मैथिलीशरण गुप्त
एक
नीलांबर परिधान हरित पट पर सुंदर है,
सूर्य-चंद्र युग मुकुट मेखला रत्नाकर है।
नदियाँ प्रेम-प्रवाह फूल तारे मंडन हैं,
बंदी जन खग-वृंद शेष फन सिंहासन हैं!
करते अभिषेक पयोद हैं बलिहारी इस वेष की,
है मातृभूमि ! तू सत्य ही सगुण मूर्ति सर्वेश की॥
दो
मृतक-समान अशक्त विविश आँखों को मीचे;
गिरता हुआ विलोक गर्भ से हमको नीचे।
करके जिसने कृपा हमें अवलंब दिया था,
लेकर अपने अतुल अंक में त्राण किया था।
जो जननी का भी सर्वदा थी पालन करती रही,
तू क्यों न हमारी पूज्य हो? मातृभूमि ! , मातामही!
तीन
जिसकी रज में लोट-लोट कर बड़े हुए हैं,
घुटनों के बल सरक-सरक कर खड़े हुए हैं।
परमहंस-सम बाल्यकाल में सब सुख पाए,
जिसके कारण ‘धूल भरे हीरे’ कहलाए।
हम खेले कूदे हर्षयुत जिसकी प्यारी गोद में,
हे मातृभूमि ! तुझको निरख मग्न क्यों न हों मोद में?
चार
पालन-पोषण और जन्म का कारण तू ही,
वक्ष:स्थल पर हमें कर रही धारण तू ही।
अभ्रंकष प्रसाद और ये महल हमारे,
बने हुए हैं अहो! तुझी से तुझ पर सारे।
हे मातृभूमि ! जब हम कभी शरण न तेरी पाएँगे,
बस तभी प्रलय के पेट में सभी लीन हो जाएँगे॥
पाँच
हमें जीवनधार अन्न तू ही देती है,
बदले में कुछ नहीं किसी से तू लेती है।
श्रेष्ठ एक से एक विविध द्रव्यों के द्वारा,
पोषण करती प्रेम-भाव से सदा हमारा।
हे मातृभूमि ! उपजे न जो तुझसे कृषि-अंकुर कभी,
तो तड़प-तड़प कर जल मरें जठरानल में हम सभी॥
छह
पाकर तुझसे सभी सुखों को हमने भोगा,
तेरा प्रत्युपकार कभी क्या हमसे होगा?
तेरी ही यह देह, तुझी से बनी हुई है,
बस तेरे ही सुरस-सार से सनी हुई है।
हा! अंत-समय तू ही इसे अचल देख अपनाएगी,
हे मातृभूमि ! यह अंत में तुझमें ही मिल जाएगी॥
सात
जिन मित्रों का मिलन मलिनता को है खोता,
जिस प्रेमी का प्रेम हमें मुददायक होता।
जिन स्वजनों को देख हृदय हर्षित हो जाता,
नहीं टूटता कभी जन्म भर जिनसे नाता।
उन सबमें तेरा सर्वदा व्याप्त हो रहा तत्व है
हे मातृभूमि ! तेरे सदृश किसका महा महत्व है?
आठ
निर्मल तेरा नीर अमृत के सम उत्तम है,
शीतल-मंद-सुगंध पवन हर लेता श्रम है।
षट् ऋतुओं का विविध दृश्ययुत अद्भभुत क्रम है,
हरियाली का फ़र्श नहीं मख़मल से कम है।
शुचि सुधा सींचता रात में तुझ पर चंद्र-प्रकाश है,
हे मातृभूमि ! दिन में तरणि करता तम का नाश है॥
नौ
सुरभित, सुंदर, सुखद सुमन तुझ पर लिखते हैं,
भाँति-भाँति के सरस सुधोपम फल मिलते हैं।
ओषधियाँ हैं प्राप्त एक से एक निराली,
खानें शोभित कहीं धातु-वर रत्नोंवाली।
जो आवश्यक होते हमें मिलते सभी पदार्थ हैं,
हे मातृभूमि ! वसुधा, धरा, तेरे नाम यथार्थ हैं॥
दस
दीख रही है कहीं दूर तक शैल-श्रेणी,
कहीं घनावलि बनी हुई है तेरी वेणी।
नदियाँ पैर पखार रही हैं बन कर चेरी,
पुष्पों से तरुराजि कर रही पूजा तेरी।
मृदु मलय-वायु मानो तुझे चंदन चारु चढ़ा रही,
हे मातृभूमि ! किसका न तू सात्विक भाव बढ़ा रही?
ग्यारह
क्षमामयी, तू दयामयी है, क्षेममयी है,
सुधामयी, वात्सल्यमयी, तू प्रेममयी है।
विभवशालिनी, विश्वपालिनी, दुखहर्त्री है,
हे शरणदायिनी देवि! तू करती सब का त्राण है,
हे मातृभूमि ! संतान हम, तू जननी तू प्राण है॥
बारह
आते ही उपकार याद हे माता! तेरा,
हो जाता मन मुग्ध भक्ति-भावों का प्रेरा।
तू पूजा के योग्य, कीर्ति तेरी हम गावें,
मन तो होता तुझे उठाकर शीश चढ़ावें।
वह शक्ति कहाँ, हा! क्या करें, क्यों हम को लज्जा न हो?
हम मातृभूमि ! केवल तुझे शीश झुका सकते अहो!
