रांगेय राघव – गदल – कहानी


बाहर शोरगुल मचा। डोडी ने पुकारा – ”कौन है?”
कोई उत्तर नहीं मिला। आवाज आई – ”हत्यारिन! तुझे कतल कर दँूगा!”
स्त्री का स्वर आया – ”करके तो देख! तेरे कुनबे को डायन बनके न खा गई, निपूते!”
डोडी बैठा न रह सका। बाहर आया।
”क्या करता है, क्या करता है, निहाल?” – डोडी बढक़र चिल्लाया – ”आखिर तेरी मैया है।”
”मैया है!” – कहकर निहाल हट गया।
”और तू हाथ उठाके तो देख!” स्त्री ने फुफकारा – ”कढीख़ाए! तेरी सींक पर बिल्लियाँ चलवा दँू! समझ रखियो! मत जान रखियो! हाँ! तेरी आसरतू नहीं हँू।”
”भाभी!” – डोडी ने कहा – ”क्या बकती है? होश में आ!”
वह आगे बढा। उसने मुडक़र कहा – ”जाओ सब। तुम सब लोग जाओ!”
निहाल हट गया। उसके साथ ही सब लोग इधर-उधर हो गए।
डोडी निस्तब्ध, छप्पर के नीचे लगा बरैंडा पकडे ख़डा रहा। स्त्री वहीं बिफरी हुई-सी बैठी रही। उसकी आँखों में आग-सी जल रही थी।
उसने कहा – ”मैं जानती हँू, निहाल में इतनी हिम्मत नहीं। यह सब तैने किया है, देवर!”
”हाँ गदल!” – डोडी ने धीरे से कहा – ”मैंने ही किया है।”
गदल सिमट गई। कहा – ”क्यों, तुझे क्या जरूरत थी?”

डोडी क़ह नहीं सका। वह ऊपर से नीचे तक झनझना उठा। पचास साल का वह लंबा खारी गूजर, जिसकी मँूछें खिचडी हो चुकी थीं, छप्पर तक पहँुचा-सा लगता था। ़

उसके कंधे की चौडी हड्डियों पर अब दिए का हल्का प्रकाश पड रहा था, उसके शरीर पर मोटी फतुही थी और उसकी धोती घुटनों के नीचे उतरने के पहले ही झूल देकर चुस्त-सी ऊपर की ओर लौट जाती थी। उसका हाथ कर्रा था और वह इस समय निस्तब्ध खडा रहा।

स्त्री उठी। वह लगभग 45 वर्षीया थी, और उसका रंग गोरा होने पर भी आयु के धँुधलके में अब मैला-सा दिखने लगा था। उसको देखकर लगता था कि वह
फुर्तीली थी। जीवन-भर कठोर मेहनत करने से, उसकी गठन के ढीले पडने पर भी उसकी फूर्ती अभी तक मौजूद थी।
”तुझे शरम नहीं आती, गदल?” – डोडी ने पूछा।
”क्यों, शरम क्यों आएगी?” – गदल ने पूछा।
डोडी क्षणभर सकते में पड ग़या। भीतर के चौबारे से आवाज आई – ”शरम क्यों आएगी इसे? शरम तो उसे आए, जिसकी आँखों में हया बची हो।”
”निहाल!” – डोडी चिल्लाया – ”तू चुप रह!”
फिर आवाज बंद हो गई।
गदल ने कहा – ”मुझे क्यों बुलाया है तूने?”
डोडी ने इस बात का उत्तर नहीं दिया। पूछा – ”रोटी खाई है?”
”नहीं, ” गदल ने कहा – ”खाती भी कब? कमबखत रास्ते में मिले। खेत होकर लौट रही थी। रास्ते में अरने-कंडे बीनकर संझा के लिए ले जा रही थी।”

डोडी ने पुकारा – ”निहाल! बहू से कह, अपनी सास को रोटी दे जाय!”
भीतर से किसी स्त्री की ढीठ आवाज सुनाई दी – ”अरे, अब लौहरों की बैयर आई हैं; उन्हें क्यों गरीब खारियों की रोटी भाएगी?”
कुछ स्त्रियों ने ठहाका लगाया।
निहाल चिल्लाया – ”सुन ले, परमेसुरी, जगहँसाई हो रही है। खारियों की तो तूने नाक कटाकर छोडी।”

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गुन्ना मरा, तो पचपन बरस का था। गदल विधवा हो गई। गदल का बडा बेटा निहाल तीस वर्ष के पास पहँुच रहा था। उसकी बहू दुल्ला का बडा बेटा सात का, दूसरा चार का और तीसरी छोरी थी जो उसकी गोद में थी।

निहाल से छोटी तरा-ऊपर की दो बहिनों थी चम्पा और चमेली, जिसका क्रमशः झाज और विश्वारा गाँवों में ब्याह हुआ था। आज उनकी गोदियों से उनके लाल उतरकर धूल में घुटरूवन चलने लगे थे। अंतिम पुत्र नारायन अब बाईस का था, जिसकी बहू दूसरे बच्चे की माँ बननेवाली थी। ऐसी गदल, इतना बडा परिवार छोडक़र चली गई थी और बत्तीस साल के एक लौहरे गूजर के यहाँ जा बैठी थी।

