कबीर ग्रंथावली (संपादक- हजारी प्रसाद  द्विवेदी) के पद संख्या 163 अर्थ सहित

kabir ke pad arth sahit.

पद: 163

मेरा-तेरा मनुआँ कैसे इक होई रे।

मैं कहता हौ ऑखिन देखि, तू कहता कागद्की लेखी।

मैं कहता सुरझावन हारी, तू राख्यौ उरझाई रे।

मैं कहता तू जागत रहीयो, तू रहता है सोई रे।

मैं कहता निर्मोही रहियो, तू जाता है मोहि रे।

जुगन जुगन समुझावत हारा, कही न मानत कोई रे।

तू तो रंडी फिरै बिहंडी, सब धन डारे खोई रे।

सतगुरु धरा निर्मल बाहै, वामै काया धोई रे।

कहत कबीर सुनो भाई साधो, तब ही वैसा होई रे।।

भावार्थ :-

कबीर दास जी कहते हैं की भाई तेरा और मेरा मन एक कैसे हो सकता है। तू संसार की बात करता है जबकि मैं ईश्वर की बात करता हूं दोनों की दिशाएं विपरीत है।  मैं कहता हूं अर्थात मैं अपने अनुभव की बात करता हूं जबकि तू कागज में अर्थात ग्रंथों में शास्त्रों में लिखी हुई बातों को रख कर बोलता है तो अनुभव एवं शास्त्र का ज्ञान दोनों मेल नहीं खाते तो फिर हम दोनों का मन एक कैसे होगा अर्थात नहीं हो सकता। मैं सुलझाने वाली बात करता हूं संसार से पार होने की बात करता हूं और तू संसार की ओर जाने वाली उलझाने वाली बात करता है इस कारण से भी हमारी जो है एक दूसरे के विचार मेल नहीं खा सकते। मैं कहता हूं कि भैया जागृत रहो हमें सब भवसागर से पार जाना है इसलिए संसार में मत उलझो किंतु तुम तो संसार की ओर इतने अधिक उलझे हुए हो। इतने अधिक व्यस्त हो कि तुम्हें परमार्थ की ओर तुम्हारा ध्यान ही नहीं है ।

 जैसे कि उस ओर से तुम बेखबर हो अथवा सोए हुए की तरह हो। कबीरदास जी कहते हैं कि मैं कहता हूं की निर्मोही रहियो अर्थात व्यक्तियों के प्रति हमारे मन में जो आसक्ति होती है वही मोह कहलाती है तो मैं कहता हूं कि लोगों के प्रति अपने मन में बहुत आसक्ति मत रखो किंतु तुम्हारे क्रियाकलाप तो लोगों के प्रति गहरी आसक्ति बढ़ाने के लिए ही किए जाते हैं। इस प्रकार मेरा और तुम्हारा व्यवहार विपरीत है। 

सभी साधु संगति ऋषि-मुनियों की ओर से कबीरदास जी कहते हैं कि मेरी तरह लोग अथवा ज्ञानी जन युगों युगों से समझाते आए हैं किंतु लोग नहीं समझ रहे हैं समझा समझा कर ज्ञानी जन हार गए किंतु लोग फिर से उसी अज्ञान में उलझे हुए हैं डूबे हुए हैं। इस संसार में लोग अपनी ईश्वर प्राप्ति की साधना की क्षमताओं को संसार में इस प्रकार व्यर्थ गंवा रहे हैं जैसे कोई व्यक्ति बहुत परिश्रम से धन अर्जन करें और उसे वेश्यावृत्ति में व्यर्थ ही खर्च कर डाले जिससे उसका भी विनाश होता है और उसका धन भी चला जाता है। 

वह कहते हैं कि भाई इस तरह का कार्य मत करो जब तक तुम्हारे शरीर में यौवन है क्षमता है जब तक तुम्हारी बुद्धि कुशाग्र है ईश्वर प्राप्ति के लिए जो क्षमताएं चाहिए वह जब तक तुम में है तब तक तुम उस ईश्वर को निर्गुण राम को प्राप्त करने के लिए प्रयास कर लो इस अवसर को व्यर्थ मत जाने दो। संत कबीर जी कहते हैं कि ऐसे गुरु जिन्होंने ईश्वर को प्राप्त किया है संतत्व को धारण करते हैं उनके पास उपदेश रूपी अमृत की धारा सदा बहती रहती है। 

उनके दर्शन से उनके वचनों से उनकी इस शीतलता में स्नान करके अपने को धन्य बना लो। और इस संसार समुद्र से अपने को पार कर लो अर्थात उसमें स्नान करके पवित्र हो जाओ । ब्रह्मत्व को प्राप्त कर लो मुक्ति को प्राप्त कर लो मुक्त हो जाओ। संत कबीर दास जी कहते हैं कि इस प्रकार जब आप अपने गुरु के सानिध्य में उनका आश्रय लेकर उन पर श्रद्धा करके उनके वचनों को अपने शीश पर धारण करके उनका पालन करोगे तब आप उस मुक्त अवस्था को प्राप्त कर सकोगे। जिसके बारे में अभी कहा है।