमीज्ञानात्ज्ञानाभ्याम्ज्ञानेभ्यः
षष्ठीज्ञानस्यज्ञानयोःज्ञानानाम्
सप्तमीज्ञानेज्ञानयोःज्ञानेषु
सम्बोधनहे ज्ञानम् !हे ज्ञाने !हे ज्ञानानि !

अथवा

‘अस्मद्’ सर्वनाम शब्द के सभी विभक्तियों में रूप लिखिए ।

अस्मद् शब्द रूप (Asmad Shabd Roop) समझ लेने से संस्कृत में वचन के अनुसार वाक्यों में इसका प्रयोग करना आसान हो जाता है, जो इस प्रकार हैं –

विभक्ति  एकवचनद्विवचनबहुवचन
प्रथमा  अहम्आवाम्वयम्
द्वितीया  माम्आवाम्अस्मान्
तृतीया  मयाआवाभ्याम्अस्माभि:
चतुर्थी  मह्यम्आवाभ्याम्अस्मभ्यम्
पंचमी  मत्आवाभ्याम्अस्मत्
षष्ठी  मम्आवयो:अस्माकम्
सप्तमी  मयिआवयो:अस्मासु

3.’कर्मणा यमभि प्रैति सोपि सम्प्रदानम्’ सूत्र के पदच्छेद और विभक्तियों का उल्लेख करते हुए उदाहरण सहित व्याख्या कीजिए ।

सूत्र – कर्मणा यमभिप्रैति स सम्प्रदानम् 1/4/32

वृत्ति – दानस्य कर्मणा यमभिप्रैति स सम्प्रदानसंज्ञः स्यात् ।

पदविश्लेषण – अस्मिन् सूत्रे कर्मणा तृतीयान्तम्, यं द्वितीयान्तम्, अभिप्रैति तिङन्तक्रियापदम्,

सः प्रथमान्तम्, सम्प्रदानं प्रथमान्तपदमिति पंचपदानि वर्तन्ते। यह सम्प्रदानसंज्ञा करने वाला सूत्र है। कर्मणा शब्द करण-कारक में तृतीयाविभक्ति होकर निष्पन्न होता है। ‘सम्यक् प्रदानं सम्प्रदानम्’ अर्थात् ‘सम्यक्-प्रकर्षेण दीयते अस्मै’ इस व्युत्पत्ति के अनुसार जिसको वापस न लेने के लिए ही दिया जाता है वह सम्प्रदान कहलाता है। सम्प्रदान की दूसरी व्युत्पत्ति है :- सम्प्रदीयते यस्मै तत् सम्प्रदानमिति । दानशब्दस्य अर्थः “अपुनर्ग्रहणाय स्वस्वत्वनिवृत्तिपूर्वकं परस्वत्वोत्पादनम्” अर्थात् किसी वस्तु को अपने अधिकार से सदा के लिए हटाकर दूसरे के अधिकार में देना।

सूत्रार्थ – कर्ता दान आदि क्रिया के शेषित्व-भोक्तृत्व के रूप में जिससे सम्बद्ध करना चाहता है, उसकी सम्प्रदानसंज्ञा होती है।

अथवा

‘सप्तम्यधिकरणे च’ सूत्र के पदच्छेद और विभक्तियों का उल्लेख करते हुए उदाहरण सहित व्याख्या कीजिए ।

4.’हरये रोचते व्यक्तिः’ यहाँ रेखाङ्कित पद में प्रयुक्त विभक्ति के विधायक सूत्र का उल्लेख करते हुए उक्त उदाहरण वाक्य में कारक स्पष्ट कीजिए ।

अथवा

‘व्रजम् अवरुणद्धि गाम्’ पद में प्रयुक्त विभक्ति के विधायक सूत्र का उल्लेख करते हुए उक्त उदाहरण वाक्य में कारक स्पष्ट कीजिए ।

5.(क) ‘भवेत’ अथवा ‘भविष्यति’ की सिद्धि प्रक्रिया को सम्बद्ध सूत्रोल्लेखपूर्वक स्पष्ट कीजिए ।5

(ख) ‘अभ्यासे चर्च’ अथवा ‘सेर्घ्यपिच्च’ सूत्र के अर्थ को स्पष्ट कीजिए ।5

6. (क) ‘आशिषिलिङ्‌लोटौ’ सूत्र की सोदाहरण व्याख्या कीजिए अथवा ‘बभूव’ पद की सूत्रोल्लेखपूर्वक सिद्धि कीजिए ।5

(ख) ‘भवामः’ की सिद्धि प्रक्रिया को सम्बद्ध सूत्रों का उल्लेख करते हुए स्पष्ट कीजिए ।5

7.(क) ‘लिटस्तझयोरेशिरेच’ अथवा ‘रधते’ सूत्र की व्याख्या और सिद्धि प्रक्रिया को स्पष्ट कीजिए ।5

(ख) ‘आतो ङितः’ अथवा ‘एधाञ्चक्रे’ की सिद्धि प्रक्रिया को सम्बद्ध सूत्रों का उल्लेख करते हुए स्पष्ट कीजिए।

20.2 आतो ङितः ॥ (7.2.89)

सूत्रार्थ अदन्त अंग से परे ङितों के आकार के स्थान पर इय् आदेश हो।

सूत्र व्याख्या- यह विधिसूत्र है। इस सूत्र में दो पद हैं। आत: (6/1) ङितः (6/1)। अतः (5/1), इयः (1/1) इन दो पदों की अनुवृत्ति होती है, ङकार इत् यस्य स ङित्। अंगस्य का अधिकार आता है। अगंस्य इस पंचम्यन्त पद से विपरिणमत है। पद योजना अतः अंगात् ङितः आतः इय्। अतः अंगात् पद का विशेषण है। उससे अदन्तात् अंगात् यह अर्थ प्राप्त होता है। सूत्रार्थ होता है- अदन्त अंग से परे ङितों के आकार के स्थान पर इय् आदेश होता है। यहां आताम् इत्यादि प्रत्ययों की स्वयं डित् संज्ञा नहीं है तथापि सार्वधातुकमपित् सूत्र से उसकी ङित् संज्ञा होती है।

उदाहरण – एधेते।

8.(क) ‘सन्यङोः’ अथवा ‘हेतुमति च’ की उदाहरण सहित व्याख्या कीजिए ।

(ख) ‘बोभूयते’ अथवा ‘पुत्रीयति’ की सिद्धि प्रक्रिया को स्पष्ट कीजिए ।

9. किन्हीं तीन कृत् संज्ञक प्रत्यय विधायक सूत्रों का उल्लेख करते हुए उदाहरण सहित स्पष्ट कीजिए ।

10. ‘मतुप’ प्रत्यय किन-किन अर्थों में आता है ? उदाहरण देकर स्पष्ट कीजिए ।

7. इस सूत्र में स्थित ‘इति’ शब्द अर्थों की विशेषता को सूचित करता है। अर्थात् ‘अस्ति’ की विवक्षा में जो मतुप् आदि प्रत्यय होते हैं, वे अपने सम्बन्धी और अधिकरण अर्थ की विशेषताओं को प्रकट करते हैं। वे विशेषताएँ निम्नांकित हैं-