डोडी ग़ुन्ना का सगा भाई था। बहू थी, बच्चे भी हुए। सब मर गए। अपनी जगह अकेला रह गया। गुन्ना ने बडी-बडी क़ही, पर वह फिर अकेला ही रहा, उसने ब्याह नहीं किया, गदल ही के चूल्हे पर खाता रहा। कमाकर लाता, वो उसी को दे देता, उसी के बच्चों को अपना मानता, कभी उसने अलगाव नहीं किया। निहाल अपने चाचा पर जान देता था। और फिर खारी गूजर अपने को लौहरों से ऊँच समझते थे।

गदल जिसके घर बैठी थी, उसका पूरा कुनबा था। उसने गदल की उम्र नहीं देखी, यह देखा कि खारी औरत है, पडी रहेगी। चूल्हे पर दम फँूकनेवाली की जरूरत भी थी।

आज ही गदल सवेरे गई थी और शाम को उसके बेटे उसे फिर बाँध लाए थे। उसके नए पति मौनी को अभी पता भी नहीं हुआ होगा। मौनी रँडुआ था। उसकी भाभी जो पाँव फैलाकर मटक-मटककर छाछ बिलोती थी – दुल्लो सुनेगी तो क्या कहेगी?
गदल का मन विक्षोभ से भर उठा।
आधी रात हो चली थी। गदल वहीं पडी थी। डोडी वहीं बैठा चिलम फँूक रहा था।
उस सन्नाटे में डोडी ने धीरे से कहा – ”गदल!”
”क्या है?” – गदल ने हौले से कहा।
”तू चली गई न?”
गदल बोली नहीं। डोडी ने फिर कहा – ”सब चले जाते हैं। एक दिन तेरी देवरानी चली गई, फिर एक-एक करके तेरे भतीजे भी चले गए। भैया भी चला गया।पर तू जैसी गई; वैसे तो कोई भी नहीं गया। जग हँसता है, जानती है?”

गदल बुरबुराई – ”जग हँसाई से मैं नहीं डरती देवर! जब चौदह की थी, तब तेरा भैया मुझे गाँव में देख गया था। तू उसके साथ तेल पिया लट्ठ लेकर मुझे लेने आया था न, तब? मैं आई थी कि नहीं? तू सोचता होगा कि गदल की उमर गई, अब उसे खसम की क्या जरूरत है? पर जानता है, मैं क्यों गई?”
”नहीं।”
”तु तो बस यही सोच करता होगा कि गदल गई, अब पहले-सा रोटियों का आराम नहीं रहा। बहुएँ नहीं करेंगी तेरी चाकरी देवर! तूने भाई से और मुझसे निभाई, तो मैंने भी तुझे अपना ही समझा! बोल झूठ कहती हँू?”
”नहीं, गदल, मैंने कब कहा!”
”बस यही बात है देवर! अब मेरा यहाँ कौन है! मेरा मरद तो मर गया। जीते-जी मैंने उसकी चाकरी की, उसके नाते उसके सब अपनों की चाकरी बजाई। पर जब मालिक ही न रहा, तो काहे को हडक़ंप उठाऊँ? यह लडक़े, यह बहुएँ! मैं इनकी गुलामी नहीं करूँगी!”
”पर क्या यह सब तेरी औलाद नहीं बावरी। बिल्ली तक अपने जायों के लिए सात घर उलट-फेर करती है, फिर तू तो मानुष है। तेरी माया-ममता कहाँ चली गई?”
”देवर, तेरी कहाँ चली गई थी, तूने फिर ब्याह न किया।”
”मुझे तेरा सहारा था गदल!”
”कायर! भैया तेरा मरा, कारज किया बेटे ने और फिर जब सब हो गया तब तू मुझे रखकर घर नहीं बसा सकता था। तूने मुझे पेट के लिए पराई डयौढी लँघवाई।
चूल्हा मैं तब फँूकँू, जब मेरा कोई अपना हो। ऐसी बाँदी नहीं हँू कि मेरी कुहनी बजे, औरों के बिछिए छनके। मैं तो पेट तब भरूँगी, जब पेट का मोल कर लँूगी।
समझा देवर! तूने तो नहीं कहा तब। अब कुनबे की नाक पर चोट पडी, तब सोचा। तब न सोचा, जब तेरी गदल को बहुओं ने आँखें तरेरकर देखा। अरे, कौन किसकी परवा करता है!”
”गदल!” – डोडी ने भर्राए स्वर में कहा – ”मैं डरता था।”
”भला क्यों तो?”
”गदल, मैं बुढ्ढा हँू। डरता था, जग हँसेगा। बेटे सोचेंगे, शायद चाचा का अम्माँ से पहले से नाता था, तभी चाचा ने दूसरा ब्याह नहीं किया। गदल,भैया की भी बदनामी होती न?”
”अरे चल रहने दे!” गदल ने उत्तर दिया – ”भैया का बडा ख्याल रहा तुझे? तू नहीं था कारज में उनके क्या? मेरे सुसर मरे थे, तब तेरे भैया ने बिरादरी को जिमाकर होठों से पानी छुलाया था अपने। और तुम सबने कितने बुलाए? तू भैया दो बेटे। यही भैया हैं, यहीं बेटे हैं? पच्चीस आदमी बुलाए कुल। क्यों आखिर? कह दिया लडाई में कानून है। पुलिस पच्चीस से ज्यादा होते ही पकड ले जाएगी! डरपोक कहीं के! मैं नहीं रहती ऐसों के।”
हठात् डोडी क़ा स्वर बदला। कहा – ”मेरे रहते तू पराए मरद के जा बैठेगी?”
”हाँ।”
”अबके तो कह!” – वह उठकर बढा।
”सौ बार कहँू लाला!” गदल पडी-पडी बोली।
डोडी बढा।
”बढ!” – गदल ने फुफकारा।

