मानव सभ्यता की विकास यात्रा की सहभागिता रही हैं म.प्र. की जनजातीय भाषाएँ
भोपाल : 14/11/2022 11:00
किसी भी मानव-समुदाय की पृथक पहचान उसकी जीवन-शैली, सांस्कृतिक परंपराओं और भाषा-बोली से होती है। आज स्थिति यह है कि वैश्वीकरण की प्रक्रिया में दुनिया की सैकड़ों बोलियाँ विलुप्त होने की कगार पर हैं। किसी भी सभ्यता के विकास में भाषा की प्रमुख भूमिका होती है। मनुष्य अपने भाव अथवा विचार भाषा के माध्यम से ही अन्य व्यक्ति तक सम्प्रेषित करता है। इस प्रकार भाषा मनुष्य को सामाजिक प्राणी बनाने में केन्द्रीय तत्व के रूप में कार्य करती है। जनजाति समुदायों की भाषाओं पर विचार करते हुए यह तथ्य और अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है। ये भाषाएँ मानव-सभ्यता की विकास-यात्रा में सहयात्री रही हैं, इसलिये इनमें आरंभिक मनुष्य द्वारा अन्वेषित और अर्जित पारंपरिक ज्ञान संचित है,जो अत्यंत मूल्यवान है।
जनजातीय भाषाओं का एक-एक शब्द संबंधित समुदाय की सांस्कृतिक निधि है। इन भाषाओं की परंपरागत वाचिक (मौखिक) संपदा के माध्यम से ही मानव-इतिहास, सभ्यता-संस्कृति, वनस्पति और जीव-जगत, कृषि, वास्तु एवं अन्य कला-कौशलों संबंधित ज्ञान की परंपरा को समझा जा सकता है। अन्य उन्नत भाषाओं और सभ्यताओं से सघन संपर्क के कारण जनजातीय भाषाओं के स्वरूप में बदलाव आ रहा है। भाषा की यह परिवर्तनशीलता एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। भारत की सांस्कृतिक विविधता में भाषिक भिन्नता एक प्रमुख घटक है। राष्ट्र की इस वैविध्यपूर्ण विशेषता को अक्षुण्ण रखने के लिए विभिन्न भाषा-बोलियों को बचाए रखना आवश्यक है। यह निश्चित है कि भाषाओं को बचाने का काम उसे बोलने वाले ही कर सकेंगे।
मध्यप्रदेश में 43 अनुसूचित जनजातियाँ अथवा उनके समूह हैं। पहले प्रत्येक जनजाति समुदाय की अलग भाषा हुआ करती थी। अब केवल भीली, भिलाली, बारेली, पटलिया, गोंडी, ओझियानी, अगरिया, बैगानी, कोरकू, मवासी, नहाली ही कुछ क्षेत्रों में परिवर्तित रूपों के साथ संबंधित समुदायों की प्राय: पुरानी पीढ़ी द्वारा बोली जाती हैं। अन्य जनजातियों की बोलियाँ लुप्त हो चुकी हैं, जैसे-कोल की कोलिहारी, परधान की परधानी, भारिया की भरियाटी, सहरिया की सहरानी, खैरवार या कोंदर की खैरवारी तथा भिम्मा, नगारची, मोंगिया सहित अन्य जनजातियों की भाषाएँ भी।
भारत की मान्य भाषाएँ वे हैं, जो आठवीं अनुसूची में सम्मिलित हैं।तकनीकी रूप से ये प्रायः वे भाषाएँ हैं, जिनके प्रयोक्ताओं की संख्या तुलनात्मक दृष्टि से अधिक है और जिनका समृद्ध साहित्यिक इतिहास है। इनके अलावा भी देश में अनेक भाषाएँ हैं,जिनका प्रयोग व्यापक क्षेत्र में होता है और जिनमें प्रचुर मात्रा में साहित्य भी उपलब्ध है। वर्ष 1961 की जनगणना में कुल 1652 मातृभाषाएँ चिन्हित की गयीं थीं, जिनमें से 184 भाषाओं को बोलने वालों की संख्या 10 हजार से अधिक थी। ‘पीपुल ऑफ इंडिया’ के अनुसार भारत में 75 प्रमुख भाषाएँ हैं, जबकि मातृभाषा के रूप में 325 बोलियों का प्रयोग होता है। ‘एथनोलॉग’ में उल्लेख किया गया है कि भारत में कुल 398 भाषाएँ रही हैं, जिनमें से 387 जीवित हैं और 11 मृत हो चुकी हैं। एक आकलन के अनुसार 32 भाषाएँ ऐसी हैं, जिनका प्रयोग 10 लाख अथवा उससे अधिक लोग करते हैं। यूनेस्को की मान्यता पर ध्यान दें तो भारत में 400 भाषाएँ हैं, जिनमें से 70 से 80 प्रतिशत विलोपन के क्षेत्र में हैं।
आयुक्त भाषाई अल्पसंख्यक द्वारा वर्ष 2005 में प्रस्तुत ‘लघु भाषाएँ : विशेष प्रतिवेदन’ में उल्लेखानुसार भारत में कुल 116 भाषाएँ हैं, जिनमें से 22 आठवीं अनुसूची में तथा 94 उसके बाहर हैं। इनके अलावा दस हजार से कम प्रयोक्ताओं वाली अनेक बोलियाँ हैं, जिनमें से 44 सुपरिभाषित हैं। इसी प्रतिवेदन में बताया गया है कि चार अण्डमानीय भाषाएँ- अका 50, जारवा 300, सैंटिनलीज़ 100 तथा ओंजे 100 भाषा-भाषियों के साथ जीवित हैं।