तेरह
कारण-वश जब शोक-दाह से हम दहते हैं,
तब मुझ पर ही लोट-लोट कर दुख सहते हैं।
पाखंडी ही धूल चढ़ा कर तनु में तेरी,
कहलाते हैं साधु नहीं लगती है देरी।
इस तेरी ही शुचि धूलि में मातृभूमि ! वह शक्ति है।
जो क्रूरों के भी चित्त में उपजा सकती भक्ति है॥
चौदह
कोई व्यक्ति विशेष नहीं तेरा अपना है,
जो यह समझे हाय! देखता वह सपना है।
तुझको सारे जीव एक से ही प्यारे हैं,
कर्मों के फल मात्र यहाँ न्यारे न्यारे हैं।
हे मातृभूमि ! तेरे निकट सबका सम संबंध है,
जो भेद मानता वह अहो! लोचनयुत भी अंध है॥
पंद्रह
जिस पृथिवी में मिले हमारे पूर्वज प्यारे,
उससे हे भगवान! कभी हम रहें न न्यारे।
लोट-लोट कर वहीं हृदय को शांत करेंगे,
उसमें मिलते समय मृत्यु से नहीं डरेंगे।
उस मातृभूमि ! की धूल में जब पूरे सन जाएँगे,
हो कर भव-बंधन-मुक्त हम आत्मरूप बन जाएँगे॥
स्रोत :
- पुस्तक : मैथिलीशरण गुप्त ग्रंथावली -1 (पृष्ठ 191)
- संपादक : कृष्णदत्त पालीवाल
- रचनाकार : मैथिलीशरण गुप्त
- प्रकाशन : वाणी प्रकाशन
- संस्करण : 2008
एक
नीलांबर परिधान हरित पट पर सुंदर है,
सूर्य-चंद्र युग मुकुट मेखला रत्नाकर है।
नदियाँ प्रेम-प्रवाह फूल तारे मंडन हैं,
बंदी जन खग-वृंद शेष फन सिंहासन हैं!
करते अभिषेक पयोद हैं बलिहारी इस वेष की,
है मातृभूमि ! तू सत्य ही सगुण मूर्ति सर्वेश की॥
शब्दार्थ :- नीलांबर = नीले रंग का आकाश। परिधान =वस्त्र।मेखला = करधनी, कमरपटा। सर्वेश = सबका स्वामी, ईश्वर।
व्याख्या :- नीलांबर परिधान
संदर्भ – उपरोक्त पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तिक ‘भाषा एवं संस्कृति’ के प्रथम पाठ ‘मातृभूमि ! ‘ कविता से लिया गया है। इसके रचयिता द्विवेदी युग के प्रसिद्ध कवि मैथिलीशरण गुप्तजी हैं।
प्रसंग – प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ने मातृभूमि ! की सुन्दरता और शोभा का बखान प्रकृति प्रदत्त अवदानों के रूप में किया है।
व्याख्या : – 01
नीलांबर परिधान हरित पट पर सुंदर है,
सूर्य-चंद्र युग मुकुट मेखला रत्नाकर है।
प्रस्तुत पद्य के कवि गुप्त जी कहते हैं कि यह जो नीला आकाश है वह भारत वर्ष की हरी-भरी भूमि रुपी वस्त्र पर बहुत ही सुंदर दिखाई देता है। इस भूमि पर सूर्य और चंद्र ऐसी अत्यंत शोभा पाने वाली भारतमाता के मुकुट की तरह हैं। और समुद्र उसकी मेखला अर्थात कमर में पहने जाने वाली करधनी की तरह है।
नदियाँ प्रेम-प्रवाह फूल तारे मंडन हैं,
बंदी जन खग-वृंद शेष फन सिंहासन हैं!
भारत भूमि में बहने वाली नदियांँ प्रेम के प्रवाह की तरह हैं और यहां पर खिलने वाले सुंदर-सुंदर फूल, जैसे तारों से खचाखच भरा हुआ आकाश है। खग-वृंद अर्थात पक्षियों का समूह, उनका कलरव ऐसा लगता है मानो वह इस भारत भूमि की वंदना कर रहे हैं। सभी मिलकर उसका गुणगान कर रहे हैं, और इस पृथ्वी को धारण करने वाले शेषनाग मानो इस भारत भूमि का सिंहासन हैं।
करते अभिषेक पयोद हैं बलिहारी इस वेष की,
है मातृभूमि ! तू सत्य ही सगुण मूर्ति सर्वेश की॥
इस भूमि पर बादलों के द्वारा जो सुंदर मनोहर दृश्य सृजित होता है वह अत्यंत मनोहर है। ऐसा लगता है मानो सभी बादल मिलकर इस भारत भूमि का अभिषेक कर रहे हैं। हे मातृभूमि ! तू सचमुच उस सर्वेश्वर की सगुण मूर्ति है।
दो
मृतक-समान अशक्त विविश आँखों को मीचे;
गिरता हुआ विलोक गर्भ से हमको नीचे।
करके जिसने कृपा हमें अवलंब दिया था,
लेकर अपने अतुल अंक में त्राण किया था।
जो जननी का भी सर्वदा थी पालन करती रही,
तू क्यों न हमारी पूज्य हो? मातृभूमि , मातामही!
