kabir ke pad arth sahit.
पद: 201
आई न सकौ तुज्झपै, सकूँ न तुज्झ बुलाइ।
जियरा यौही लेहुगे, विरह तपाइ तपाइ।।1।।
यहु तन जालौ मसि करौ, लिखौ रामका नांऊँ।
लेखणि करूँ करंककी, लिखि लिखि राम पठाऊँ।।2।।
इस तनका दीवा करौ, बाती मेलूँ जीव।
लोही सिचौ तेल ज्यूँ, कब मुख देखौ।।4।।
कै बिरहिनकूँ मीच दे, कै आपा दिखलाइ।
आठ पहरका दाझणा, मोपै सहा न जाइ।।5।।
शब्दार्थ :-
वह राम दया मत करें। मैं वह शरीर जलाऊँगी, जलाकर राख कर दूंगी ताकि धुआँ आकाश में जाय (और बादल बनकर वहीं) इस आग को वरसकर बुझा दे । विरह की आग से ही वह रस पैदा होगा जो इस ताप को बुझा सकेगा ।
करंक = ठठरी । लोही = लहू, रक्त ।
भावार्थ :-
आई न सकौ तुज्झपै, सकूँ न तुज्झ बुलाइ।
जियरा यौही लेहुगे, विरह तपाइ तपाइ।।1।।
कबीरदास जी कहते हैं कि बड़ी समस्या है कि तुझसे मिलने के लिए न तो मैं तेरे पास आ सकती हूं और न तुझे भुला ही सकती हूं हे राम तुम क्या ऐसे ही विरह में तड़पा तड़पा कर मेरी जान ले लोगे या कभी मुझे दर्शन देने भी आओगे।
यहु तन जालौ मसि करौ, लिखौ रामका नांऊँ।
लेखणि करूँ करंककी, लिखि लिखि राम पठाऊँ।।2।।
वे कहते हैं कि इस शरीर को जलाकर इससे लिखने वाली स्याही बना दूं और फिर उससे इसे राम का नाम लिखो और उस नाम को लिखने के लिए करंक की लेखनी बना दूं और लिख लिख कर अपने राम को भेजूंँ।
इस तनका दीवा करौ, बाती मेलूँ जीव।
लोही सिचौ तेल ज्यूँ, कब मुख देखौ।।4।।
वे आगे कहते हैं कि या तो इस शरीर को दीपक बना दो और उसमें यह जो इसमें जीवन है प्राण है जीव है उसकी बाती बना दूं और उस दीपक में, जो है रक्त, शरीर का जो रक्त है उसका तेल बना दूं। इस प्रकार का भी में प्रयास करूं किंतु आप मुझे बस इतना कह दीजिए कि आपके दर्शन मुझे कब हो सकेंगे।
कै बिरहिनकूँ मीच दे, कै आपा दिखलाइ।
आठ पहरका दाझणा, मोपै सहा न जाइ।।5।।
वे अंत में बहुत ही निराश होते हुए कहते हैं अथवा तो जैसे कोई अंतिम बात कहता हो उसी प्रकार कहते हैं कि या तो आप मुझे अपने आप को दिखा दीजिए या तो फिर मेरे प्राण ही ले लीजिए क्योंकि यह जो आठों प्रहर अर्थात दिन-रात का जो विरह का दुख है वह मुझसे बिल्कुल ही सहा नहीं जा रहा है।
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