डोडी रूक़ गया। गदल देखती रही। डोडी ज़ाकर बैठ गया। गदल देखती रही। फिर हँसी। कहा – ”तू मुझे करेगा! तुझमें हिम्मत कहाँ है देवर! मेरा नया मरद है न? मरद है। इतनी सुन तो ले भला। मुझे लगता है तेरा भइया ही फिर मिल गया है मुझे। तू?” – वह रूकी- ”मरद है! अरे कोई बैयर से घिघियाता है? बढक़र जो तू मुझे मारता, तो मैं समझती, तू अपनापा मानता हैं। मैं इस घर में रहँूगी?”
डोडी देखता ही रह गया। रात गहरी हो गई। गदल ने लहँगे की पर्त फैलाकर तन ढक लिया। डोडी ऊँघने लगा।

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ओसारे में दुल्ले ने अँगडाई लेकर कहा – ”आ गई देवरानी जी! रात कहाँ रही?”
सूका डूब गया था। आकाश में पौ फट रही थी। बैल अब उठकर खडे हो गए थे। हवा में एक ठंडक थी।
गदल ने तडाक से जवाब दिया – ”सो, जेठानी मेरी! हुकुम नहीं चला मुझ पर। तेरी जैसी बेटियाँ है मेरी। देवर के नाते देवरानी हँू, तेरी जूती नहीं।”
दुल्लो सकपका गई। मौनी उठा ही था। भन्नाया हुआ आया। बोला- ”कहाँ गई थी?”
गदल ने घँूघट खींच लिया, पर आवाज नहीं बदली। कहा – ”वही ले गए मुझे घेरकर! मौका पाके निकल आई।”

मौनी दब गया। मौनी का बाप बाहर से ही ढोर हाँक ले गया। मौनी बढा।
”कहाँ जाता है?” – गदल ने पूछा।
”खेत-हार।”
”पहले मेरा फैसला कर जा।” गदल ने कहा।

दुल्लो उस अधेड स्त्री क़े नक्शे देखकर अचरज में खडी रही।
”कैसा फैसला? – मौना ने पूछा। वह उस बडी स्त्री से दब गया।
”अब क्या तेरे घर का पीसना पीसँूगी मैं?” – गदल ने कहा – ”हम तो दो जने हैं। अलग करेंगे खाएँगे।” – उसके उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना ही यह कहती रही – ”कमाई शामिल करो, मैं नहीं रोकती, पर भीतर तो अलग-अलग भले।”

मौनी क्षण-भर सन्नाटे में खडा रहा। दुल्लो तिनककर निकली। बोली – ”अब चुप क्यों हो गया, देवर? बोलता क्यों नहीं? देवरानी लाया है कि सास! तेरी बोलती क्यों नहीं कढती? ऐसी न समझियो तू मुझे! रोटी तवे पर पलटते मुझे भी आँच नहीं लगती, जो मैं इसकी खरी-खोटी सुन लँूगी,समझा? मेरी अम्माँ ने भी मुझे चूल्हे की मट्टी खाके ही जना था। हाँ!”

”अरी तो सौत!” – गदल ने पुकारा – ”मट्टी न खा के आई, सारे कुनबे को चबा जाएगी डायन। ऐसी नहीं तेरी गुड क़ी भेली है, जो न खाएंगे हम, तो रोटी गले में फंदा मार जाएगी।”

मौनी उत्तर नहीं दे सका। वह बाहर चला गया। दुपहर हो गई। दुल्लो बैठी चरखा कात रही थी। नरायन ने आकर आवाज दी – ”कोई है?”
दुल्लो ने घँूघट काढ लिया। पूछ – ”कौन हो?”
नरायन ने खून का घँूट पीकर कहा – ”गदल का बेटा हँू।”
दुल्लो घँूघट में हँसी। पूछा – ”छोटे हो कि बडे?”
”छोटा।”
”और कितने है!”
”कित्ते भी हों। तुझे क्या?” – गदल ने निकालकर कहा।
”अरे आ गई!” कहकर दुल्लो भीतर भागी।
”आने दे आज उसे। तुझे बता दँूगी जिठानी!” – गदल ने सिर हिलाकर कहा।
”अम्माँ!” – नरायन ने कहा – ”यह तेरी जिठानी!”
”क्यों आया है तू? यह बता!” – गदल झल्लाई।
”दंड धरवाने आया हँू, अम्माँ! – कहकर नरायन आगे बैठने को बढा।
”वहीं रह!” – गदल ने कहा।