भूम – निन्दा – प्रशंसासु नित्ययोगेऽतिशायने । संसर्गेऽस्तिविवक्षायां भवन्ति मतुबादयः ।।

1. भूमा = अर्थ में बहुत्व या आधिक्य विशेषता को प्रकट करने के लिए मत्वर्थीय प्रत्यय का प्रयोग करते हैं। जैसे गोमान् अपने सामर्थ्य से अधिक या बहुत गायों को रखने वाला स्वामी। बहुत या अधिक शब्द सापेक्ष हैं, अतः जो अपने सामर्थ्य की अपेक्षा अधिक गायें रखता है, उसके लिए गोमान् शब्द का प्रयोग करते हैं। जैसे- सामान्य व्यक्ति के लिए चार-पाँच गायें अधिक हैं, किन्तु किसी गोशाला के लिए चार-पाँच सौ गायें अधिक होंगी। अतः ‘गोमान् रमेशः’ वाक्य से गायों के स्वामी रमेश के पास

अपने सामर्थ्य से अधिक गायों को रखने की सूचना प्रकट होती है। इसी प्रकार ‘गोमती शाला’ अथवा ‘गोमान् जनपदः’ वाक्य से गायों का अधिकरण गोशाला अथवा जनपद में सामान्य की अपेक्षा गायों की अधिकता प्रकट होती है।

2. निन्दा – मत्वर्थीय प्रत्यय से निन्दा या बुराई अर्थ भी प्रकट होता है। जैसे- ‘ककुदावर्तिनी कन्या’ (जिसके कटि- पृष्ठ भाग में बैल के थूहे के समान मांसल आवर्त = घेरा हो, ऐसी कन्या) इससे कन्या के स्वरूप की निन्दा प्रकट होती है। अथवा ‘दन्तुरो बालकः’ यहाँ दन्त शब्द से उरच् प्रत्यय बालक के दाँतों के सौन्दर्य की निन्दा प्रकट करता है। 3. प्रशंसा- ‘रूपवान् पुरुषः’ (सुंदर पुरुष) वाक्य में रूप शब्द से विहित मतुप् प्रत्यय पुरुष के रूप की प्रशंसा व्यंजित करता है।

4. नित्ययोग – नित्य सम्बन्ध। जैसे- ‘क्षीरिणो वृक्षाः’ वाक्य में क्षीर शब्द से विहित इनि

प्रत्यय प्रकृत्यर्थ क्षीर दूध का वृक्ष से नित्य सम्बन्ध अर्थ को व्यक्त करता है। अतः

‘सदा दूध वाले वृक्ष’ यह अर्थ प्रकट होता है।

5. अतिशायन = अतिशय। जैसे- ‘उदरी कुमारः’ या ‘उदरिणी कन्या’ इस वाक्य में इनि प्रत्यय प्रकृत्यर्थ उदर के अपेक्षाकृत बड़े होने की सूचना देता है। अर्थात् बड़े पेट वाला/वाली कुमार / कुमारी।

6. संसर्ग = सहभाव / संबन्ध। जैसे चक्री, त्रिशूली, दण्डी का क्रमशः चक्रवाला, त्रिशूल वाला और दण्ड धारण करने वाला अर्थ है। इन तद्धितान्त पदों में ‘इनि’ प्रत्यय प्रकृ त्यर्थ और प्रत्ययार्थ के संसर्ग संयोग संबन्ध को भी व्यक्त करता है।

7. ‘अस्ति’ क्रिया पद की विवक्षा में भी मतुप् प्रत्यय होता है। जैसे- अस्तिमान्, अस्तित्ववान्, सत्तावान् इत्यादि ।

उक्त विशेषताओं को सूचित करने के लिए भी मतुबर्थीय प्रत्ययों का प्रयोग होता ग होता है। विशेष प्रकरण अथवा ‘काकु’ आदि के प्रयोग से उक्त विशेषताएँ स्पष्ट होती हैं।


No. of Printed Pages: 4

MSK-002

स्नातकोत्तर कला उपाधि (संस्कृत) (एम. एस. के.)

जून, 2023

एम.एस.के.-002 : व्याकरण

समय : 3 घण्टे

अधिकतम अंक: 100


निर्देश: इस प्रश्न-पत्र में कुल दस प्रश्न हैं। सभी प्रश्न अनिवार्य हैं। प्रत्येक प्रश्न के 10 अंक हैं।

1. ‘पदान्तस्य’ सूत्र की व्याख्या उदाहरण सहित और ‘हरिणा’ पद की सम्बद्ध सूत्रोल्लेखपूर्वक सिद्धि-प्रक्रिया स्पष्ट कीजिए। 10

‘पदान्तस्य’ 8.4.37

रषाभ्याम् पदान्तस्य नः णः न ।

रेफषकारात् परस्य पदान्तनकारस्य णत्वं न भवति ।

यद्यपि पदे णत्वनिमित्तकः रेफः षकारः वा अस्ति, तथापि तस्य उपस्थितौ पदान्ते विद्यमानस्य नकारस्य णत्वम् न भवति ।

यथा – पूषन् , वृक्षान् , अकुर्वन्, चरन् – एतेषु पदेषु विद्यमानस्य नकारस्य णत्वं न भवति ।

पदान्तस्य नस्य णत्वं न स्यात् । रामान् ॥

अथवा

‘रामेण’ पद की सूत्रोल्लेखपूर्वक सिद्धि-प्रक्रिया स्पष्ट कीजिए।

2. ‘हरि’ शब्द के सभी विभक्तियों में रूप लिखिए और ‘मति’ शब्द के समान रूप चलने वाले किन्हीं पाँच ह्रस्व इकारान्त, स्त्रीलि शब्दों का उल्लेख कीजिए। 10

अथवा

‘राम’ शब्द के सभी विभक्तियों में रूप लिखिए और ‘साधु’ शब्द के समान रूप चलने वाले किन्हीं पाँच ह्रस्व उकारान्त पुल्लि शब्दों का उल्लेख कीजिए।

3. ‘तस्माच्छसो नः पुंसि’ सूत्र की सोदाहरण व्याख्या प्रस्तुत कीजिए। 10

तस्माच्छसो नः पुंसि 6.1.103

अनुवृत्तिसहितं सूत्रम्  प्रथमयोः पूर्वसवर्णः तस्मात् पुँसि शसः नः

पुंलिङ्गशब्दात् शस्-प्रत्यये परे प्रथमयोः पूर्वसवर्णः ६.१.१०२ इति सूत्रेण पूर्वसवर्णदीर्घे कृते तस्मात् अनन्तरम् विद्यमानस्य शस्-प्रत्ययस्य सकारस्य नकारादेशः भवति ।

राम + शस् [द्वितीयाबहुवचनस्य प्रत्ययः]

→ राम + अस् [लशक्वतद्धिते १.३.७ इति शकारस्य इत्संज्ञा । तस्य लोपः १.३.९ इति लोपः]

→ रामास् [प्रथमयोः पूर्वसवर्णः ६.१.१०२ इति पूर्वसवर्णदीर्घः आकारः]