मध्यप्रदेश जनजातीय जनंसख्या की दृष्टि से भारत का सबसे बड़ा राज्य है।जैसा कि ऊपर उल्लेख किया गया है, यहाँ भारत सरकार द्वारा जारी अनुसूची में शामिल 43 जनजाति समूह आबाद हैं, जिनमें जनंसख्या की दृष्टि से भील, गोंड, कोल,सहरिया,बैगा, कोरकू आदि प्रमुख हैं। आदिम जाति समूह के अंतर्गत बैगा, भारिया और सहरिया शामिल हैं। इन सभी जनजातियों की अपनी-अपनी बोलियाँ हैं। भील समूह की भीली, भिलाली, बारेली, पटलिया आदि बोलियाँ प्रमुख रूप से झाबुआ, अलीराजपुर, धार, खरगौन, बड़वानी, रतलाम, मंदसौर आदि जिलों में बोली जाती है। यह आर्य भाषा परिवार से संबंधित भाषा समूह है। इन बोलियों का मौखिक साहित्य अत्यंत समृद्ध है। गोंडी मध्य भारत की प्रमुख जनजातीय भाषा है। एक कालखंड में वर्तमान उत्तर प्रदेश की सीमा से लेकर मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, उड़ीसा, तेलंगाना, महाराष्ट्र आदि राज्यों के विभिन्न क्षेत्रों में गोंडवाना साम्राज्य स्थापित था।उन क्षेत्रों में आज भी गोंडी के विभिन्न रूपों का प्रयोग होता है। मध्यप्रदेश में प्रमुख रूप से मंडला, डिण्डौरी, जबलपुर, बालाघाट, सिवनी, शहडोल, अनूपपुर, सीधी, रायसेन, सागर, होशंगाबाद, बैतूल, छिन्दवाड़ा आदि जिलों में गोंडी बोली जाती है। यह द्रविड़ भाषा-परिवार की भाषा है। मध्यप्रदेश में इसके दो रूप देखने को मिलते हैं। एक आधुनिक रूप, जिसे ‘मंडलाही’ कहा जाता है, इसमें आर्य बोलियों-जैसे छत्तीसगढ़ी, बुंदेली आदि के साथ हिन्दी-मराठी के शब्दों की प्रचुरता है और दूसरा मूल द्रविड़ियन रूप, जो ‘पारसी’ कहलाता है।
कोरकू जनजाति की भाषा कोरकू कहलाती है। कोरकू जातिसूचक शब्द ‘कोरो’ (मनुष्य) शब्द में बहुवचन सूचक ‘कू’ प्रत्यय लगाने पर बना है। कोरकू समूह की दो उप बोलियाँ हैं, जो मवासी अथवा मोवासी और नहाली अथवा निहाली कहलाती हैं। यह आस्ट्रिक भाषा परिवार की बोली मानी जाती है, जो खंडवा, बुरहानपुर, हरदा, होशंगाबाद, बैतूल आदि जिलों के साथ ही महाराष्ट्र के सीमावर्ती क्षेत्रों में भी बोली जाती है। कोरकू आस्ट्रो-एशियाई भाषा-परिवार की मुण्डा शाखा की भाषा है। कोरकू समुदाय की बसाहट गोंड समुदाय के आसपास होती है।
बैगानी प्रमुख रूप से डिण्डौरी, मंडला, बालाघाट, शहडोल, अनूपपुर के साथ ही छत्तीसगढ़ के सीमावर्ती क्षेत्रों में भी प्रचलित है। भरियाटी पातालकोट की भारिया जनजाति द्वारा बोली जाती है। इन सभी बोलियों का मौखिक साहित्य इनकी प्राचीनतम ज्ञान-परंपरा को रेखांकित करता है।
मध्यप्रदेश में जनजातीय बोलियों की स्थिति यदि जनगणना संबंधी आँकड़ों के विश्लेषण के आधार पर देखी जाये तो यह पता चलता है कि इन भाषाओं के प्रयोक्ता जनसंख्या की तुलना में निरंतर कम होते जा रहे हैं। अल्प आबादी वाली जनजातियों द्वारा बहुसंख्यक समुदाय की बोलियों को संपर्क भाषा के रूप में व्यवहार में लाये जाने के कारण उनकी मातृभाषा विस्मृत होती जा रही है।
निष्कर्ष रूप में जनजातीय भाषाओं की वर्तमान दशा को देखते हुए यही कहा जा सकता है कि अनुकूल माहौल बनाकर यदि इन्हें खुली हवा में साँस लेने का अवसर उपलब्ध नहीं कराया गया तो जल्दी ही इनका दम घुट जायेगा। इसलिये इनकी सही देखभाल घरों में ही हो सकती है। हर माँ को बच्चे की परवरिश अपनी भाषा में करनी होगी। स्कूल हो,या कार्यस्थल-कहीं भी किसी को अपनी भाषा बोलने से न रोका जाये।ये प्राचीन भाषाएँ बचेंगी तो इनके साथ करोड़ों वर्षों के अनुभव से अर्जित ज्ञान-संपदा भी बचेगी। संतोष की बात है कि वर्तमान मध्यप्रदेश सरकार जनजातीय संस्कृति और भाषाओं के संरक्षण को लेकर गंभीर है और इनके प्रोत्साहन के अनेक उपाय लगातार कर रही हैं।
(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार और जनजातीय संस्कृति के अध्येता हैं।)
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