प्रसंग-कवि ने प्रस्तुत पद्यांश में मातृभूमि ! के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हुए प्राणी मात्र के अस्तित्व का कारण मातृभूमि ! द्वारा उत्पन्न अन्न व जल को बताया है।
व्याख्या : – मृतक-समान अशक्त
मृतक के समान शक्तिहीन होकर विवश अवस्था में आंखों को बंद किए हुए, जब हम गर्भ से नीचे गिरते हैं तो कृपा करके हे मातृभूमि ! तुमने ही हमें संभाला, हमें आश्रय दिया था। और अपनी अतुलनीय विशाल गोद में हमको स्थान देकर हमारी रक्षा की थी। और हे मातृभूमि ! तूने केवल हमारी ही रक्षा नहीं की बल्कि हमारी माताओं का भी पालन पोषण किया है। इसलिए तू हमारी नानी, माता की भी माता के समान है, अतः हे मांँ ! तू हमारे लिए अत्यंत पूज्य है।
तीन
जिसकी रज में लोट-लोट कर बड़े हुए हैं,
घुटनों के बल सरक-सरक कर खड़े हुए हैं।
परमहंस-सम बाल्यकाल में सब सुख पाए,
जिसके कारण ‘धूल भरे हीरे’ कहलाए।
हम खेले कूदे हर्षयुत जिसकी प्यारी गोद में,
हे मातृभूमि ! तुझको निरख मग्न क्यों न हों मोद में?
सन्दर्भ – पूर्वानुसार । –
प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश में कवि ने भारत भूमि की महानता और पवित्रता का उल्लेख किया है।
व्याख्या :- जिसकी रज में
कवि कहते हैं कि जिसकी धूल में हम खेल कर लोटपोट होकर बड़े हुए हैं, जब छोटे थे तो इस मिट्टी में घुटनों के सहारे सरट सरक कर हमने धीरे-धीरे चलना इसी मिट्टी में सीखा। परमहंस उन महापुरुषों को कहते हैं जिन्होंने ईश्वर प्राप्ति कर ली है, जो ईश्वरीय आनंद में मग्न रहते हैं, मस्त रहते हैं, जैसे राम कृष्ण परमहंस। तो वे कहते हैं कि हम उसी प्रकार इस मिट्टी में खेल कर आनंदित रहे हैं और हमने सभी प्रकार के सुख इससे प्राप्त किए हैं, और हम ‘धूल भरे हीरे’ इसीलिए कहलाए। अत्यंत हर्षित होकर जिसकी गोद में खेल कर हम पले बढ़े हैं। हे मातृभूमि ! हम उसका स्मरण कर क्यों तेरे प्रति खुशी से सम्मान व्यक्त न करें।
चार
पालन-पोषण और जन्म का कारण तू ही,
वक्ष:स्थल पर हमें कर रही धारण तू ही।
अभ्रंकष प्रसाद और ये महल हमारे,
बने हुए हैं अहो! तुझी से तुझ पर सारे।
हे मातृभूमि ! जब हम कभी शरण न तेरी पाएँगे,
बस तभी प्रलय के पेट में सभी लीन हो जाएँगे॥
प्रसंग – प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ने मातृभूमि ! को संबोधित करते हुए स्तुति के स्तरों में अपनी बात कही है।
व्याख्या :- पालन-पोषण
पालन-पोषण और जन्म का कारण तू ही,
वक्ष:स्थल पर हमें कर रही धारण तू ही।
हे मातृभूमि ! हमारे पालन पोषण और हमारे जन्म लेने का मूलभूत आधार तू ही है और जन्म के उपरांत भी तूने हमें अपने वक्ष-स्थल पर धारण किया है और हमारा पालन कर रही है।
अभ्रंकष प्रसाद और ये महल हमारे,
बने हुए हैं अहो! तुझी से तुझ पर सारे।
कवि कहते हैं कि आकाश को छू लेने वाले ये हमारे बड़े-बड़े निवास स्थान और ये हमारे महल जो बने हुए हैं, अहो मातृभूमि ! यह सब तुझीसे और तुझी पर संभव हो सके हैं।
हे मातृभूमि ! जब हम कभी शरण न तेरी पाएँगे,
बस तभी प्रलय के पेट में सभी लीन हो जाएँगे॥
हे मातृभूमि ! जिस दिन हमें तेरी शरण प्राप्त नहीं हो पाएगी तब यह समझा जाएगा कि हम सभी प्रलय के पेट में विलीन हो जाएंगे अर्थात् हमारा अस्तित्व नहीं रहेगा। हमारा समग्र अस्तित्व नष्ट हो जाएगा।
पाँच
हमें जीवनधार अन्न तू ही देती है,
बदले में कुछ नहीं किसी से तू लेती है।
श्रेष्ठ एक से एक विविध द्रव्यों के द्वारा,
पोषण करती प्रेम-भाव से सदा हमारा।
हे मातृभूमि ! उपजे न जो तुझसे कृषि-अंकुर कभी,
तो तड़प-तड़प कर जल मरें जठरानल में हम सभी॥
प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश में कवि मातृभूमि ! के उपकारों और सद्भावनाओं पर प्रकाश डालते हैं।
व्याख्या :–
हमें जीवनधार अन्न तू ही देती है,
हमें जीवनधार अन्न तू ही देती है,
बदले में कुछ नहीं किसी से तू लेती है।
हम हमारा जीवन धारण कर सकें, इस प्रकार का हमारे शरीर को पोषण देने वाला और उसकी रक्षा करने वाला अन्न, हे मातृभूमि ! तेरी कृपा से ही हमें प्राप्त होता है और हमारे अस्तित्व को प्रदान करने वाली तू बदले में हमसे कुछ भी तो नहीं लेती अर्थात् हम अपनी मातृभूमि ! के प्रति पूरी तरह कृतज्ञ हैं और हमें अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिए।
श्रेष्ठ एक से एक विविध द्रव्यों के द्वारा,
पोषण करती प्रेम-भाव से सदा हमारा।
एक से एक श्रेष्ठ अर्थात् उत्तम खाद्य पदार्थों के द्वारा हमारी मातृभूमि हमारा सदा ही बड़े प्रेम से पालन पोषण करती रहती है।
हे मातृभूमि ! उपजे न जो तुझसे कृषि-अंकुर कभी,
तो तड़प-तड़प कर जल मरें जठरानल में हम सभी॥
कवि अपनी मातृभूमि! से कहते हैं कि हे मातृभूमि ! यदि तुझसे कृषि का अंकुर कभी फूट ही ना पाए तो हम हमारी जठराग्नि अर्थात जो अग्नि हमारे भोजन को पचाती है पेट के अंदर रहकर उसे ही जठराग्नि कहा जाता है। तो हम सभीउसी में भूख से तड़प तड़प कर मर जाएं।
छह
पाकर तुझसे सभी सुखों को हमने भोगा,
तेरा प्रत्युपकार कभी क्या हमसे होगा?