उसी समय लोटा-डोर लिए मौनी लौटा। उसने देखा कि गदल ने अपने कडे अौर हँसली उतारकर फेक दी और कहा – ”भर गया दंड तेरा! अब मरद का सब माल दबाकर बहुओं के कहने से बेटों ने मुझे निकाल दिया है।”
नरायन का मँुह स्याह पड ग़या। वह गहने उठाकर चला गया। मौनी मन-ही-मन शंकित-सा भीतर आया।

दुल्लो ने शिकायत की – ”सुना तूने देवर! देवरानी ने गहने दे दिए। घुटना आखिर पेट को ही मुडा। चार जगह बैठेगी, तो बेटों के खेत की डौर पर डंडा-धूआ तक लग जाएँगे, पक्का चबूतरा घर के आगे बन जाएगा, समझा देती हँू। तुम भोले-भाले ठहरे। तिरिया-चरित्तर तुम क्या जानो। धंधा है यह भी। अब कहेगी, फिर बनवा मुझे।”

गदल हँसी, कहा- ”वाह जिठानी, पुराने मरद का मोल नए मरद से तेरे घर की बैयर चुकवाती होंगी। गदल तो मालकिन बनकर रहती है, समझी! बाँदी बनकर नहीं। चाकरी करूँगी तो अपने मरद की, नहीं तो बिधना मेरे ठेंगे पर। समझी! तू बीच में बोलनेवाली कौन?”
दुल्लो ने रोष से देखा और पाँव पटकती चली गई।
मौनी ने देखा और कहा – ”बहुत बढ-बढक़र बातें मत हाँक, समझ ले घर में बहू बनकर रह!”
”अरे तू तो तब पैदा भी नहीं हुआ था, बालम!” – गदल ने मुस्कराकर कहा – ”तब से मैं सब जानती हँू। मुझे क्या सिखाता है तू? ऐसा कोई मैंने काम नहीं किया है, जो बिरादरी के नेम के बाहर हो। जब तू देखे, मैंने ऐसी कोई बात की हो, तो हजार बार रोक, पर सौत की ठसक नहीं सहँूगी।”
”तो बताऊँ तुझे!” – वह सिर हिलाकर बोला।
गदल हँसकर ओबरी में चली गई और काम में लग गई।

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ठंडी हवा तेज हो गई। डोडी चुपचाप बाहर छप्पर में बैठा हुक्का पी रहा था। पीते-पीते ऊब गया और उसने चिलम उलट दी और फिर बैठा रहा।

खेत से लौटकर निहाल ने बैल बाँधे, न्यार डाला और कहा – ”काका!” डोडी क़ुछ सोच रहा था। उसने सुना नहीं।
”काका!” – निहाल ने स्वर उठाकर कहा।
”हे!” डोडी चौक उठा – ”क्या है? मुझसे कहा कुछ?”
”तुमसे न कहँूगा, तो कहँूगा किससे? दिन-भर तो तुम मिले नहीं। चिम्मन कढेरा कहता था, तुमने दिन-भर मनमौजी बाबा की धूनी के पास बिताया, यह सच है?”
”हाँ, बेटा, चला तो गया था।”
”क्यों गए थे भला?”
”ऐसे ही जी किया था, बेटा!”
”और कस्बे से घी कटऊ क्या कराया कि बनिए का आदमी आया था। मैंने कहा – ”नहीं है, वह बोला – लेके जाऊँगा। झगडा होते-होते बचा।”
”ऐसा नहीं करते, बेटा!” – डोडी ने कहा – ”बौहरे से कोई झगडा मोल लेता है?”

निहाल ने चिलम उठाई, कंडों में से आँच बीनकर धरी और फँूक लगाता हुआ आया। कहा – ”मैं तो गया नहीं। सिर फूट जाते। नरायन को भेजा था।”
”कहाँ?” डोडी चौंका।
”उसी कुलच्छनी कुलबोरनी के पास।”
”अपनी माँ के पास?”
”न जाने तुम्हें उससे क्या है, अब भी तुम्हें उस पर गुस्सा नहीं आता। उसे माँ कहँूगा मैं?”
”पर बेटा, तू न कह, जग तो उसे तेरी माँ ही कहेगा। जब तक मरद जीता है, लोग बैयर को मरद की बहू कहकर पुकारते हैं, जब मरद मर जाता है, तो लोग उसे
बेटे की अम्माँ कहकर पुकारते हैं। कोई नया नेम थोडी ही है।”
निहाल भुनभुनाया। कहा- ”ठिक है, काका ठीक है, पर तुमने अभी तक ये तो पूछा ही नहीं कि क्यों भेजा था उसे?”
”हाँ बेटा!” – डोडी ने चौंककर कहा – ”यहा तो तूने बताया ही नहीं! बता न?”
”दंड भरवाने भेजा था। सो पंचायत जुडवाने के पहले ही उसने तो गहने उतार फेंके।”

