रे रे जीव अपनां दुःख न सँभारा

कबीर ग्रंथावली- डॉ. श्यामसुंदरदास (रमैणी )

।।निरंतर।।

रे रे जीव अपनां दुःख न सँभारा,

रे रे जीव अपनां दुःख न सँभारा, जिहिं दुःख व्याप्या सब संसारा ।। 

माया मोह भूले सब लोई, कयंचित लोभ माँनिक दीयौ खोई ।। 

मैं मेरी करि बहुत बिगूता, जननीं उदर जनम का सूता ।। 

बहुतैं रूप भेष बहु कीन्हाँ, जुरा मरन क्रोध तन खींनाँ ।। 

उपजै बिनसै जोनि फिराई, सुख कर मूल न पावै चाही ।। 

दुःख संताप कलेस बहु पावै, जो न मिलै सो जरत बुझावें ।। 

हित जीव राखि है भाई, सो अनहित है जाइ बिलाई ।। 

मोर तोर करि जरे अपारा, मृग तृष्णाँ झूठी संसारा ।। 

माया मोह झूठ रह्यौ लागी, का भयौ इहाँ का ह्वै ह्वै आगी।। 

कछु कछु चेति देखि जीव अबही, मनिषा जनम न पावै कबही ।। 

सार आहि जे संग पियारा, जब चेतै तब ही उजियारा ।।

 त्रिजुग जोनि जे आहि अचेता, मनिषा जनम भयौ चित चेता ।। 

आतमां मुरछि मुरछि जरि जाइ, पिछले दुःख कहता न सिराई ।। 

सोई त्रास जे जाँनें हंसा, तौ अजहूँ न जीव करै संतोसा ।। 

भौसागर अति वार न पारा, ता तिरिबे को कहु बिचारा ।। 

जाजल की आदि अंति नहीं जानिये, ताको डर काहे न मानियै ।। 

को बोहिथ को खेवट आही, जिहि तरिये सो लीजै चाही ।। 

समझि बिचारि जीव जब देख्या, यहु संसार सुपन करि लेख्या ।। 

भई बुधि कछू ग्याँन निहारा, आप-आप ही किया बिचारा ।। 

आपण मैं जे रह्यौ समाई, नेडै दूरी कथ्यौ नहिं जाई ।। 

ताके चीन्है परचौ पावा, भई समझि तासूँ मन लावा ।।

भाव भगति हित बोहिया, सतगर खेवनहार । 

अलप उदिक तब जांणिये, जब गोपद खुर बिस्तार । । ८ ।।

व्याख्या :- 

रे रे जीव अपनां दुःख न सँभारा, जिहिं दुःख व्याप्या सब संसारा ।। 

माया मोह भूले सब लोई, कयंचित लोभ माँनिक दीयौ खोई ।। 

कबीर दास जी कहते हैं की हेप्राणी! तूने अपना दुख नहीं संभाला जिसको इस संसार में सब और से दुख ही व्याप्त है अर्थात सारा संसार दुःख में है। संसार के सारे प्राणी इस माया मोह में भूले हुए हैं, खोये हुए हैं। और अपने थोड़े से लोभ के लिए उन्होंने माणिक अर्थात ईश्वर रूपी मणि को खो दिया है।

मैं मेरी करि बहुत बिगूता, जननीं उदर जनम का सूता ।। 

बहुतैं रूप भेष बहु कीन्हाँ, जुरा मरन क्रोध तन खींनाँ ।। 

मैं और मेरा के चक्रव्यूह में फंसकर यह बहुत भटका है माता के गर्भ में सोया है और फिर जन्म लिया है। इसने बहुत से वेश और रूप धारण किए हैं और जरा मरण क्रोध आदि शरीर को धारण कर भुगते हैं।