तेरी ही यह देह, तुझी से बनी हुई है,
बस तेरे ही सुरस-सार से सनी हुई है।
हा! अंत-समय तू ही इसे अचल देख अपनाएगी,
हे मातृभूमि ! यह अंत में तुझमें ही मिल जाएगी॥
प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश में कवि मातृभूमि ! द्वारा प्रदान की गई सुख और समृद्धि का गौरवगान करते हैं।
व्याख्या – पाकर तुझसे सभी सुखों को हमने भोगा,
पाकर तुझसे सभी सुखों को हमने भोगा,
तेरा प्रत्युपकार कभी क्या हमसे होगा?
गुप्त जी कहते हैं कि हमने सभी प्रकार के सुखों को तुझी से प्राप्त करके भोगा है और इसलिए तेरा वह उपकार हम कभी भी लौटा नहीं सकते। उसका मोल हम कभी भी चुका नहीं सकते अर्थात् हमें अपनी मातृ भूमि के प्रति सदा कृतज्ञ रहना चाहिए।
तेरी ही यह देह, तुझी से बनी हुई है,
बस तेरे ही सुरस-सार से सनी हुई है।
यह जो हमारा शरीर है, वह शरीर, जिसकी सहायता से ही हम संसार के सारे कर्तव्य संपन्न करते हैं, यह तुझी से बनी हुई है, और तेरे ही सुरस अर्थात् अत्यंत उत्तम रस के सारभाग भाग से बनी हुई है अर्थात् सनी हुई है। हमारी रगों में जो रक्त दौड़ रहा है वह उसी रस से बना है जो अन्न हमारी मातृभूमि से उत्पन्न हुआ है।
हा! अंत-समय तू ही इसे अचल देख अपनाएगी,
हे मातृभूमि यह अंत में तुझमें ही मिल जाएगी॥
कवि आगे कहते हैं गंभीर होकर कि हे मातृभूमि ! अंतिम समय में जब हमारा शरीर हिलडुल नहीं पाएगा, उसमें जड़ता आ जाएगी, प्राण निकल जाएंगे तब तू ही कृपा करके इसे अपनाएगी और इस प्रकार यह देह अंत में तुझ में ही अपनी शरण पाएगी, विलीन हो जाएगी।
सात
जिन मित्रों का मिलन मलिनता को है खोता,
जिस प्रेमी का प्रेम हमें मुददायक होता।
जिन स्वजनों को देख हृदय हर्षित हो जाता,
नहीं टूटता कभी जन्म भर जिनसे नाता।
उन सबमें तेरा सर्वदा व्याप्त हो रहा तत्व है
हे मातृभूमि ! तेरे सदृश किसका महा महत्व है?
प्रसंग – प्रस्तुत पंक्तियों में कवि मातृभूमि ! के महा महत्व को स्पष्ट कर रहे हैं ।
व्याख्या – जिन मित्रों का मिलन मलिनता को है खोता,
जिन मित्रों का मिलन मलिनता को है खोता,
जिस प्रेमी का प्रेम हमें मुददायक होता।
जिन प्रिय मित्रों के मिलने से हमारा शोकाकुल या दुख से भरा हुआ मलिन मुख मलिनता को खोकर प्रसन्नता को प्राप्त करता है, और हमारे स्वजनों का प्रेम हमारे लिए आनंददायक सिद्ध होता है।
जिन स्वजनों को देख हृदय हर्षित हो जाता,
नहीं टूटता कभी जन्म भर जिनसे नाता।
अपने निज जनों को देखकर हमारा हृदय हर्षित हो जाता है, आनंद से भर जाता है और इस प्रकार उनसे हमारा जीवन भर नाता नहीं टूटता है।
उन सबमें तेरा सर्वदा व्याप्त हो रहा तत्व है
हे मातृभूमि ! तेरे सदृश किसका महा महत्व है?
