MPPSC सहायक प्राध्यापक परीक्षा-2022 द्वितीय प्रश्न पत्र हिंदी परीक्षा तिथि-09/06/2024-SET-B Q.106-107-108-109-110

106. “निराशावाद के भीतर आशावाद का संदेश देना-  संसार की क्षणिकता में उसके वैचित्य का इन्द्रधनुषी चित्र खींचना इन सिद्धों की कविता का गुण था।” यह कथन किस विद्वान का है ?

(A) पं. हजारी प्रसाद द्विवेदी

(B) डॉ. रामकुमार वर्मा

(C) डॉ. गणपति चन्द्र गुप्त

(D) डॉ. नगेन्द्र

MPPSC सहायक प्राध्यापक परीक्षा-2022 द्वितीय प्रश्न पत्र हिंदी परीक्षा तिथि-09/06/2024-SET-B

उत्तर – (B) डॉ. रामकुमार वर्मा

सिद्ध साहित्य-परम्परा और प्रवृत्तियां

डॉ. शिवदत्त शर्मा

भारत में अनेक धर्म, सम्प्रदाय समय समय पर अपने गौरव को प्राप्त हुए तथा किन्हीं विकृतियों के कारण उनका हास भी हुआ, तथा पतन को प्राप्त हुए। वैदिक धर्म अपने विशिष्ट गुणों के कारण अपने अस्तित्व को बनाए रखने में सफल रहा। वैदिक धर्म के बाद बौद्ध धर्म भी अधिक लोकप्रिय हुआ। वैदिक धर्म में कुछ विकार आने के कारण प्रतिक्रिया स्वरूप बौद्ध धर्म का विकास हुआ। बौद्ध धर्म की कुछ अपनी विशेषताएं थीं जिनके कारण अपने प्रारम्भिक काल में इसे बडा महत्व मिला तथा सर्वाधिक लोकप्रिय हुआ। कालान्तर में इसमें भी कई विकार उत्पन्न हो गए तथा इस धर्म का कई शाखाओं में विभाजन होने लगा। महात्मा बुद्ध ने जिस धर्म की स्थापना की थी, उसने बौद्धकाल में अत्यधिक उन्नति की, परन्तु कालान्तर में इसका हास प्रारम्भ हुआ। इस धर्म की दो शाखाएं बन गईं। महायान तथा हीनयान। उत्तरी भारत में धीरे धीरे वैष्णव धर्म और भक्ति का प्रसार बढ रहा था। शंकराचार्य तथा कुमारिल भट्ट जैसे महापुरुषों के प्रभाव से बौद्ध धर्म को कडी टक्कर झेलनी पडी। बौद्ध धर्म के पतन का दूसरा कारण यह भी था कि इस काल तक आते आते महायान शाखा में भी अनेक विकृतियां उत्पन्न हो चुकीं थीं। अन्ततः बौद्ध धर्म की महायान शाखा भी पुनः दो भागों में विभाजित हो गई। वज्रयान और सहजयान। जो बौद्ध उपासक जादू टोना, टोटका आदि के द्वारा सिद्धि प्राप्त करना चाहते थे वे सिद्ध कहलाए। श्री पर्वत इन सिद्धों का मुख्य केन्द्र था। 1 इन सिद्धों ने अपनी प्रचलित जनसाधारण भाषा में अपने विचारों, मतों आदि को आम लोगों तक पहुंचाने का सफल प्रयास किया। इन्होंने इसी जनभाषा में अपने सम्प्रदाय के सिद्धान्तों, विचार धारा आदि को लिपिबद्ध कराया। सभी सिद्ध बाह्य पूजा, जातिपाति, तीरथ आदि के घोर विरोधी थे। इन्होने इसकी जगह अनेक रूपकों द्वारा योगसाधनाके तत्वों का निरूपण किया। अपने सम्प्रदाय के नियमों सिद्धान्तों का परिचय कराने के लिए जिस साहित्य का निर्माण किया उसे सिद्धसाहित्य कहते हैं। इनके प्रमुख ग्रन्थों में चर्यापद, योगचर्या, डोम्बि, गीतिका आदि सिद्ध साहित्य अत्यधिक प्रसिद्ध हैं।2 भारतीय दर्शन के अनुसार सिद्धों की संख्या चौरासी मानी गई हैं। इनमें लुईपा, शबरीपा, सरहपा, कण्हपा, जालंधरपा, कपालपा, आदि प्रमुख हैं। सिद्धों ने अपनी रचनाओं में योगसाधना केद्वारा अन्तःकरण की शुद्धि आदि पर बल दिया हैं तथा रूढियों एवं आडम्बरों का कडा विरोध किया। इसके साथ ही उन्होने उपभोग वाद व साधना के रूप में मद्य-मैथुन का सेवन भी स्वीकार किया। सिद्धों ने निर्वाण के सुख को सहवास-सुख के समान घोषित कियां। सिद्धों ने सिद्धि प्राप्त करने के लिए किसी स्त्री, जिसे सिद्ध शक्ति योगिनी या महामुद्रा कहते थे, का योग या सेवन भी आवश्यक

बताया। रहस्यवाद इनकी मूल प्रवृत्ति थी। सिद्ध-साहित्य की प्रवृत्तियों को निम्न लिखित वर्गों में