उपजै बिनसै जोनि फिराई, सुख कर मूल न पावै चाही ।। 

दुःख संताप कलेस बहु पावै, जो न मिलै सो जरत बुझावें ।। 

यह उत्पन्न होता है अर्थात जन्म लेता है और फिर उसका विनाश होता है अर्थात मृत्यु को प्राप्त होता है और इस प्रकार यह है अनेक योनियों में घूमता रहा है और उसने अपने उस मूल को प्राप्त करना ही नहीं चाहता  है। जहां से सुख प्राप्त होता है इसमें दुख संताप और क्लेश बहुत प्राप्त किए हैं किंतु इसे ऐसा उपाय बताने वाला अर्थात् गुरु प्राप्त नहीं हुआ है जो इनके इनको जलाने वाले दुख को नष्ट कर सके अर्थात् तपन को बुझा सके।

हित जीव राखि है भाई, सो अनहित है जाइ बिलाई ।। 

मोर तोर करि जरे अपारा, मृग तृष्णाँ झूठी संसारा ।। 

इस मनुष्य ने अथवा प्राणी ने अपने हित के लिए जिन्हें भाई समझ कर संभाल कर रखा है वही इसके लिए इसका अहित का कारण बन जाते हैं। यह मेरा और तेरा करके हमेशा जलता रहता है और यह संसार मृगतृष्णा की तरह झूठ है यहां पर प्राणी को किसी भी प्रकार का संतोष प्राप्त नहीं होता।

माया मोह झूठ रह्यौ लागी, का भयौ इहाँ का ह्वै ह्वै आगी।। 

कछु कछु चेति देखि जीव अबही, मनिषा जनम न पावै कबही ।। 

इस संसार में माया और मोह का झूठ लग जाता है और यहां पर क्या हो गया है और आगे क्या होगा अर्थात कुछ भी प्राप्त होने वाला नहीं है। वह गंभीरता से समझाते हुए कहते हैं कि ही मनुष्य यदि अभी देख कर भी तुम नहीं चेत रहे हो तो फिर कब मनुष्य जन्म पाओगे और कब चेतोगे क्योंकि मनुष्य जन्म बडा दुर्लभ है।

सार आहि जे संग पियारा, जब चेतै तब ही उजियारा ।।

 त्रिजुग जोनि जे आहि अचेता, मनिषा जनम भयौ चित चेता ।। 

समग्र अस्तित्व का जो सार रूप है वह प्यार तेरे साथ ही है और जैसे ही तू चेत जाता है अर्थात् उसमें जाग जाता है उसी क्षण अंधियारा मिट जाता है और उजाला हो जाता है।

तीनों प्रकार की योनियों जलचर थलचर और उभयचर अथवा तो नभचर सभी में जडता अधिक होती है। बुद्धि इतनी विकसित नहीं होती। इसलिए वह मुक्ति के विषय में सोचने के योग्य ही नहीं होते। यह मनुष्य जन्म ही एक ऐसा अवसर है जब आप अपनी मुक्ति के विषय में विचार कर सकते हैं अपने स्वरूप में जागृत हो सकते हैं।

आतमां मुरछि मुरछि जरि जाइ, पिछले दुःख कहता न सिराई ।। 

सोई त्रास जे जाँनें हंसा, तौ अजहूँ न जीव करै संतोसा ।। 

वह कहते हैं कि यह आत्मा जब अनेक योनियांँ धारण करता है तो यह बार-बार मूर्छित होता है और निर्बल होकर नष्ट हो जाता है इसके पिछले दुख इतने हैं कि कहा नहीं जा सकता। इन सारे दुखों को यदि यह हंस अर्थात् प्राणी अथवा तो मनुष्य अगर जानने लगे तो फिर क्या यह जीव अभी इन कर्मों से संतोष को प्राप्त नहीं करेगा अर्थात् इन्हें करना बंद नहीं करेगा। अर्थात इन्हें यह जानकर ईश्वर प्राप्ति के लिए अवश्य ही प्रयास करना चाहिए।