उन सभी स्वजनों को देने वाली अर्थात् उन सभी का अस्तित्व भी तेरे ही कारण संभव हो सका है, उन सभी में तू ही किसी आधार तत्व की तरह व्याप्त है। अतः हे मातृभूमि ! तेरे सामान और किसका महामहत्व हो सकेगा अर्थात् किसी का भी नहीं।
✓
आठ
निर्मल तेरा नीर अमृत के सम उत्तम है,
शीतल-मंद-सुगंध पवन हर लेता श्रम है।
षट् ऋतुओं का विविध दृश्ययुत अद्भभुत क्रम है,
हरियाली का फ़र्श नहीं मख़मल से कम है।
शुचि सुधा सींचता रात में तुझ पर चंद्र-प्रकाश है,
हे मातृभूमि दिन में तरणि करता तम का नाश है॥
प्रसंग – कवि ने उपरोक्त पंक्तियों के माध्यम से प्राकृतिक उपादानों की सुन्दरता का बखान किया है।
व्याख्या :- निर्मल तेरा नीर अमृत के सम उत्तम है,
निर्मल तेरा नीर अमृत के सम उत्तम है,
शीतल-मंद-सुगंध पवन हर लेता श्रम है।
कवि कहते हैं कि हे मातृभूमि ! तेरा निर्मल जल अमृत के समान उत्तम है गुणकारी है और इस भूमि पर चलने वाली शीतल मंद सुगंधित पवन हमारे श्रम अर्थात थकान को हर लेती है।
षट् ऋतुओं का विविध दृश्ययुत अद्भभुत क्रम है,
हरियाली का फ़र्श नहीं मख़मल से कम है।
भारतवर्ष में छह प्रकार की ऋतुओं की विविधता हमें प्राप्त होती है, दिखाई देती है, यह इसका अद्भुत क्रम है ।और यहां पर फैली हुई हरियाली अर्थात कृषि एवं वानिकी की समृद्धि किसी मखमली फर्श से कम नहीं है। अर्थात यह हमें बहुत प्रिय है अच्छा लगता है।
शुचि सुधा सींचता रात में तुझ पर चंद्र-प्रकाश है,
हे मातृभूमि ! दिन में तरणि करता तम का नाश है॥
शुचि का अर्थ होता है पवित्र रात्रि में जब यहां पर चंद्रोदय होता है तो उसका प्रकाश अपनी चांदनी के माध्यम से अपनी शीतल स्वच्छ किरणों के माध्यम से इस भूमि पर अमृत की वर्षा करता है। उससे सभी औषधियां पुष्ट होती हैं उत्तम गुणों से परिपूर्ण होती हैं। वह कहते हैं कि हे मातृभूमि ! इस प्रकार चंद्र का प्रकाश रात्रि में होता है और दिन में तरणि अर्थात् सूर्य इस भूमि के अंधकार का विनाश कर देता है और सर्वत्र प्रकाश फैला देता है।
✓
नौ
सुरभित, सुंदर, सुखद सुमन तुझ पर लिखते हैं,
भाँति-भाँति के सरस सुधोपम फल मिलते हैं।
ओषधियाँ हैं प्राप्त एक से एक निराली,
खानें शोभित कहीं धातु-वर रत्नोंवाली।
जो आवश्यक होते हमें मिलते सभी पदार्थ हैं,
हे मातृभूमि ! वसुधा, धरा, तेरे नाम यथार्थ हैं॥
प्रसंग—प्रस्तुत पद्यांश में कवि मातृभूमि ! द्वारा प्रदत्त पदार्थों का उल्लेख करते हैं।
व्याख्या :- सुरभित, सुंदर, सुखद सुमन तुझ पर खिलते हैं,
सुरभित, सुंदर, सुखद सुमन तुझ पर खिलते हैं,
भाँति-भाँति के सरस सुधोपम फल मिलते हैं।
मन को प्रिय ऐसी सुवास से संपन्न, सुंदर और सुख देने वाले पुष्प इस भारत भूमि पर उत्पन्न होते हैं खिलते हैं शोभा देते हैं। और हमें यहां पर अनेकों प्रकार के रस युक्त और अमृत के समान फल आहार के लिए प्राप्त होते हैं।
ओषधियाँ हैं प्राप्त एक से एक निराली,
खानें शोभित कहीं धातु-वर रत्नोंवाली।
यहां पर एक से बढ़कर एक निराली अर्थात उत्तम से उत्तम औषधियांँ हमें प्राप्त होती हैं। और यहां पर तरह-तरह की खाने हैं जहां से हमें अत्यंत मूल्यवान खनिज प्राप्त होते हैं कहीं पर धातुओं की तो कहीं पर अत्यंत मनोहर और मूल्यवान रत्नों को प्रदान करने वाली खाने शोभा पाती हैं।
जो आवश्यक होते हमें मिलते सभी पदार्थ हैं,
हे मातृभूमि ! वसुधा, धरा, तेरे नाम यथार्थ हैं॥
हमारे जीवन के लिए जिन भी पदार्थों की हमें आवश्यकता होती है वे सभी पदार्थ हमें यहां प्राप्त हो जाते हैं। हे मातृभूमि ! वसुधा( वसुधा नाम का अर्थ संस्कृत में धन का उत्पादक है, जिसका उपयोग पृथ्वी को संदर्भित करने के लिए किया जाता है।) धरा (अर्थात् जो धारण करने वाली है) यह सब तेरे यथार्थ नाम हैं अर्थात इन नामों के द्वारा तेरे यथार्थ स्वरूप का हमें ज्ञान होता है।
✓
दस
दीख रही है कहीं दूर तक शैल-श्रेणी,
कहीं घनावलि बनी हुई है तेरी वेणी।
नदियाँ पैर पखार रही हैं बन कर चेरी,
पुष्पों से तरुराजि कर रही पूजा तेरी।
मृदु मलय-वायु मानो तुझे चंदन चारु चढ़ा रही,
हे मातृभूमि ! किसका न तू सात्विक भाव बढ़ा रही?