→ रामान् [तस्माच्छसो नः पुंसि ६.१.१०३ इति सकारस्य नकारादेशः । ]

अथवा

‘साधो’ पद की रूपसिद्धि की प्रक्रिया लिखिए।

4. ‘व्रजम् अवरुणद्धि गाम’ यहाँ रेखा त पद में प्रयुक्त विभक्ति के विधायक सूत्र का उल्लेख करते हुए उक्त उदाहरण वाक्य को स्पष्ट कीजिए।

अथवा

‘हरये रोचते भक्तिः’ इस प्रयोग की सूत्रोल्लेखपूर्वक सिद्धि करते हुए कारक स्पष्ट कीजिए।

5.(क) ‘ज्ञानम्’ अथवा ‘वारि’ शब्द की सिद्धि-प्रक्रिया को सम्बद्ध सूत्रोल्लेखपूर्वक स्पष्ट कीजिए।5

5.3 ज्ञान शब्द की रूपसिद्धि की प्रक्रिया

1) ज्ञानम् – ज्ञायते इति इस विग्रह में क्रयादिगणीय तथा परस्मैपदी ‘ज्ञा अवबोधने’ धातु से भाव अर्थ में ल्युट् प्रत्यय करके ज्ञा+ल्युट् इस अवस्था में ल्युट् के ल् व ट् की क्रमशः ‘लशक्वतद्धिते’ व ‘हलन्त्यम्’ सूत्र से इत् संज्ञा, ‘अदर्शनं लोपः’ से इनका लोप तथा अदर्शन संज्ञा आदि कार्य होकर ज्ञा+यु इस स्थिति में ‘युवोरनाकौं’ सूत्र से ‘यु’ को ‘अन’ आदेश एवं सन्धि आदि होकर ज्ञान शब्द निष्पन्न होता है। ज्ञान शब्द का अर्थ है जानना।

यह ज्ञान शब्द नपुंसकलिङ्ग का एवं अकारान्त है। इस अकारान्त ज्ञान शब्द से प्रथमा विभक्ति के एकवचन की विवक्षा में ‘स्वौजस्मौट्…… सूत्र से सु प्रत्यय होकर ज्ञान+सु बना।

अब ज्ञान+सु इस अवस्था में सु के उकार की ‘उपदेशेऽजनुनासिक इत्’ सूत्र से इत् संज्ञा तथा ‘तस्य लोपः’ से इसका लोप तथा ‘अदर्शनं लोपः’ से अदर्शन संज्ञा आदि कार्य होकर ज्ञान+स् बनता है। अब ज्ञान, स् इस स्थिति में नपुंसकलिङ्ग से परे होने के कारण सु के सकार को ‘स्वमोर्नपुंसकात्’ इस सूत्र से लुक् की प्राप्ति हुई। परन्तु अकारान्त नपुंसकलिङ्ग होने के कारण ‘स्वमोर्नपुंसकात्’ सूत्र से प्राप्त सु के लुक् को बाधकर ‘अतोऽम्’ इस सूत्र से अम् आदेश होकर ज्ञान+अम् बना। यहाँ ज्ञान शब्द के अन्त में स्थित अकार अक् प्रत्याहार के अन्तर्गत तथा उससे परे अम् के आदि में स्थित अकार अच् प्रत्याहार के अन्तर्गत आता है, अतः ऐसी स्थिति में अक् से अम् सम्बन्धी अच् के परे होने के कारण ‘अमि पूर्वः’ से पूर्वरूप होता है। इस तरह प्रथमा विभक्ति के एकवचन में ‘ज्ञानम्’ यह रूप सिद्ध होता है।

1) वारि – वारि शब्द का अर्थ है जल। यह शब्द नपुंसकलिङ्ग एवं इकारान्त है। इस इकारान्त वारि शब्द के प्रथमा विभक्ति के एकवचन की विवक्षा में ‘स्वौजस्मौट्शस्टाभ्याम्भिस्.. .’ सूत्र से सु प्रत्यय होकर वारि+सु बना। अब वारि+सु इस अवस्था में सु के उकार की ‘उपदेशेऽजनुनासिक इत्’ सूत्र से इत् संज्ञा तथा ‘तस्य लोपः’ से इसका लोप तथा ‘अदर्शनं लोपः’ से अदर्शन संज्ञा आदि कार्य होकर वारि+स् बनता है। अब वारि+स् इस अवस्था में सु के सकार को ‘स्वमोर्नपुंसकात्’ इस सूत्र से लुक् हो जाता है। इस प्रकार प्रथमा विभक्ति के एकवचन में ‘वारि’ यह रूप सिद्ध होता है।

(ख) ‘भवानि’ अथवा ‘कविता’ की सिद्धि-प्रक्रिया को सम्बद्ध सूत्रोल्लेखपूर्वक स्पष्ट कीजिए।5

6. (क) ‘अकथितं च’ सूत्र की व्याख्या कीजिए।5

• अकथित का अर्थ होता है- जो कहा नही गया। अकथित अप्रधान या गौण।

सूत्र – अकथितं च ।

• नियम – अपादानादि कारकों द्वारा किसी कारक को अभिव्यक्त न करना हो तो उसकी कर्म संज्ञा होती है। उसे गौण कर्म कहते हैं। वहाँ भिन्न अर्थ की प्रतीति होती है।

• जिस वाक्य में दो कर्म हो तथा उसमें से एक कर्म अकथित अर्थात् गौण हो, उसमें द्वितीया विभक्ति होती है। अप्रधान कर्म में

द्वितीया विभक्ति होती है।

• इस गौण कर्म का प्रयोग कभी अकेला नहीं किया जाता अपितु सदैव मुख्य कर्म के साथ गौण कर्म प्रयुक्त होता है।

• सूत्र के अनुसार अधोलिखित 16 धातुओं में गौण तथा मुख्य दोनों कर्म लगे होते हैं। इन धातुओं का जो अर्थ होता है, उस अर्थ वाले अन्य धातुओं के अभिहित कर्म में भी द्वितीया विभक्ति होती है। ये 16 धातुएं हैं-

1. दुह (दुहना)

2. याच् (मांगना)

3. पच् (पकाना)

4. दण्ड् (दण्ड देना) 5. रूध् (रोकना)

6. प्रच्छ (पूछना)

7. चि (चुनना/एकत्र करना)

8. ब्रू (कहना/बोलना)

9. शास् (शासन करना)

10. जि (जीतना)

11. मन्थ् (मथना)

12. मुष (चुराना)

13. नी (ले जाना)

14. हृ (ले जाना)

15. कृष (खोदना)

16. वह (ढोना)।

• इस प्रकार स्पष्ट है कि अकथितं च सूत्र के अंतर्गत 16 द्विकर्मक धातुएँ हैं।

(ख) ‘अतिरतिक्रमणे च’ सूत्र की व्याख्या कीजिए। 5

१.४.९५ – अतिरतिक्रमणे च 

7. (क) ‘लोट च’ अथवा ‘सार्वधातुकार्धधातुकयोः’ सूत्र की सोदाहरण व्याख्या कीजिए। 5

(ख) ‘अभत’ अथवा ‘भविष्यति’ की सिद्धि-प्रक्रिया को सम्बद्ध सूत्रों का उल्लेख करते हुए स्पष्ट कीजिए।5

