कबीर ग्रंथावली (संपादक- हजारी प्रसाद  द्विवेदी) पद संख्या 191 अर्थ सहित

पद: 191

पीछे लागा जाइ था, लोक वेद के साथि।
आगैं थैं सतगुर मिल्या, दीपक दीया हाथि॥1।।

दीपक दीया तेल भरि, बाती दई अघट्ट।

पूरा किया विसाहूणा, बहुरिन आँवौं हट्ट॥2।।

कबीर गुरु गरवा मिल्या, रलि गया आटे लूंण।

जाति पाँति कुल सब मिटैं, नौव घरौगे कौण।।3।।

सतगुरु हमसूँ रीझि करि, एक कहाय परसंग।

बरस्या बादल प्रेम का, भीजि गया सब अंग॥4।।

शब्दार्थ :- बिसाहुणांँ=खरीदना। 

भावार्थ :-

कबीर दास जी कहते हैं कि मैं जनसमुदाय और धार्मिक रीति से की जाने वाली  धार्मिक परंपराओं और ग्रंथों  में भ्रमित था और उसी में तन्मय था। इस प्रकार जब मैं थोड़ा आगे गया तो मुझे सद्गुरु की प्राप्ति हुई। और उन्होंने मेरे हाथ में विवेक का सुमति का सद्बुद्धि का दीपक हाथ में दिया। जिससे कि मैं उचित अनुचित पाप पुण्य आदि का विवेक अच्छी तरह से कर सकूं। और इस प्रकार मैंने इस संसार रूपी बाजार में आकर अपना सौदा इस प्रकार पूरा कर लिया है कि अब मैं इस संसार में लौटकर दोबारा नहीं आऊंगा मेरी सारी झंझट मिट गई है। 

वह कहते हैं कि मुझे गुरुत्व जिनमें है जो बड़े हैं जो ज्ञानी हैं ऐसे गुरु प्राप्त हुए हैं और जिस प्रकार आटे में नमक डालने से रोटियां स्वादिष्ट हो जाती हैं उसी प्रकार मेरा जीवन संतुष्टि से परिपूर्ण हो गया है। और मेरी जाती-पाती और कल की मर्यादा नष्ट हो गई है और मैंने जो अनुभव किया है उसका मैं आपसे क्या कहूं कि आप उसका क्या नाम रखेंगे।

 आगे वे कहते हैं कि मेरे सद्गुरु मेरी सेवा से प्रसन्न होकर मुझ पर रीझ गए और उन्होंने एक प्रसंग मुझसे कहा। और वह प्रसंग उन्होंने इस प्रकार कहा कि वह प्रेम का बादल बन कर मुझ पर बरस पड़े और मेरा सब अंग अंग भीग गया और मैं प्रेम में हो गया मेरे भीतर का प्रेम ही जागृत हो गया अर्थात मैं अपने आत्मानुभूति से संपन्न हो गया।