प्रसंग-प्रस्तुत पद्यांश में प्रकृति भी मातृभूमि ! का श्रृंगार कर यशोगान करते हुए प्रतीत हो रही है।
व्याख्या :- दीख रही है कहीं दूर तक शैल-श्रेणी,
दीख रही है कहीं दूर तक शैल-श्रेणी,
कहीं घनावलि बनी हुई है तेरी वेणी।
यहां पर हमें दूर तक शैल अर्थात चट्टानों की श्रृंखलाएं दिखाई देती है और कहीं पर आकाश में घन अर्थात बादलों का समूह ऐसा लगता है ऐसा प्रतीत होता है मानो तेरी वेणी अर्थात् गजरा शोभायमान है।
नदियाँ पैर पखार रही हैं बन कर चेरी,
पुष्पों से तरुराजि कर रही पूजा तेरी।
जिस प्रकार चरणों का प्रक्षालन करने के लिए जल की आवश्यकता होती है , उसी प्रकार ऐसा प्रतीत होता है मानो यहां पर प्रवाहित होने वाली अनेकों महान नदियां अपने जल से, हे मातृभूमि ! तेरे चरणों को पखार रही हैं, उनकी पूजा कर रही हैं। वे तेरी सेविकाएंँ हैं और तुझे अपने गुरु के समान मानकर पूजा कर रही हैं। और यह जो वन अर्थात तरुराजि है वे अपने पुष्पों से तेरी ही पूजा कर रहे हैं।
मृदु मलय-वायु मानो तुझे चंदन चारु चढ़ा रही,
हे मातृभूमि ! किसका न तू सात्विक भाव बढ़ा रही?
मलय का अर्थ होता है सफेद चन्दन का वृक्ष। चारू नाम का मतलब प्रीति, सुखद, सुंदर, प्यार, पोषित होता है।
तो कवि कहते हैं कि यहां की कोमल वायु इस प्रकार से विचरण करती है जैसे उसमें चंदन की सुगंध मिली हुई है और वह तुझे सुंदर सुखद चंदन अर्पण कर रही है। हे मातृभूमि ! यहां की जल, वायु, आकाश इस प्रकार पवित्र हैं कि वे हर किसी के लिए सात्विकता प्रदान कर रहे हैं और सभी की सात्विकता बढ़ रही है।
✓
ग्यारह
क्षमामयी, तू दयामयी है, क्षेममयी है,
सुधामयी, वात्सल्यमयी, तू प्रेममयी है।
विभवशालिनी, विश्वपालिनी, दुखहर्त्री है,
हे शरणदायिनी देवि! तू करती सब का त्राण है,
हे मातृभूमि ! संतान हम, तू जननी तू प्राण है॥
प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश में कवि मातृभूमि ! के त्याग, प्रेम, वात्सल्य के प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त करते हैं।
व्याख्या :- क्षमामयी, तू दयामयी है, क्षेममयी है,
क्षमामयी, तू दयामयी है, क्षेममयी है,
सुधामयी, वात्सल्यमयी, तू प्रेममयी है।
हे मातृभूमि ! तू सदा क्षमा करने वाली है, तू दया की मूर्ति है, करुणा तेरा स्वभाव है और तू सभी की रक्षा करने वाली है, तू अमृत से परिपूर्ण है। वात्सल्य कि तुझ में कोई कमी नहीं है और प्रेम की तो तू जैसे मूर्ति ही है, तू प्रेममयी है।
विभवशालिनी, विश्वपालिनी, दुखहर्त्री है,
हे शरणदायिनी देवि! तू करती सब का त्राण है,
हे मातृभूमि ! संतान हम, तू जननी तू प्राण है॥
वे आगे कहते हैं कि हे मातृभूमि ! तू अत्यंत वैभवशालिनी है। तेरे पास वैभव(धन-समृद्धि) की कोई कमी नहीं है। तू समग्र विश्व का पालन करने वाली है और दुखों का हरण करने वाली है। हे शरण देने वाली देवी! तू सभी की रक्षा करती है। सभी को अभय का दान देती है। हे मातृभूमि ! हम सभी तेरी संतान हैं और तू हमारी माता है। तुझमें ही हमारे प्राण बसते हैं।
बारह
आते ही उपकार याद हे माता! तेरा,
हो जाता मन मुग्ध भक्ति-भावों का प्रेरा।
तू पूजा के योग्य, कीर्ति तेरी हम गावें,
मन तो होता तुझे उठाकर शीश चढ़ावें।
वह शक्ति कहाँ, हा! क्या करें,
क्यों हम को लज्जा न हो?
हम मातृभूमि ! केवल तुझे शीश झुका सकते अहो!
प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश में कवि मातृभूमि ! का उपकार मानते हुए उसे अपना शीश तक अर्पण करने की बात करते हैं ।
व्याख्या :- आते ही उपकार याद हे माता! तेरा,
आते ही उपकार याद हे माता! तेरा,
हो जाता मन मुग्ध भक्ति-भावों का प्रेरा।
हे माता! तेरा स्मरण होते ही और तेरे इतने उपकारों को याद करते ही मेरा मन तेरे प्रति भक्तिभाव से भर जाता है, और मुग्ध हो जाता है।
तू पूजा के योग्य, कीर्ति तेरी हम गावें,
मन तो होता तुझे उठाकर शीश चढ़ावें।
तू पूजन के योग्य है हम सभी तेरी कीर्ति का गुणगान करते हैं, हमारे मन में तो यह आता है कि हम तुझे अपने शीश पर धारण कर लें अथवा तुझे अपना शीश उठाकर अर्पण कर दें।
वह शक्ति कहाँ, हा! क्या करें,
क्यों हम को लज्जा न हो?
हम मातृभूमि ! केवल तुझे
शीश झुका सकते अहो!