डोडी मुस्कुराया। कहा – ”तो वह यह बता रही है कि घरवालों ने पंचायत भी नहीं जुडवाई? यानी हम उसे भगाना ही चाहते थे। नरायन ले आया?”
”हाँ।”
डोडी सोचने लगा।
”मैं फेर आऊँ?” – निहाल ने पूछा।
”नहीं बेटा!” डोडी ने कहा – ”वह सचमुच रूठकर ही गई है। और कोई बात नहीं है। तूने रोटी खा ली?”
”नहीं।”
”तो जा पहले खा ले।”
निहाल उठ गया, पर डोडी बैठा रहा। रात का अँधेरा साँझ के पीछे ऐसे आ गया, जैसे कोई पर्त उलट गई हो।
दूर ढोला गाने की आवाज आने लगी। डोडी उठा और चल पडा।
निहाल ने बहू से पूछा – ”काका ने खा ली?”
”नहीं तो।”
निहाल बाहर आया। काका नहीं थे।
”काका।” उसने पुकारा।
राह पर चिरंजी पुजारी गढवाले हनुमानजी के पट बंद करके आ रहा था। उसने पुछा -”क्या है रे?”
”पाँय लागूँ, पंडितजी।” निहाल ने कहा – ”काका अभी तो बैठे थे।”
चिरंजी ने कहा- ”अरे, वह वहाँ ढोल सुन रहा है। मैं अभी देखकर आया हँू।”
चिरंजी चला गया, निहाल ठिठक खडा रहा। बहू ने झाँककर पूछा- ”क्या हुआ?”
”काका ढोला सुनने गए हैं।” – निहाल ने अविश्वास से कहा – ”वे तो नहीं जाते थे।”
”जाकर बुला ले आओ। रात बढ रही है।” – बहू ने कहा और रोते बच्चे को दूध पिलाने लगी।
निहाल जब काका को लेकर लौटा, तो काका की देही तप रही थी।
”हवा लग गई है और कुछ नहीं।” – डोडी ने छोटी खटिया पर अपनी निकाली टाँगे समेटकर लेटते हुए कहा – ”रोटी रहने दे, आज जी नहीं चाहता।”
निहाल खडा रहा। डोडी ने कहा – ”अरे, सोच तो, बेटा! मैंने ढोला कितने दिन बाद सुना है।

उस दिन भैया की सुहागरात को सुना था, या फिर आज …।”
निहाल ने सुना और देखा, डोडी अाँख मीचकर कुछ गुनगुनाने लगा था …़

शाम हो गई थी। मौनी बाहर बैठा था। गदल ने गरम-गरम रोटी और आम की चटनी ले जाकर खाने को धर दी।
”बहुत अच्छी बनी है।” – मौनी ने खाते हुए कहा – ”बहुत अच्छी है।”
गदल बैठ गई। कहा – ”तुम एक ब्याह और क्यों नहीं कर लेते अपनी उमिर लायक?”
मौनी चौंका। कहा – ”एक की रोटी भी नहीं बनती?”
”नहीं”, गदल ने कहा – ”सोचते होंगे सौत बुलाती हँू , पर मरद का क्या? मेरी भी तो ढलती उमिर है। जीते जी देख जाऊँगी तो ठीक है। न हो ते हुकूमत करने को तो एक मिल जाएगी।”
मौना हँसा। बोला – ”यों कह। हौंस है तुझे, लडने को चाहिए।”
खाना खाकर उठा, तो गदल हुक्का भरकर दे गई और आप दीवार की ओट में बैठकर खाने लगी। इतने में सुनाई दिया – ”अरे, इस बखत कहाँ चला?”
”जरूरी काम है, मौनी!” – उत्तर मिला – ”पेसकार साब ने बुलवाया है।”
गदल ने पहचाना। उसी के गाँव का तो था, घोटया मैना का चंदा गिर्राज ग्वारिया। जरूर पेसकार की गाय की चराने की बात होगी।
”अरे तो रात को जा रहा है?” – मौनी ने कहा – ”ले चिलम तो पीता जा।”
आकर्षण ने रोका। गिर्राज बैठ गया। गदल ने दूसरी रोटी उठाई। कौर मँुह में रखा।
”तुमने सुना?” गिर्राज ने कहा और दम खींचा।
”क्या?” मौनी ने पूछा।
”गदल का देवर डोडी मर गया।”
गदल का मँुह रूक गया। जल्दी से लोटे के पानी के संग कौर निगला और सुनने लगी। कलेजा मँुह को आने लगा।
”कैसे मर गया?” – मौनी ने कहा – ”वह तो भला-चंगा था!”
”ठंड लग गई, रात उघाडा रह गया।”
गदल द्वार पर दिखाई दी। कहा – ”गिर्राज!”
”काकी!” – गिर्राज ने कहा – ”सच। मरते बखत उसके मँुह से तुम्हारा नाम कढा था, काकी। बिचारा बडा भला मानस था।”
गदल स्तब्ध खडी रही।
गिर्राज चला गया।
गदल ने कहा – ”सुनते हो!”
”क्या है री?”
”मैं जरा जाऊँगी।”
”कहाँ? – वह आतंकित हुआ।
”वहीं।”
”क्यों?”
”देवर मर गया है न?”
”देवर! अब तो वह तेरा देवर नहीं।”
गदल झनझनाती हुई हँसी हँसी – ”देवर तो मेरा अगले जनम में भी रहेगा। वही न मुझे रूखाई दिखाता, तो क्या यह पाँव कटे बिना उस देहरी से बाहर निकल सकते थे? उसने मुझसे मन फेरा, मैने उससे। मैंने ऐसा बदला लिया उससे!”
कहते कहते वह कठोर हो गई।
”तू नहीं जा सकती।” – मौनी ने कहा।
”क्यों?” – गदल ने कहा – ”तू रोकेगा? अरे, मेरे खास पेट के जाए मुझे रोक न पाए। अब क्या है? जिसे नीचा दिखाना चाहती थी, वही न रहा और तू मुझे रोकनेवाला है कौन? अपने मन से आई थी, रहँूगी, नहीं रहँूगी, कौन तूने मेरा मोल दिया है। इतना बोल तो भी लिया – तू जो होता मेरे उस घर में तो, तो जीभ कढवा लेती तेरी।”
”अरी चल-चल।”
मौनी ने हाथ पकडकर उसे भीतर धकेल दिया और द्वार पर खाट डालकर लेटकर हुक्का पीने लगा।
गदल भीतर रोने लगी, परंतु इतने धीरे कि उसकी सिसकी तक मौनी नहीं सुन सका। आज गदल का मन बहा जा रहा था। रात का तीसरा पहर बीत रहा था। मौनी की नाक बज रही थी। गदल ने पूरी शक्ति लगाकर छप्पर का कोना उठाया और साँपिन की तरह उसके नीचे से रेंगकर दूसरी ओर कूद गई।