भौसागर अति वार न पारा, ता तिरिबे को कहु बिचारा ।। 

जाजल की आदि अंति नहीं जानिये, ताको डर काहे न मानियै ।। 

यह भवसागर अत्यंत विस्तृत है इसका आर पार जाना नहीं जाता इसकी सीमा सरलता से जानी नहीं जाती इसको पार करने का हमेशा विचार करना चाहिए इस भवसागर के जल का आदि और अंत जाना नहीं जाता तो फिर इसमें डूब जाए इस प्रकार का डर क्यों नहीं लगना चाहिए अर्थात् हमें इससे पार होने का हर संभव प्रयत्न करना चाहिए।

को बोहिथ को खेवट आही, जिहि तरिये सो लीजै चाही ।। 

समझि बिचारि जीव जब देख्या, यहु संसार सुपन करि लेख्या ।। 

वह कहते हैं कि इस संसार सागर को पार करने के लिए कौन सी नौका अथवा जहाज है और उसको चलाने वाला अथवा तो खेने वाला कौन है? जिससे कि संपर्क करके उससे हम इस  संसार सागर को तर जाएं। इस प्रकार बहुत सोच विचार कर जब जीव ने इस संसार सागर को देखा तब उसे पता चला कि यह संसार स्वप्न के समान है यथार्थ में तो इसका अस्तित्व है ही नहीं।

भई बुधि कछू ग्याँन निहारा, आप-आप ही किया बिचारा ।। 

आपण मैं जे रह्यौ समाई, नेडै दूरी कथ्यौ नहिं जाई ।। 

कबीर दास जी कहते हैं कि इस प्रकार अभ्यास और वैराग्य के साधन रूप जब कुछ बुद्धि बढ गई तो उसमें कुछ सात्विकता का प्रकाश हुआ। तब ज्ञान की कुछ समझ आई और फिर स्वयं ही अपने आप जब विचार किया, तो पता चला कि यह जिसे मैं ढूंढ रहा था, मुझमें ही ओतप्रोत है। और उसे न तो पास कहा जा सकता है और न ही दूर कहा जा सकता है।

ताके चीन्है परचौ पावा, भई समझि तासूँ मन लावा ।।

भाव भगति हित बोहिया, सतगर खेवनहार । 

अलप उदिक तब जांणिये, जब गोपद खुर बिस्तार । । ८ ।।

उसकी जान लेने से उस परम पुरुष ईश्वर का परिचय मिल गया है और उसकी समझ आ जाने से उसमें हमारा मन तल्लीन हो गया है लग गया है। वह कहते हैं कि यह भाव और भक्ति को बढ़ाने वाली नाव है इसके खेवनहार सद्गुरु हैं। यह ज्ञान का प्रकाश हो गया है अथवा तो आपने आत्मा अनुभूति को प्राप्त कर लिया है यह आप तभी जान सकते हैं अथवा तो यह आपके लिए प्रमाणिक हो सकता है जब आपको यह लगने लगे कि यह संसार गोपद के खुर के चिन्ह के विस्तार के समान अर्थात इसे पार करना बहुत ही सरल है जिस प्रकार गाय के खुर के निशान जब मिट्टी में पड़ जाते हैं तो उसे पार करना छोटे बालक के लिए भी कठिन नहीं होता। इस प्रकार संसार को पार करना उस अनुभूति संपन्न के लिए कठिन नहीं होता।

विशेष। :-

(१) कबीर ने जीव के अज्ञान और ज्ञान दोनों दशाओं का वर्णन किया है तथा ज्ञान की दशा को उसकी वास्तविक स्थिति माना है।

(२) ब्रह्म एकमात्र सत्य है, संसार मिथ्या है

(३) मृगत्रिष्णा संसारा, भौसागर – रूपक अलंकार ।

संताप सुपन करि – उपमा अलंकार भाव भगति विस्तार  सांगरूपक।

द्वारा : एम. के. धुर्वे, सहायक प्राध्यापक, हिंदी

Latest Posts :