किंतु हमारे पास इतनी शक्ति कहां है कि हम ऐसा कर सकें और इसलिए हमें इस बात की लज्जा आती है हम लज्जित होते हैं कि हम सेवा नहीं कर पाते। और इस प्रकार लाचार होकर हे मातृभूमि ! हम तुझे केवल अपना शीश ही झुका सकते हैं अर्थात् हम तेरे प्रति सदा ही कृतज्ञता से भरे हुए हैं।
तेरह
कारण-वश जब शोक-दाह से हम दहते हैं,
तब मुझ पर ही लोट-लोट कर दुख सहते हैं।
पाखंडी ही धूल चढ़ा कर तनु में तेरी,
कहलाते हैं साधु नहीं लगती है देरी।
इस तेरी ही शुचि धूलि में मातृभूमि ! वह शक्ति है।
जो क्रूरों के भी चित्त में उपजा सकती भक्ति है॥
प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश में कवि मातृभूमि ! की पवित्र धूल का वर्णन करते है और कहते है कि इस धरा की धूल में अथाह शक्ति है ।
व्याख्या :– कारण-वश जब शोक-दाह से हम दहते हैं,
कारण-वश जब शोक-दाह से हम दहते हैं,
तब मुझ पर ही लोट-लोट कर दुख सहते हैं।
कवि कहते हैं कि किसी कारणवश जब हम शोक से दहते रहते हैं अर्थात् जलते हैं , तब तुझी में तेरी ही मिट्टी में लोटपोट हो कर उसे सह लेने की शीतलता और शांति प्राप्त करते हैं।
पाखंडी ही धूल चढ़ा कर तनु में तेरी,
कहलाते हैं साधु नहीं लगती है देरी।
ऐसे लोग जो भीतर और बाहर से अलग रहते हैं और समाज के प्रति कपट करते हैं ऐसे लोग ही जब तेरी मिट्टी तेरी धूल अपने शरीर पर धारण करते हैं तो वे अपने को साधु कहलाते हैं पर होते नहीं।
इस तेरी ही शुचि धूलि में मातृभूमि ! वह शक्ति है।
जो क्रूरों के भी चित्त में उपजा सकती भक्ति है॥
किंतु है मातृभूमि ! तेरी यह धूली इतनी पवित्र है इसमें इतनी शक्ति है कि जो क्रूर अर्थात् निर्दयी लोग, जिनके मन में दया का करुणा का भाव नहीं है, उनके चित्त में भी यह भक्ति की भावना, करुणा और दया की भावना को उत्पन्न कर सकती है।
✓
चौदह
कोई व्यक्ति विशेष नहीं तेरा अपना है,
जो यह समझे हाय! देखता वह सपना है।
तुझको सारे जीव एक से ही प्यारे हैं,
कर्मों के फल मात्र यहाँ न्यारे न्यारे हैं।
हे मातृभूमि ! तेरे निकट सबका सम संबंध है,
जो भेद मानता वह अहो! लोचनयुत भी अंध है॥
प्रसंग – प्रस्तुत पंक्तियों में कवि द्वारा मातृभूमि ! के सभी प्राणियों के प्रति समान व्यवहार को प्रदर्शित किया गया है ।
व्याख्या :– कोई व्यक्ति विशेष नहीं तेरा अपना है,
कोई व्यक्ति विशेष नहीं तेरा अपना है,
जो यह समझे हाय! देखता वह सपना है।
हे माता! तेरे लिए सभी अपनी संतान के समान हैं, और तू किसी से भी विशेषता का भाव न रखकर सबसे सामान्य व्यवहार करती है और कोई व्यक्ति विशेष यदि यह समझता है तो वह स्वप्न देखता है अर्थात् यह वास्तविकता नहीं है।
तुझको सारे जीव एक से ही प्यारे हैं,
कर्मों के फल मात्र यहाँ न्यारे न्यारे हैं।
तुझे सभी प्रकार के जीवो से एक ही प्रकार का प्रेम है क्योंकि वे सभी तेरी संतानें हैं किंतु जो कर्मों का फल है, वह तो कर्म के अनुसार ही भिन्न-भिन्न प्राणियों के लिए भिन्न-भिन्न होता ही है।
हे मातृभूमि ! तेरे निकट सबका सम संबंध है,
जो भेद मानता वह अहो! लोचनयुत भी अंध है॥
हे मातृभूमि ! तेरे सान्निध्य में सबके लिए समता का ही आचरण है। जो भेद मानता है वह अपने नेत्र होते हुए भी इसे देख नहीं पाता अर्थात् अरे! वह तो जैसे नेत्रहीन ही है।
✓
पंद्रह
जिस पृथिवी में मिले हमारे पूर्वज प्यारे,
उससे हे भगवान! कभी हम रहें न न्यारे।
लोट-लोट कर वहीं हृदय को शांत करेंगे,
उसमें मिलते समय मृत्यु से नहीं डरेंगे।
उस मातृभूमि ! की धूल में जब पूरे सन जाएँगे,
हो कर भव-बंधन-मुक्त हम आत्मरूप बन जाएँगे॥
प्रसंग :- उपरोक्त पंक्तियों में कवि अपने पूर्वजों को याद करते हैं।
व्याख्या :– जिस पृथिवी में मिले हमारे पूर्वज प्यारे,
जिस पृथिवी में मिले हमारे पूर्वज प्यारे,
उससे हे भगवान! कभी हम रहें न न्यारे।
जिस भूमि में हमारे अनेक पूर्वजों का जीवन विलीन हो गया है उस भूमि से हे भगवान! हम कभी भी अलग न हों उससे दूर न जाएं हम यहीं पर निवास करें।
लोट-लोट कर वहीं हृदय को शांत करेंगे,
उसमें मिलते समय मृत्यु से नहीं डरेंगे।