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मौनी रह-रहकर तडपता था। हिम्मत नहीं होती थी कि जाकर सीधे गाँव में हल्ला करे और लट्ठ के बल पर गदल को उठा लाए। मन करता सुसरी की टाँगे तोड दे। दुल्लो ने व्यंग्य भी किया कि उसकी लुगाई भागकर नाक कटा गई है, खून का-सा घँूट पीकर रह गया। गूजरों ने जब सुना, तो कहा – ”अरे बुढिया के लिए खून-खराबा कराएगा! और अभी तेरा उसने खरच ही क्या कराया है? दो जून रोटी खा गई है, तुझे भी तो टिक्कड ख़िलाकर ही गई!”
मौनी का क्रोध भडक़ गया।
घोटया का गिर्राज सुना गया था।

जिस वक्त गदल पहँुची, पटेल बैठा था। निहाल ने कहा था – ”खबरदार! भीतर पाँव न धरियो!”
”क्यों लौट आई है, बहू?” पटेल चौंका था। बोला- ”अब क्या लेने आई है?”
गदल बैठ गई। कहा – ”जब छोटी थी, तभी मेरा देवर लट्ठ बाँध मेरे खसम के साथ आया था। इसी के हाथ देखती रह गई थी मैं तो। सोचा था मरद है, इसकी छत्तर-छाया में जी लँूगी। बताओ, पटेल, वह ही जब मेरे आदमी के मरने के बाद मुझे न रख सका, तो क्या करती? अरे, मैं न रही, तो इनसे क्या हुआ? दो दिन में काका उठ गया न? इनके सहारे मैं रहती तो क्या होता?”
पटेल ने कहा- ”पर तूने बेटा-बेटी की उमर न देखी बहू।”
”ठीक है”, गदल ने कहा – ”उमर देखती कि इज्जत, यह कहो। मेरी देवर से रार थी, खतम हो गई। ये बेटा है, मैने कोई बिरादरी के नेम के बाहर की बात की हो तो रोककर मुझ पर दावा करो। पंचायत में जवाब दँूगी। लेकिन बेटों ने बिरादरी के मँुह पर थूका, तब तुम सब कहाँ थे?”
”सो कब?” – पटेल ने आश्चर्य से पूछा।
”पटेल न कहेंगे तो कौन कहेगा? पच्चीस आदमी खिलाकर लुटा दिया मेरे मरद के कारज में!”
”पर पगली, यह तो सरकार का कानून था।”
”कानून था!” – गदल हँसी – ”सारे जग में कानून चल रहा है, पटेल?