8. (क) ‘साधकतमं करणम्’ अथवा सह्युक्तेऽप्रधाने’ सूत्र की व्याख्या कीजिए। 5

https://sanskritdocuments.org/learning_tools/sarvanisutrani/1.4.42.htm

(ख) ‘एधते’ अथवा ‘एधाञ्चक्रे’ की सिद्धि-प्रक्रिया को सम्बद्ध सूत्रों का उल्लेख करते हुए स्पष्ट कीजिए। 5

9. ‘खश’ प्रत्यय अथवा ‘क्त’ प्रत्यय की सोदाहरण विस्तृत व्याख्या कीजिए। 10

खः यह प्रथमा एकवचन का पद है । च यह अव्यय पद है । इस सूत्र के अनुसार जब मन् धातु का कर्ता मन् धातु का कर्म भी हो ( अर्थात् अपने को मानता है, ऐसा अर्थ हो ) अर्थात् जब मन् धातु का कर्ता और कर्म एक ही हो तो सुबन्त के उपपद में रहते मन् धातु से खश् और णिनि प्रत्यय होते हैं ।

10. ‘तत्प्रयोजको हेतुश्च’ सूत्र की व्याख्या कीजिए। 10

यज्ञदत्त में वह व्यापार न होने के कारण वह कर्ता नहीं बन पा रहा था । अतः “तत्प्रयोजको हेतुश्च” से यज्ञदत्त की हेतुसंज्ञा के साथ-साथ कर्तृसंज्ञा करने की आवश्यकता पढी । अतः ‘ण्यन्त’ में दो प्रकार के कर्ता होते हैं – प्रयोजक कर्ता और प्रयोज्य कर्ता । व्यापारवान् कर्ता प्रयोज्यकर्ता है और प्रेरककर्ता प्रयोजकर्ता है।

१.४.५५ – तत्प्रयोजको हेतुश्च 


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MSK-002

स्नातकोत्तर कला उपाधि (संस्कृत) (एम. एस. के.) सत्रांत परीक्षा

दिसम्बर, 2023

समय : 3 घण्टे

एम.एस.के.-002 : व्याकरण

अधिकतम अंक: 100

निर्देश: इस प्रश्न-पत्र में कुल दस प्रश्न हैं। सभी प्रश्न अनिवार्य हैं। प्रत्येक प्रश्न के 10 अंक हैं।

1. ‘अभूत’ एवं ‘अभूवन’ पदों की सिद्धि-प्रक्रिया कीजिए।

अथवा /10

‘आद्यन्तौ टकितौ’ एवं ‘तस्यस्थमिपां तान्तन्तामः’ सूत्रों की व्याख्या कीजिए।

टित्-आगमः आगमिनः आदौ विधीयते, कित्-आगमः आगमिनः अन्ते विधीयते ।

१.१.४६ – आद्यन्तौ टकितौ 

ङित्-लकाराणाम् विषये तस्, थस्, थ, मिप् – एतेषां चतुर्णाम् प्रत्ययानाम् क्रमेण ताम्, तम्, त, अमः – एते आदेशाः भवन्ति ।

English (One line meaning)  In case of ङित्-लकारs, तस्, थस्, थ and मिप् are converted respectively to ताम्, तम्, त and अम्.

https://ashtadhyayi.com/sutraani/msk443

2. ‘साधु’ शब्द के सभी विभक्तियों के रूप लिखिए और ‘हरि’ शब्द के समान रूप चलने वाले किन्हीं पाँच इकारान्त स्त्रीलिंग शब्दों का उल्लेख कीजिए। 10

 अथवा

‘राम’ शब्द के सभी विभक्तियों में रूप लिखिए और ‘पितृ’ शब्द के समान चलने वाले किन्हीं पाँच ऋकारान्त पुल्लिंग शब्दों का उल्लेख कीजिए।

3. ‘कर्तुरीप्सिततमं कर्म’ सूत्र की उदाहरण सहित व्याख्या प्रस्तुत कीजिए।

अथवा  10

‘सप्तम्यधिकरणे च’ सूत्र की पदच्छेद और विभक्तियों का उल्लेख करते हुए उदाहरण सहित व्याख्या कीजिए।

4. ‘अलोऽन्त्यात्पूर्व उपधा’ सूत्र की व्याख्या कीजिए। 10

शब्दे अन्तिमवर्णात् पूर्वम् विद्यमानस्य वर्णस्य ‘उपधा’ इति संज्ञा भवति ।

१.१.६५ – अलोऽन्त्यात् पूर्व उपधा 

अथवा

‘मातृणाम’ पद की रूपसिद्धि की प्रक्रिया लिखिए। 

5.(क) अस्मद् अथवा युष्मद् शब्द की रूपसिद्धि में प्रयुक्त सूत्रों की व्याख्या कीजिए। 5

खंड-1 सुबन्त प्रकरण.pdf

page no 114 se

(ख) ‘त्वयि’ अथवा ‘साम आकम्’ सूत्र की सोदाहरण व्याख्या कीजिए।

सूत्र – साम आकम् 7/1/33

वृत्ति – आभ्यां परस्य साम आकं स्यात् ।

युष्माकम् । अस्माकम्। त्वयि । मयि। युवयोः। आवयोः। युष्मासु । अस्मासु ।

सूत्रार्थ एवं व्याख्या – प्रस्तुत सूत्र में दो पद हैं- ‘सामः’ षष्ठी विभक्ति एकवचन, ‘आकम्’ प्रथमा विभक्ति एकचवन। अनुवृत्ति अङ्गस्य, युष्मदस्मद्भ्याम् । ‘युष्मद्’ और ‘अस्मद्’ अंग से उत्तर ‘साम्’ के स्थान पर ‘आकम्’ आदेश होता है। यहाँ ‘साम्’ का अभिप्राय वस्तुतः ‘आम्’ से ही है। ‘आम्’ को ‘आमि सर्वनाम्नः सुट्’ से सुट् का आगम होकर ‘साम्’ बनता है। प्रकृत सूत्र से इसी भावी ‘सुट्’ सहित ‘आम्’ (साम्) के स्थान पर ‘आकम्’ के आदेश का विधान किया गया है। ‘शेषे लोपः सूत्र से अन्त्य लोप पक्ष में ‘द’ का लोप होने पर ‘अस्मद् तथा ‘युष्मद्’ शब्द के अकारान्त बनने के कारण ‘सुट्’ का आगम प्राप्त होने लगता है। इसी भावी ‘सुट्’ के निवारण के लिए ‘सुट्’ सहित ‘आम्’ को ‘आकम्’ का विधान किया गया है। ‘टि लोप’ पक्ष में ‘अद्’ भाग का लोप हो जाने से ‘अस्मद्’ तथा ‘युष्मद्’ शब्द अकारान्त नहीं बनेंगे। परिणामस्वरूप ‘सुट्’ की प्राप्ति बाद में भी नहीं होगी।