यदि हमें कोई शोक या दुख प्राप्त होता है तो हम इसी पवित्र मिट्टी में लोट लोट कर अपने हृदय में शांति को प्राप्त करेंगे और उसी मिट्टी में जब हमारे प्राणों का अंत हो जाएगा तब हमारा शरीर उसी मिट्टी में हम प्रसन्नता पूर्वक मिलने देंगे। और इस प्रकार हम हमारी मृत्यु से भी नहीं भयभीत नहीं होंगे।
उस मातृभूमि ! की धूल में जब पूरे सन जाएँगे,
हो कर भव-बंधन-मुक्त हम आत्मरूप बन जाएँगे॥
उस मातृभूमि ! की मिट्टी में जब हम पूरी तरह से विलीन हो जाएंगे एकाकारता प्राप्त कर जाएंगे तब हम इस संसार रूपी बंधन से मुक्त होकर अपने आत्म स्वरूप में विश्रांति को प्राप्त करेंगे, हम ब्रह्म रूप हो जाएंगे।
✓
Category
- About Culture-संस्कृति के विषय में
- About Institution-संस्था के विषय में
- ACT.-अधिनियम
- Awareness About Geography-भूगोल के विषय में जागरूकता
- Awareness About Indian History-भारतीय इतिहास के विषय में जागरुकता
- Awareness About Maths-गणित के बारे में जागरूकता
- Awareness about Medicines
- Awareness About Politics-राजनीति के बारे में जागरूकता
- Awareness-जागरूकता
- Basic Information
- Bharat Ratna-भारत रत्न
- Chanakya Quotes
- CMs OF MP-मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री
- e-Test-ई-टेस्ट
- Education-शिक्षा
- Granthawali-ग्रन्थावली
- Hindi Literature
- Hindi Literature-हिंदी साहित्य
- HINDI NATAK-हिंदी नाटक
- Hindi Upanyas-हिंदी उपान्यास
- ICT-Information And Communication TEchnology
- Jokes-चुटकुले
- Kabir ji Ki Ramaini-कबीर जी की रमैणी
- KAHANIYAN
- Katha-Satsang-कथा-सत्संग
- Kavyashastra-काव्यशास्त्र
- Meaning In Hindi-मीनिंग इन हिंदी
- Meaning-अर्थ
- Motivational Quotes in Hindi-प्रेरक उद्धरण हिंदी में
- MPESB(VYAPAM)-Solved Papers
- MPPSC
- MPPSC AP HINDI
- MPPSC GENERAL STUDIES
- MPPSC-AP-HINDI-EXAM-2022
- MPPSC-Exams
- MPPSC-मध्यप्रदेश लोक सेवा आयोग
- Nibandha
- Padma Awardees-पद्म पुरस्कार विजेता
- PDFHUB
- PILLAR CONTENT
- QUOTES
- SANSKRIT-HINDI
- Sarkari Job Advertisement-सरकारी नौकरी विज्ञापन
- Sarkari Yojna-सरकारी योजना
- Sarkari-सरकारी
- Sarthak News-सार्थक न्यूज़
- Theoretical Awareness-सैद्धांतिक जागरूकता
- UGC_NET_HINDI
- UGCNET HINDI
- UGCNET HINDI PRE. YEAR QUE. PAPERS
- UGCNET HINDI Solved Previous Year Questions
- UGCNET-FIRST-PAPER
- UGCNET-FIRSTPAPER-PRE.YEAR.Q&A
- UPSC-संघ लोक सेवा आयोग
- Various Exams
- इकाई – 02 शोध अभिवृत्ति (Research Aptitude)
- इकाई – 03 बोध (Comprehension)
- इकाई – 04 संप्रेषण (Communication)
- इकाई – 07 आंकड़ों की व्याख्या (Data Interpretation)
- इकाई – 10 उच्च शिक्षा प्रणाली (Higher Education System)
- इकाई -01 शिक्षण अभिवृत्ति (Teaching Aptitude
- इकाई -06 युक्तियुक्त तर्क (Logical Reasoning)
- इकाई -09 लोग विकास और पर्यावरण (People, Development and Environment)
- इकाई 08 सूचना और संचार प्रौद्योगिकी (ICT-Information and Communication Technology)
- इकाई-05 गणितीय तर्क और अभिवृत्ति (Mathematical Reasoning And Aptitude)
- कबीर ग्रंथावली (संपादक- हजारी प्रसाद द्विवेदी)
- कविताएँ-Poetries
- कहानियाँ – इकाई -07
- कहानियाँ-KAHANIYAN
- कहानियाँ-Stories
- खिलाड़ी-Players
- प्राचीन ग्रन्थ-Ancient Books
- मुंशी प्रेमचंद
- व्यक्तियों के विषय में-About Persons
- साहित्यकार
- हिंदी व्याकरण-Hindi Grammar
Latest
- MPPSC PRELIMS 2024 QUESTION PAPER SET-C IN ENGLISH pdf Download
- MPPSC PRELIMS 2024 QUESTION PAPER IN HINDI pdf Download
- MPPSC-PRELIMS EXAM PAPER-01(GENERAL STUDIES)-2024-SOLVED PAPER WITH DETAILED SOLUTIONS-EXAM DATE-23-06-2024 Que.No.91-100
- MPPSC-PRELIMS EXAM PAPER-01(GENERAL STUDIES)-2024-SOLVED PAPER WITH DETAILED SOLUTIONS-EXAM DATE-23-06-2024 Que.No.81-90
- MPPSC-PRELIMS EXAM PAPER-01(GENERAL STUDIES)-2024-SOLVED PAPER WITH DETAILED SOLUTIONS-EXAM DATE-23-06-2024 Que.No.71-80