दिन दहाडे भैंस खोलकर लाई जाती हैं। मेरे ही मरद पर कानून था? यों न कहोगे, बेटों ने सोचा, दूसरा अब क्या धरा है, क्यों पैसा बिगाडते हो?कायर कहीं के?”
निहाल गरजा – ”कायर! हम कायर? तू सिंधनी?”
”हाँ मैं सिंधनी!” …ग़दल तडपी – ”बोल तुझमें है हिम्मत?”
”बोल!” – ”वह भी चिल्लाया।
”जा, बिरादरी कारज में न्योता दे काका के।” – गदल ने कहा।
निहाल सकपका गया। बोला – ”ेपुलस …”
ग़दल ने सीना ठोंककर कहा – ”बस?”
”लुगाई बकती है!” – पटेल ने कहा – ”गोली चलेगी, तो?”
गदल ने कहा – ”धरम-धुरंधरों ने तो डूबो ही दी। सारी गुजरात की डूब गई, माधो। अब किसी का आसरा नहीं। कायर-ही-कायर बसे हैं।”
फिर अचानक कहा – ”मैं करूँ परबंध?”
”तू?” – निहाल ने कहा।
”हाँ, मैं!” …़ अौर उसकी आँखों में पानी भर आया। कहा – ”वह मरते बखत मेरा नाम लेता गया है न, तो उसका परबंध मैं ही करूँगी।”

मौनी आश्चर्य में था। गिर्राज ने बताया था कि कारज का जोरदार इंतजाम है। गदल ने दरोगा को रिश्वत दी है। वह इधर आएगा ही नहीं। गदल बडा इंतजाम कर रही है। लोग कहते है, उसे अपने मरद का इतना गम नहीं हुआ था, जितना अब लगता है।

गिरर््राज तो चला गया था, पर मौनी में विष भर गया था। उसने उठते हुए कहा – ”तो गदल! तेरी भी मन की होने दँू, सो गोला का मौनी नहीं। दरोगा का मँुह बंद कर दे, पर उससे भी ऊपर एक दरबार है। मैं कस्बे में बडे दरोगा से शिकायत करूँगा।”

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कारज हो रहा था। पाँते बैठतीं, जीमतीं, उठ जातीं और कढाव से पुए उतरते। बाहर मरद इंतजाम कर रहे थे, खिला रहे थे। निहाल और नरायन ने लडाई में महँगा नाज बेचकर जो घडाें में नोटों की चाँदी बनाकर डाली थी, वह निकली और बौहरे का कर्ज चढा। पर डाँग में लोगों ने कहा -”गदल का ही बूता था। बेटे तो हार बैठे थे। कानून क्या बिरादरी से ऊपर है?”

गदल थक गई थी। औरतों में बैठी थी। अचानक द्वार में से सिपाही-सा दीखा। बाहर आ गई। निहाल सिर झुकाए खडा था।
”क्या बात है, दीवानजी?” – गदल ने बढक़र पूछा।
स्त्री का बढक़र पूछना देख दीवान सकपका गया।
निहाल ने कहा – ”कहते हैं कारज रोक दो।”
”सो, कैसे?” – गदल चौंकी।
”दरोगाजी ने कहा है।” दीवानजी ने नम्र उत्तर दिया।
”क्यों? उनसे पूछकर ही तो किया जा रहा है।” उसका स्पष्ट संकेत था कि रिश्वत दी जा चुकी है।
दीवान ने कहा – ”जानता हँू, दरोगाजी तो मेल-मुलाकात मानते हैं, पर किसी ने बडे दरोगाजी के पास शिकायत पहँुचाई है, दरोगाजी को आना ही पडेग़ा। इसी से
उन्होंने कहला भेजा है कि भीड छाँट दो। वर्ना कानूनी कार्रवाई करनी पडेग़ी।”

क्षणभर गदल ने सोचा। कौन होगा वह? समझ नहीं सकी। बोली – ”दरोगाजी ने पहले नहीं सोचा यह सब? अब बिरादरी को उठा दें? दीवानजी, तुम भी बैठकर पत्तल परोसवा लो। होगी सो देखी जाएगी। हम खबर भेज देंगे, दरोगा आते ही क्यों हैं? वे तो राजा है।”
दीवानजी ने कहा -”सरकारी नौकरी है। चली जाएगी? आना ही होगा उन्हें।”
”तो आने दो!” – गदल ने चुभते स्वर से कहा – ”सब गिरफ्तार कर लिए जाएँगे। समझी! राज से टक्कर लेने की कोशिश न करो।”
अरे तो क्या राज बिरादरी से ऊपर है?” – गदल ने तमककर कहा – ”राज के पीसे तो आज तक पिसे हैं, पर राज के लिए धर्म नहीं छोड देंगे, तुम सुन लो! तुम धरम छीन लो, तो हमें जीना हराम है।”
गदल के पाँव के धमाके से धरती चल गई।
तीन पाँते और उठ गई, अंतिम पाँत थी। निहाल ने अँधेरे में देखकर कहा – ”नरायन, जल्दी कर। एक पाँत बची है न?”
गदल ने छप्पर की छाया में से कहा – ”निहाल!”
निहाल गया।
”डरता है?” – गदल ने पूछा।
सूखे होठों पर जीभ फेरकर उसने कहा – ”नहीं!”
”मेरी कोख की लाज करनी होगी तुझे।” – गदल ने कहा – ”तेरे काका ने तुझको बेटा समझकर अपना दूसरा ब्याह नामंजूर कर दिया था। याद रखना,उसके और कोई नहीं।”
निहाल ने सिर झुका लिया।
भागा हुआ एक लडक़ा आया।
”दादी!” वह चिल्लाया।
”क्या है रे?” – गदल ने सशंक होकर देखा।
”पुलिस हथियारबंद होकर आ रही है।”
निहाल ने गदल की ओर रहस्यभरी दृष्टि से देखा।
गदल ने कहा – ”पाँत उठने में ज्यादा देर नहीं है।”
”लेकिन वे कब मानेंगे?”
”उन्हें रोकना होगा।”
”उनके पास बंदूकें हैं।”
”बंदूकें हमारे पास भी हैं, निहाल!” – गदल ने कहा – ”डाँग में बंदूकों की क्या कमी?”
”पर हम फिर खाएँगे क्या!”
”जो भगवान देगा।”
बाहर पुलिस की गाडी क़ा भोंपू बजा। निहाल आगे बढा। दरोगा ने उतरकर कहा – ”यहाँ दावत हो रही है?”
निहाल भौंचक रह गया। जिस आदमी ने रिश्वत ली थी, अब वह पहचान भी नहीं रहा था।
”हाँ। हो रही है?” – उसने क्रुद्ध स्वर में कहा।
”पच्चीस आदमी से ऊपर है?”
”गिनकर हम नहीं खिलाते, दरोगाजी!”