अस्माकम्- ‘अस्मद्’ शब्द से षष्ठी विभक्ति बहुवचन में ‘आम्’ प्रत्यय होकर ‘अस्मद् अम्’ इस स्थिति में प्रकृत सूत्र ‘साम आकम्’ से भावी सुट् सहित ‘आम्’ के स्थान पर ‘आकम्’आदेश होने पर ‘अस्मद् आकम्’ अब ‘शेषे लोपः’ से ‘अस्मद्’ के टि भाग ‘अद्’ का लोप होकर ‘अस्माकम्’ रूप सिद्ध होता है।

6.(क) ‘प्रातिपदिकार्थलिङ्गपरिमाणवचनमात्रे प्रथमा’ अथवा ‘कर्मणि द्वितीया’ की व्याख्या कीजिए।5

२.३.४६ – प्रातिपदिकार्थलिङ्गपरिमाणवचनमात्रे प्रथमा

पदच्छेदः  कर्मणि ( सप्तमी-एकवचनम् ) , द्वितीया ( प्रथमा-एकवचनम् )

अनुवृत्तिः  –

अधिकारः  अनभिहिते २.३.१

लघुसिद्धान्तकौमुदी (८८७) → अनुक्ते कर्मणि द्वितीया स्यात्। हरिं भजति। अभिहिते तु कर्मादौ प्रथमा – हरिः सेव्यते। लक्ष्म्या सेवितः॥

(ख) ‘यङ्’ प्रत्यय अथवा ‘क्यच’ प्रत्यय किस अर्थ में होता है ? स्पष्ट कीजिए। 5

इस सूत्र से ‘यङ्’ प्रत्यय का विधान गत्यर्थक धातु से कुटिल अर्थ रहने पर ही होता है । ‘यङ’ में ङकार की इत्संज्ञक होती है और ‘य’ शेष बचता है । ङकार की इत्संज्ञा होने के कारण ङित् कहलाता है । अतः “अनुदात्तङित आत्मनेपदम् ” सूत्र से आत्मनेपद का विधान किया जाता है।

7. (क) ‘आतो ङितः’ अथवा ‘आत्मनेपदष्वनतः’ सूत्र में किसका विधान किया जाता है ? 5

(ख) ‘ऽध’ धातु लट् लकार उत्तम पुरुष एकवचन की रूपसिद्धि कीजिए अथवा ‘टित आत्मनेपदानां टेरे’ सूत्र किसका विधान करता है, बताइए। 5

8. (क) ‘पुत्रीय धातु’ के लङ् लकार के रूप लिखिए। अथवा ‘सुपः आत्मनः’ क्यच’ सूत्र का भावार्थ लिखिए।5

(ख) ‘वरीवृत्य’ धातु के लट् लकार उत्तम पुरुष के रूप लिखिए अथवा ‘दीर्घोऽकितः’ सूत्र का भावार्थ लिखिए। 5

9. ‘शत’ और ‘शानच’ प्रत्ययों पर उदाहरण के साथ विस्तृत टिप्पणी लिखिए। 10

(Dec 2021 )

10. ‘मतुप’ प्रत्यय के अर्थ में आने वाले किन्हीं तीन प्रत्ययों को उदाहरण सहित स्पष्ट कीजिए। 10

(Dec 2021 )


JUNE – 2024


1. ‘शेषे लोपः’ सूत्र की उदाहरण सहित व्याख्या कीजिए।10

अथवा

‘साधु’ शब्द की रूपसिद्धि की प्रक्रिया को स्पष्ट कीजिए।

2. ‘राम’ शब्द की सभी विभक्तियों में रूप लिखिए।

अथवा10

‘शेषो घ्यसखि’ सूत्र की व्याख्या कीजिए अथवा पितृ शब्द क सभी विभक्तियों में रूप लिखिए।

१.४.७  शेषो घ्यसखि

पदच्छेदः  शेषः ( प्रथमा-एकवचनम् ) , घि ( प्रथमा-एकवचनम् ) , असखि ( प्रथमा-एकवचनम् )

अनुवृत्तिः  ह्रस्वः १.४.६

अधिकारः  आकडारात् एका संज्ञा १.४.१

अनुवृत्तिसहितं सूत्रम्  शेषः ह्रस्वः यू घि अ-सखि

सूत्रप्रकारः संज्ञासूत्रम् ( घिसंज्ञा )

“सखि” इति शब्दं वर्जयित्वा अन्ये ह्रस्व-इकारान्ताः ह्रस्व-उकारान्ताः च नदी-संज्ञाभिन्नाः शब्दाः घि-संज्ञकाः भवन्ति । यथा – मुनि, वारि, मति, साधु, मधु, धेनु।

१.४.७ – शेषो घ्यसखि

3. ‘अर्थवदधातुरप्रत्ययः प्रातिपदिकम्’ सूत्र की सोदाहरण व्याख्या कीजिए।

पदच्छेदः   अर्थवत् ( प्रथमा-एकवचनम् ) , अधातुः ( प्रथमा-एकवचनम् ) , अप्रत्ययः ( प्रथमा-एकवचनम् ) , प्रातिपदिकम् ( प्रथमा-एकवचनम् )

अनुवृत्तिसहितं सूत्रम्  अर्थवद् अधातुः अप्रत्ययः प्रातिपदिकम्

सूत्रप्रकारः संज्ञासूत्रम् ( प्रातिपदिकसंज्ञा )

यः अर्थवान् शब्दः धातुसंज्ञकः, प्रत्ययसंज्ञकः, प्रत्ययान्तः च नास्ति, तस्य ‘प्रातिपदिकम्’ इति संज्ञा भवति ।

व्याकरणशास्त्रे पाठितासु संज्ञासु अन्यतमा अस्ति ‘प्रातिपदिकम्’ इति संज्ञा । धातुभिन्नानाम् प्रत्ययान्तभिन्नानाम् अर्थवताम् शब्दानाम् अनेन सूत्रेण ‘प्रातिपदिकम्’ इति संज्ञा भवति ।

अथवा10

‘कर्तृकरणयोस्तृतीया’ सूत्र की उदाहरण सहित व्याख्या कीजिए।

4. ‘परिक्रयणे सम्प्रदानमन्यतरस्याम्’ सूत्र की प्रयोजनपूर्वक व्याख्या कीजिए।

परिक्रयणे सम्प्रदानमन्यतरस्याम् 

पदच्छेदः  परिक्रयणे ( सप्तमी-एकवचनम् ) , सम्प्रदानम् ( सप्तमी-एकवचनम् ) , अन्यतरस्याम् ( सप्तमी-एकवचनम् )

अनुवृत्तिः  साधकतमम् १.४.४२ , करणम् १.४.४२

अधिकारः  आकडारात् एका संज्ञा १.४.१ , कारके १.४.२३

सूत्रप्रकारः संज्ञासूत्रम् ( कारकसंज्ञा ) , संज्ञासूत्रम् ( करणसंज्ञा )

