कबीर ग्रंथावली (संपादक- हजारी प्रसाद  द्विवेदी) पद संख्या 193 अर्थ सहित

पद: 193

मेरी अंखियाँ जांन सुजांन भई।

देवर गरम सुसर संग तजि करि, हरि पीव तहाँ गई।।

बालपनैके करम हमारे, काटे जानि दई।

बाँह पकरि करि किरपा किन्हीं, आप समींप लई।।

पानींकी बूँदेथे जिनि प्यंड साज्या, ता संगि अधिक करई।

दास कबीर पल प्रेम न घटई, दिन दिन प्रीति नई।।   

रई =रत हुई।

भावार्थ :-

कबीर दास जी कहते हैं कि मेरी आंखों में जो जान थी जो खूबसूरती थी वह यह जानकर और अधिक सुंदर और अधिक सुजान हो गई कि अब मैं अपने देवर ससुर आदि परिवार वालों का संग छोड़कर अपने प्रियतम हरि के पास रहने को चली गई हूं। बचपन के या बालकपन में हमने जो कर्म किए हैं उन्हें कट जाने देता हूं और मेरे स्वामी अर्थात राम ने मेरी बहना पकड़ कर मुझ पर बड़ी कृपा की है और उन्होंने मुझे अपने समीप ले लिया है। वह कहते हैं कि पानी की बूंद अर्थात वीर्य से जिस प्रकार शरीर रूपी पिंड की रचना हुई है तो उसे रचनाकार का संग अधिक करना चाहिए अर्थात ईश्वर का संग करना चाहिए जिसमें ऐसी सृष्टि बनाई है । कबीर दास जी कहते हैं कि उसके प्रति प्रेम पल भर भी घटना नहीं चाहिए और दिन प्रतिदिन वह बढ़ते रहना चाहिए, प्रीति नवीन होती रहनी चाहिए।