”मगर तुम कानून तो नहीं तोड सकते।
”राज का कानून कल का है, मगर बिरादरी का कानून सदा का है, हमें राज नहीं लेना है, बिरादरी से काम है।”
”तो मैं गिरफ्तार करूँगा!”
गदल ने पुकारा – ”निहाल।”
निहाल भीतर गया।
गदल ने कहा – ”पंगत होने तक इन्हें रोकना ही होगा!”
”फिर!”
”फिर सबको पीछे से निकाल देंगे। अगर कोई पकडा गया, तो बिरादरी क्या कहेगी?”
”पर ये वैसे न रूकेंगे। गोली चलाएँगे।”
”तू न डर। छत पर नरायन चार आदमियों के साथ बंदूकें लिए बैठा है।”
निहाल काँप उठा। उसने घबराए हुए स्वर से समझने की कोशिश की – ”हमारी टोपीदार हैं, उनकी रैफल हैं।”
”कुछ भी हो, पंगत उतर जाएगी।”
”और फिर!”
”तुम सब भागना।”
हठात् लालटेन बुझ गई। धाँय-धाँय की आवाज आई।
गोलियाँ अंधकार में चलने लगीं।
गदल ने चिल्लाकर कहा – ”सौगंध है, खाकर उठना।”
पर सबको जल्दी की फिकर थी।
बाहर धाँय-धाँय हो रही थी। कोई चिल्लाकर गिरा।
पाँत पीछे से निकलने लगी।
जब सब चले गए, गदल ऊपर चढी। निहाल से कहा – ”बेटा!”
उसके स्वर की अखंड ममता सुनकर निहाल के रोंगटे उस हलचल में भी खडे हो गए। इससे पहले कि वह उत्तर दे, गदल ने कहा – ”तुझे मेरी कोख की सौगंध है। नरायन को और बहू-बच्चों को लेकर निकल जो पीछे से।”
”और तू?”
”मेरी फिकर छोड! मैं देख रही हँू, तेरा काका मुझे बुला रहा है।”
निहाल ने बहस नहीं की। गदल ने एक बंदूकवाले से भरी बंदूक लेकर कहा – ”चले जाओ सब, निकल जाओ।”
संतान के मोह से जकडे हुए युवकों को विपत्ति ने अंधकार में विलीन कर दिया।
गदल ने घोडा दबाया। क़ोई चिल्लाकर गिरा। वह हँसी। विकराल हास्य उस अंधकार में गँूज उठा।
दरोगा ने सुना तो चौंका ः औरत! मरद कहाँ गए! उसके कुछ सिपाहियों ने पीछे से घेराव डाला और ऊपर चढ ग़ए। गोली चलाई। गदल के पेट में लगी।

युद्ध समाप्त हो गया था। गदल रक्त से भीगी हुई पडी थी। पुलिस के जवान इकट्ठे हो गए।
दरोगा ने पूछा – ”यहाँ तो कोई नहीं?”
”हुजूर! – एक सिपाही ने कहा – ”यह औरत है।”
दरोगा आगे बढ अाया। उसने देखा और पूछा – ”तू कौन है?”
गदल मुस्कराई और धीरे से कहा – ”कारज हो गया, दरोगाजी! आतमा को सांति मिल गई।”
दरोगा ने झल्लाकर कहा – ”पर तू है कौन?
गदल ने और भी क्षीण स्वर से कहा – ”जो एक दिन अकेला न रह सका, उसी की … ।”
अौर सिर लुढक़ गया। उसके होठों पर मुस्कराहट ऐसी दिखाई दे रही थी, जैसे अब पुराने अंधकार में जलाकर लाई हुई …पहले की बुझी लालटेन ़