“परि + क्री” इति धातोः यत् साधकतमं, तत् कारकं विकल्पेन सम्प्रदानसंज्ञं भवति ।यथा – शताय परिक्रीतः । पक्षे करणसंज्ञम् अपि भवति । यथा – शतेन परिक्रीतः ।

१.२.४५ – अर्थवदधातुरप्रत्ययः प्रातिपदिकम्

अथवा10

‘अपादाने पंचमी’ सूत्र का प्रयोग कब होता है ? व्याख्या कीजिए।

पदच्छेदः  अपादाने ( सप्तमी-एकवचनम् ) , पञ्चमी ( प्रथमा-एकवचनम् )

अनुवृत्तिः  –

अधिकारः  अनभिहिते २.३.१

सिद्धान्तकौमुदी (५८७)   ग्रामादायाति । धावतोऽश्वात्पतति । कारकं किम् ? वृक्षस्य पर्णं पतति ।जुगुप्साविरामप्रमादार्थानामुपसङ्ख्यानम् (वार्तिकम्) ॥ पापाज्जुगुप्सते । विरमति । धर्मात्प्रमाद्यति ॥

5.(क) ‘अभवत्’ अथवा ‘भवामि’ की सिद्धि-प्रक्रिया को सम्बद्ध सूत्रोल्लेखपूर्वक स्पष्ट कीजिए।5

(ख) ‘गार्ग्यः’ या ‘भीत्रार्थानां भयहेतुः’ सूत्र के अर्थ को स्पष्ट कीजिए।

      भीत्रार्थानां भयहेतुः 

पदच्छेदः  भीत्राअर्थानाम् ( षष्ठी-बहुवचनम् ) , भयहेतुः ( प्रथमा-एकवचनम् )

अनुवृत्तिः  अपादानम् १.४.२४

अधिकारः  आकडारात् एका संज्ञा १.४.१ , कारके १.४.२३

अनुवृत्तिसहितं सूत्रम्  भीत्रार्थानां भयहेतुः कारकम् अपादानम्

सूत्रप्रकारः संज्ञासूत्रम् ( कारकसंज्ञा ) , संज्ञासूत्रम् ( अपादानसंज्ञा )

भीत्यर्थकानां त्राणार्थकानां च धातूनां प्रयोगे “भयस्य कारणम्” कारकं अपादानसंज्ञं भवति । यथा – चोरात् बिभेति, चोरात् त्रायते ।

१.४.२५ – भीत्रार्थानां भयहेतुः

6. (क) नाम धातु किसे कहते हैं ? स्पष्ट कीजिए।5-5

जो क्रियाएँ संज्ञा, सर्वनाम या विशेषण शब्दों से बनती हैं, वे नामधातु क्रियाएँ कहलाती हैं। जैसे-बात से बतियाना, लात से लतियाना, मोटा से मोटाना, मुटियाना आदि।

नाम धातु : नाम (संज्ञा), सर्वनाम एवं विशेषण में प्रत्यय लगाकर क्रिया का जो रूप बनता है उसे नाम धातु कहते है।

सभी नाम धातुओ के रूप भ्वादिगणीय धातुओ के समान होते है। आत्मसंक्रान्त इच्छा का ज्ञान होने से शब्द के आगे काम्य और परस्मैपद होता है। जैसे –

• आत्मनः पुत्रमिच्छति – पुत्रकाम्यति

आत्मनो धनमिच्छति – धनकाम्यति

• आत्मनः यश इच्छति – यशः काम्यति

आत्मस‌ङ्क्रान्त् इच्छा बोध होने से शब्द के आगे क्यच् प्रत्यय और परस्मैपद धातु रूप होता है। क्यच् का अन्त में य शेष रहता है। इससे शब्द के बीच मे अकार का ई होता है और हस्व का दीर्घ हो जाता है। जैसे –

• आत्मनः पुत्रमिच्छति – पुत्रीयति

• आत्मनः पतिमिच्छति – पतीयति

नाम धातु रूप (Denominative Verbs) – Nam dhatu roop – संस्कृत

(ख) ‘भवामः की सिद्धि प्रक्रिया अथवा ‘आशिषि लिङ्‌लौटो’ सूत्र की व्याख्या कीजिए।5-

7.(क) ‘तिङन्त’ अथवा ‘कृदन्त’ पदों पर विस्तारपूर्वक लिखिए।5

पदच्छेदः  सुप्-तिङ्-अन्तम् ( प्रथमा-एकवचनम् ) , पदम् ( प्रथमा-एकवचनम् )

अनुवृत्तिः  –

अधिकारः  आकडारात् एका संज्ञा १.४.१

अनुवृत्तिसहितं सूत्रम्  सुप्-तिङ्-अन्तम् पदम्

सूत्रप्रकारः संज्ञासूत्रम् ( पदसंज्ञा )

सुप्-प्रत्ययान्तशब्दाः तिङ्-प्रत्ययान्तशब्दाः च पदसंज्ञकाः भवन्ति । यथा – रामः, अस्ति ।

व्याकरणशास्त्रे वर्णानां, शब्दानां च लघुरूपेण निर्देशार्थम् काश्चन संज्ञाः निर्दिष्टाः सन्ति । एतासु अन्यतमा अस्ति पदम् इति संज्ञा । सुप्तिङन्तं पदम् १.४.१४ इत्यतः स्वादिष्वसर्वनामस्थाने १.४.१७ इत्येतैः चतुर्भिः सूत्रैः इयं संज्ञा विधीयते । अस्य सूत्रसमूहस्य इदं प्रथमं सूत्रम् । सुप्-प्रत्ययान्तशब्दाः तिङ्प्रत्ययान्तशब्दाः च पदसंज्ञकाः भवन्ति – इति अस्य सूत्रस्य अर्थः ।

१. सुप्-प्रत्ययाः — स्वौजसमौट्छष्टाभ्याम्भिस्ङेभ्याम्भ्यस्ङसिभ्याम्भ्यस्ङसोसाङ्ङ्योस्सुप् ४.१.२ इति सूत्रे पाठिताः एकविंशतिः प्रत्ययाः सुप्-प्रत्ययाः नाम्ना ज्ञायन्ते । एते सर्वे प्रत्ययाः प्रातिपदिकेभ्यः विधीयन्ते । एतेषाम् प्रयोगेण पदस्य निर्माणं भवति – इति प्रकृतसूत्रस्य प्रथमस्य अंशस्य आशयः । यथा – राम (प्रातिपदिकम्) + सुँ (प्रथमः सुप्-प्रत्ययः) = रामः (पदम्) ।

२. तिङ्-प्रत्ययाः — तिप्तस्झिसिप्थस्थमिब्वस्मस् तातांझथासाथांध्वमिड्वहिमहिङ् ३.४.७८ इति सूत्रे पाठिताः अष्टादश प्रत्ययाः तिङ्-प्रत्ययाः नाम्ना ज्ञायन्ते । एते सर्वे प्रत्ययाः धातुभ्यः विधीयन्ते । एतेषाम् प्रयोगेण अपि पदस्य निर्माणं भवति – इति प्रकृतसूत्रस्य द्वितीयस्य अंशस्य आशयः। यथा – अस् (धातुः) + तिप् (प्रथमः तिङ्-प्रत्ययः) = अस्ति (पदम्) ।