बांटा जा सकता है।

1 आडम्बर और रूढियों का खण्डन

सिद्ध साहित्य से स्पष्ट होता है कि सिद्धों ने समाज में प्रचलित पाखण्ड, आडम्बर, रूढि, बाह्याचार आदि का डट कर विरोध किया। डॉ रामकुमार वर्मा के अनुसार निराशावाद के भीतर से आशावाद का संदेश देना, संसार की क्षणिकता में उसके वैचित्र्य का इन्द्रधनुषी चित्र खींचना इन सिद्धों की कविता का गुण था और उनका आदर्श था-जीवन की भयानक वास्तविकता की अग्नि से निकलकर मनुष्य को महासुख के शीतल सरोवर में अवगाहन करना। 3 इस सन्दर्भ में ही सरहपाद की निम्न पंक्तियां देखिए जिनमें वे पंडितों के शास्त्र ज्ञान का विरोध करते हैं-

पंडिअ सअल सत्त बक्खाणइ, दे हहि रुद्ध बसंत न जाणइ।

अमणागमण ण तेन विखंडिअ, तोवि णिलज्जइ भणइ हउं पंडिअ ।।

https://www.allresearchjournal.com/archives/2016/vol2issue1/PartG/2-1-102.pdf

Source Url is above. Ppp

107. ‘ललित विग्रह राज’ नामक नाटक के रचनाकार कौन हैं ?

(A) सोमदेव

(B) बसन्तपाल

(C) विग्रह राज

(D) गोविन्द चन्द्र

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उत्तर – (A) सोमदेव

ललिता विग्रहराज नाटक की रचना उनके दरबारी कवि सोमदेव ने उनके सम्मान में की थी। इस नाटक के केवल अंश ही मस्जिद से बरामद हुए हैं। विग्रहराज द्वारा स्वयं रचित हरिकेलि नाटक के अंश भी अढ़ाई दिन का झोपड़ा में दो शिलापट्टों पर अंकित पाए गए। इस नाटक की शैली प्राचीन कवि भारवि की कृति किरातार्जुनीय पर आधारित है।

https://en.wikipedia.org/wiki/Vigraharaja_IV

108. भक्तिकाल को हिन्दी साहित्य का स्वर्णयुग मानने वाले प्रथम विद्वान कौन हैं ?

(A) ग्रियर्सन

(B) आ. रामचन्द्र शुक्ल

(C) पं. हजारी प्रसाद द्विवेदी

(D) डॉ. नगेन्द्र

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उत्तर – (A) ग्रियर्सन (As per the mppsc provisional key)

यह हिंदी साहित्य का श्रेष्ठ युग है जिसको जॉर्ज ग्रियर्सन ने स्वर्णकाल, श्यामसुन्दर दास ने स्वर्णयुग, आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने भक्ति काल एवं हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लोक जागरण कहा। सम्पूर्ण साहित्य के श्रेष्ठ कवि और उत्तम रचनाएं इसी में प्राप्त होती हैं।

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109. ‘स्वयंभू का रामायण’ हिन्दी का सबसे पुराना और  सबसे उत्तम काव्य है। यह कथन किस आलोचक का है ?

(A) आ. रामचन्द्र शुक्ल

(B) रामकुमार वर्मा

(C) आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी

(D) डॉ. नगेन्द्र

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उत्तर – (C) आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ((As per the mppsc provisional key))

vaise स्वयंभू का रामायण’ को हिंदी का सबसे पुराना और सबसे उत्तम काव्य राहुल सांकृत्यायन ने माना है।

110. मुनि जिन विजय ने हिन्दी जैन रास परम्परा का आदिग्रन्थ किसे माना है ?

(A) भरतेश्वर बाहुबलि रास

(B) उपदेश रसायन रास

(C) श्रावकाचार

(D) रेवन्तगिरिरास

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उत्तर – (B) उपदेश रसायन रास

‘भरतेश्वर-बाहुबली रास’  जैन साहित्य में विशिष्ट स्थान प्राप्त करती है। इसके रचनाकार मुनि जिनविजय ने इस ग्रंथ को जैन-साहित्य की रास-परम्परा का प्रथम ग्रंथ माना है। इसकी रचना 1184 ई० में शालिभद्र सूरि ने की थी। 

भरतेश्वर बाहुबली रास का परिचय (जैन साहित्य की रास परपंरा का प्रथम ग्रंथ)

• रचयिता – शालिभद्रसुरी (भीमदेव द्वितीय के समय पाटण में हुए थे।) 

• रचना समय – 1185ई. में 

• रचना तिथि – संवत् 1231 (मुनिजिन विजय के अनुसार) 

• 205 छन्दों में रचित। 

• वीर रस प्रधान और अंत में शांत रस 

• शालिभद्रसुरी पाटन में निवास करते थे। (मुनिजिन विजय के अनुसार)• 205 छन्दों में रचित। 

• खंडकाव्य 

• 203 कड़ियां में रचित। 

• शालिभद्रसूरी पाटन में निवास करते थे। (मुनिजिन विजय के अनुसार) 

डॉ. गणपति चंद्रगुप्त ने शालिभद्र सुरी हिन्दी का प्रथम कवि माना 

• विषय – इसमें भरत और बाहुबली के साथ तीर्थकर ऋषभदेव के बीच हुए युद्ध का वर्णन । बाद में बाहुबली नै अपने तप और त्याग के बाद ज्ञान प्राप्त करता है । 

• इसके दो संस्करण प्राप्त है – लालचंद भगवान दास गांधी द्वारा संपादित (प्राच्य विद्या मंदिर बड़ौदा द्वारा प्रकाशित) और रास और रासान्वयी काव्य में प्रकाशित। 

• पंक्ति – “बोलत बाहुबली बलवन्त । लोहे खण्डि तउ गरवींड हंत।”