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अपनी बात
विचार के क्षणों में मुझे गद्य लिखना ही अच्छा लगता रहा है,, क्योंकि उसमें अपनी अनभूति ही नहीं बाह्य परिस्थितियों के विश्लेषण के’ लिए भी पर्याप्त अवकाश रहता है। मेरा सबसे पहला सामाजिक निबन्ध तब लिखा गया था जब मैं सातवीं कक्षा की विद्यार्थिनी थी अतः जीवन की वास्तविकता से मेरा परिचय कुछ नवीन नहीं है।
प्रस्तुत संग्रह में कुछ ऐसे निबन्ध जा रहे हैं जिनमें मैंने भारतीय नारी की विषम परिस्थितियों को अनेक दृष्टिविन्दु से देखने का प्रयास किया है। अन्याय के प्रति मैं स्वभाव से असहिष्णु हूँ अतः इन निबन्धों में उग्रता की गन्ध स्वाभाविक है, परन्तु ध्वंस के लिए ध्वंस के सिद्धान्त में मेरा कभी विश्वास नहीं रहा। मैं तो सुजन के उन प्रकाश-तत्वों के प्रति निष्ठावान हूँ जिनकी उपस्थिति में विकृति अन्धकार के समान विलीन हो जाती है। जब तक प्रकृति व्यक्त नहीं होती तब तक विकृति के ध्वंस में अपनी शक्तियों को उलझा देना वैसा ही है जैसा प्रकाश के अभाव में अंधेरे को दूध से धो-धोकर सफ़ेद करने का प्रयास । वास्तव” में अन्धकार स्वय कुछ न होकर आलोक का अभाव है इसीसे तो छोटा से छोटा दीपक भी उसकी सघनता नष्ट कर देने में समर्थ है।

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भारतीय नारी भी जिस दिन अपने सम्पूर्ण प्राणप्रवेग से जाग सके उस दिन उसकी गति रोकना किसी के लिए सम्भव नहीं। उसके अधि- कारों के सम्बन्ध में यह सत्य है कि वे भिक्षावृत्ति से न मिले हैं न मिलेगे, क्योंकि उनकी स्थिति आदान-प्रदान-योग्य वस्तुओं से भिन्न है। समाज में व्यक्ति का सहयोग और विकास की दिशा में उसका उपयोग ही उसके अधिकार निश्चित करता रहता है और इस प्रकार, हमारे अधिकार, हमारी शक्ति और विवेक के सापेक्ष रहेंगे। यह कथन सुनने में चाहे बहुत व्यावहारिक न लगे परन्तु इसका प्रयोग निर्भान्त सत्य सिद्ध होगा। अनेक बार नारी की बाह्य परिस्थितियों के परिवर्तन की ओर ध्यान न देकर मैं उसकी शक्तियों को जाग्रत करके परिस्थितियों में साम्य लानेवाली सफलता सम्भव कर सकी हूँ। समस्या का समाधान समस्या के शान पर निर्भर है और यह शान शाता की अपेक्षा रखता है। अतः अधिकार के इच्छुक व्यक्ति को अधिकारी भी होना चाहिए। सामान्यतः भारतीय नारी में इसी विशेषता का अभाव मिलेगा। कहीं उसमें साधारण दयनीयता है और कहीं असाधारण विद्रोह है, परन्तु सन्तुलन से उसका जीवन परिचित नहीं।
प्रस्तुत निबन्ध किस सीमा तक सोचने की प्रेरणा दे सकेंगे, यह चता सकना मेरे लिए सम्भव नहीं। पर यदि इनसे भारतीय नारी की विषम परिस्थितियों की धुँधली रेखाएँ कुछ स्पष्ट हो सकें तो इन्हें संग्रहीत करना व्यर्थ न होगा ।
५-५-०४२

  • महादेवी

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