(ख) ‘आतोऽनुपसर्गे कः’ अथवा ‘प्रियवशे वदः खच्’ सूत्र की व्याख्या कीजिए।5

आतोऽनुपसर्गे कः 

पदच्छेदः  आतः ( पञ्चमी-एकवचनम् ) , अनुपसर्गे ( सप्तमी-एकवचनम् ) , कः ( प्रथमा-एकवचनम् )

अनुवृत्तिः  कृत् ३.१.९३ , कर्मणि ३.२.१

अधिकारः  प्रत्ययः ३.१.१ , परश्च ३.१.२ , आद्युदात्तश्च ३.१.३ , धातोः ३.१.९१

आदन्ताद्धातोरनुपसर्गात्कर्मण्युपपदे कः स्यात्। अणोऽपवादः। आतो लोप इटि च। गोदः। धनदः। कम्बलदः। अनुपसर्गे किम्? गोसन्दायः। मूलविभुजादिभ्यः कः (वार्त्तिकम्)। मूलानि विभुजति मूलविभुजो रथः। आकृतिगणोऽयम्। महीध्रः। कुध्रः॥

https://ashtadhyayi.com/sutraani/3/2/3

प्रियवशे वदः खच् 

पदच्छेदः  प्रियवशे ( सप्तमी-एकवचनम् ) , वदः ( पञ्चमी-एकवचनम् ) , खच् ( प्रथमा-एकवचनम् )

अनुवृत्तिः  कृत् ३.१.९३ , कर्मणि ३.२.१ , अनुपसर्गे ३.२.३ , सुपि ३.२.४

अधिकारः  प्रत्ययः ३.१.१ , परश्च ३.१.२ , आद्युदात्तश्च ३.१.३ , धातोः ३.१.९१

8.(क) ‘स्त्रीभ्यो ढक्’ सूत्र की सोदाहरण व्याख्या कीजिए।5

स्त्रीभ्यो ढक्  4.1.120

पदच्छेदः  स्त्रीभ्यः ( पञ्चमी-बहुवचनम् ) , ढक् ( प्रथमा-एकवचनम् )

अनुवृत्तिः  तस्य ४.१.९२ , अपत्यम् ४.१.९२

अधिकारः  प्रत्ययः ३.१.१ , परश्च ३.१.२ , आद्युदात्तश्च ३.१.३ , ङ्याप्प्रातिपदिकात् ४.१.१ , तद्धिताः ४.१.७६ , समर्थानां प्रथमाद्वा ४.१.८२ , प्राग्दीव्यतोऽण् ४.१.८३

अनुवृत्तिसहितं सूत्रम्  ‘तस्य अपत्यम्’ (इति) स्त्रीभ्यः ढक्

‘तस्य अपत्यम्’ अस्मिन् अर्थे स्त्रीप्रत्ययान्तशब्दात् ढक्-प्रत्ययः विधीयते ।

(ख) ‘एधते’ की सिद्धि-प्रक्रिया को स्पष्ट कीजिए अथवा ‘अतो दीर्घा यञ्चि’ की व्याख्या कीजिए।5

 ७.३.१०१ अतो दीर्घो यञि

पदच्छेदः  अतः ( षष्ठी-एकवचनम् ) , दीर्घः ( प्रथमा-एकवचनम् ) , यञि ( सप्तमी-एकवचनम् )

अनुवृत्तिः  सार्वधातुके ७.३.८७

अधिकारः  अङ्गस्य ६.४.१

अनुवृत्तिसहितं सूत्रम्  अतः अङ्गस्य सार्वधातुके यञि दीर्घः

यञादि-सार्वधातुके प्रत्यये परे अदन्तस्य अङ्गस्य अन्तिमवर्णस्य दीर्घादेशः भवति ।

9. ‘भविष्यथ’ की सिद्धि-प्रक्रिया का विस्तार से उल्लेख कीजिए।10

10. ‘वधू’ शब्द की रूपसिद्धि की प्रक्रिया को विस्तारपूर्वक स्पष्ट कीजिए।


https://webservices.ignou.ac.in/pre-question/Question%20Paper%20June%202024/SOH/SOHFINAL.htm

june 2024 question papers ignou

https://webservices.ignou.ac.in/pre-question/Question%20Paper%20June%202024/SOH/MSK/MSK-02.pdf

सूत्र – अतिरतिक्रमणे च 1/4/95

वृत्ति – अतिक्रमणे पूजायां च अतिः कर्मप्रवचनीयसंज्ञः स्यात् । अति देवान्कृष्णः ।

पदविश्लेषण अतिः प्रथमान्तं, अतिक्रमणे सप्तम्यन्तं, चाव्ययमिदं सूत्रं

त्रिपदात्मकमस्ति ।

सूत्रार्थ – अतिक्रमण तथा प्रशंसा अर्थों में वर्तमान अति अव्यय की कर्मप्रवचनीय संज्ञा होती है।

उदाहरण अति देवान् कृष्णः (कृष्ण देवों से बढ़कर है)। यहाँ अति शब्द से अतिक्रमण तथा पूजा ये दोनों अर्थ विवक्षित हैं। अतः अति की “अतिरतिक्रमणे च” से कर्मप्रवचनीयसंज्ञा होती है और उसके योग में देव शब्द में “कर्मप्रवचनीययुक्ते द्वितीया” सूत्रसे द्वितीया विभक्ति होकर ‘अति देवान् कृष्णः’ वाक्य सिद्ध हो जाता है। 

है।

सूत्र – परिक्रयणे सम्प्रदानमन्यतरस्याम् 1/4/44

वृत्ति – नियतकालं भृत्या स्वीकरणं परिक्रयणं, तस्मिन् साधकतम कारकं सम्प्रदानसंज्ञ वा स्यात् । शतेन शताय वा परिक्रीतः ।

पदविश्लेषण – परिक्रयणे सप्तम्यन्तं, सम्प्रदानम् प्रथमान्तम्, अन्यतरस्याम् विकल्पार्थक विभक्तिप्रतिरूपकमव्ययम्। परिक्रयणम् अर्थात् निश्चितकाल के लिये किसी को वेतन पर रखना परिक्रयण कहलाता है।

सूत्रार्थ – परिक्रयण क्रिया में साधकतम कारक की विकल्प से सम्प्रदान संज्ञा होती है।

उदाहरण ‘शतेन शताय वा परिक्रीतः’ (सौ रुपये से नियतकाल के लिये खरीदा गया)। यहाँ पर परिक्रयण का बोध हो रहा है और उसका साधकतम शत (सौ रुपये) है। अतः शत शब्द की उक्त सूत्र से सम्प्रदानसंज्ञा होकर चतुर्थीविभक्ति होती है एवं वाक्य बनता है शताय परिक्रीतः। विकल्प से सम्प्रदानसंज्ञा का विधान है। सम्प्रदान के अभाव में करणसंज्ञा होकर तृतीया विभक्ति होती है और वाक्य बनता है शतेन परिक्रीत:।


सूत्र – लटः शतृशानचावप्रथमासमानाधिकरणे 3/2/124

वृत्ति अप्रथमान्तेन समानाधिकरणे लट एतौ वा स्तः। शबादिः ।

सूत्रार्थ अप्रथमान्त पदों के साथ यदि लट् का समानाधिकरण हो तो लट् के स्थान पर शतृ और शानच् प्रत्यय आदेश होते हैं।

उदाहरण – पचन्तं चैत्रं पश्य ।

व्याख्या – यह प्रत्यय विधायक विधि सूत्र है। लटः यह षष्ठी एकवचन का पद है। शतृशानचौ यह प्रथमा द्विवचन का पद है। अप्रथमासमानाधिकरणे यह सप्तमी एकवचन का पद है।

समानाधिकरण से तात्पर्य यह है कि लट् लकार और कारक की एक ही विभक्ति हो। परस्मैपदी धातुओं से शतृ, आत्मनेपदी धातुओं से शानच् तथा उभयपदी से दोनों प्रत्यय होते है। शानच् की तङानावात्मनेपदम् से आत्मनेपदसंज्ञा होती है। शतृ और शानच् प्रत्यय में अनुबन्ध लोप के बाद अत् और आन शेष रहता है। शित् (शकार की इत् संज्ञा) होने के कारण ये दोनों प्रत्यय सार्वधातुक संज्ञक हैं। अतः यहाँ सार्वधातुक सम्बन्धी धातु के गण की व्यवस्था के अनुसार शबादि विकरण कार्य भी होते हैं। जैसे भ्वादिगण की भू आदि धातुओं से शप् विकरण आकर भू+शप शतृ (अत्) = भवत्। इसी प्रकार दिवादिगण की धातु के साथ श्यन्, स्वादि से श्नु आदि विकरण आयेंगे। शतृ में ऋकार की इत्संज्ञा का फल उगिदचां सर्वनामस्थाने धातोः से नुम् आगम आदि करना है। शानच् में शकार और चकार इत्संज्ञक है अतः आन शेष रहता है।

इस प्रकार इस सूत्र का अर्थ यह प्राप्त होता है कि अप्रथमान्त (प्रथमान्त से भिन्न) अर्थात् द्वितीयान्त आदि पदों के साथ यदि लट् लकार का समानाधिकरण हो (यानी दोनों का अधिकरण अर्थात् वाच्य समान अर्थात् अभिन्न रहे) तो लट् के स्थान पर शतृ और शानच् प्रत्यय आदेश होते हैं।

(शतृ) – पचन्तं चैत्रं पश्य पच् (डुपचष् पाके) धातु से कर्तृवाच्य में लट् लकार हुआ। पच्+लट् यहाँ पर लट् का वाच्य वही है जो ‘चैत्रम्’ इस द्वितीयान्त पद का है अतः अप्रथमान्त के साथ समान अर्थात् अभिन्न अधिकरण वाला होने के कारण लट् के स्थान पर ‘लटः शतृशानचावप्रथमासमानाधिकरणे’ इस सूत्र से शतृ और शानच् आदेश होते हैं। यहाँ पर शतृ हुआ। पच्+शतृ इस स्थिति में प्रत्यय सम्बन्धी अनुबन्धों का लोप हुआ। पच्+अत् इस स्थिति में प्रत्यय का शेष जो अत् वह शित् होने के कारण ‘कर्तरि शप्’ सूत्र से शप् विकरण तथा अनुबन्धों का लोप हुआ। पच्+अ+अत् इस अवस्था में वर्ण-सम्मेलन हुआ। पचत् इस स्थिति में स्वादि-उत्पत्ति तथा तत्सम्बन्धी कार्य होकर पचन्तम् यह रूप सिद्ध हुआ।

सूत्र – आने मुक् 7/2/82

वृत्ति

स्यादाने परे। लडित्यनुवर्तमाने पुनर्लड्ग्रहणात् अदन्ताङ्गस्य मुमागमः प्रथमासामानाधिकरण्येऽपि क्वचित्। सन् द्विजः । 

सूत्रार्थ – आन (शानच् का शेष आन) प्रत्यय परे रहते अदन्त अङ्ग को मुम् का आगम होता है। लट् का अनुवर्तन सम्भव होने पर भी पुनः लट् के ग्रहण से यह ज्ञापित होता है कि कहीं-कहीं प्रथमासमानाधिकरण होने पर भी सन् द्विजः जैसे प्रयोगों में उपर्युक्त प्रत्यय हो जाते हैं।

उदाहरण पचमानं चैत्रं पश्य ।

व्याख्या यह आगम विधायक विधि सूत्र है। आने यह सप्तमी एकवचन का पद है। मुक् यह प्रथमा एकवचन का पद है। मुक् में आदि मकार शेष रहता है उकार और ककार का अनुबन्धलोप हो जाता है। कित् होने के कारण आद्यन्तौ टकितौ के नियमन से अदन्त के अन्त में होगा।

लटः शतृशानचावप्रथमासमानाधिकरणे इस सूत्र में विद्यमान लटः इस पद की आवश्यकता के विषय में चर्चा करते हुए वृत्तिकार कहते हैं कि वर्तमाने लट् इस पूर्व सूत्र से लट् की अनुवृत्ति लटः शतृशानचावप्रथमासमानाधिकरणे इस सूत्र में आ सकती थी। फिर भी इस सूत्र में लटः पद का पुनः पढना यह सूचित करता है कि कहीं-कहीं प्रथमासमानाधिकरण होने पर भी सन् द्विजः जैसे प्रयोगों में उपर्युक्त प्रत्यय हो जाते हैं। सन् द्विजः इस प्रयोग के सन् इस पद में शतृ प्रत्यय हुआ है। अस् धातु से शतृ करने पर श्नसोरल्लोपः से अस् के अकार का लोप करके प्रथमा के एक वचन में सन् बनता है।

(शानच्) – पचमानं चैत्रं पश्य पच् (डुपचष् पाके) धातु से कर्तृवाच्य में लट् लकार हुआ।

पच्+लट् यहाँ पर लट् का वाच्य वही है जो ‘चौत्रम्’ इस द्वितीयान्त पद का है अतः अप्रथमान्त के साथ समान अर्थात् अभिन्न अधिकरण वाला होने के कारण लट् के स्थान पर ‘लटः शतृशानचावप्रथमासमानाधिकरणे’ इस सूत्र से शतृ और शानच् आदेश होते हैं। यहाँ पर शानच् हुआ। पच्+शानच् इस स्थिति में प्रत्यय सम्बन्धी अनुबन्धों का लोप हुआ। पच्+आन इस स्थिति में शबादि कार्य हुआ। पच+आन इस स्थिति में आन के परे रहते अदन्त अङ्ग को मुक् का आगम हुआ। पच+मुक्+आन इस स्थिति में मुक् के उकार तथा ककार का अनुबन्धलोप हुआ। पच्+म्+आन इस स्थिति में वर्ण-सम्मेलन हुआ। पचमान इस अवस्था में स्वादि-उत्पत्ति तथा तत्सम्बन्धी कार्य होकर पचमानम् यह रूप सिद्ध हुआ।