कबीर ग्रंथावली (संपादक- हजारी प्रसाद  द्विवेदी) पद संख्या 198 अर्थ सहित

पद:198

पिया मेरा जागे मैं कैसे सोई री।

पाँच सखि मेरे सँगकी सहेली,

उन रँग रँगी पिया रंग न मिली री।

सास सयानी ननद-बोरानी,

उन डर डरी पिय सार न जानी री।

दादस ऊपर सेज बिछानी,

चढ़ न सकौ मारी ला लजानी री।

रात दिवस मोहिं कूका मारे,

मैं न सुनी रचि रहि संग जार री।

कहै कबीर सुनु सखी सयानी,

बिन सतगुरु पिया मिले न मिलानी री।। 

शब्दार्थ :- द्वादस ऊपर  = 10 इन्द्रिय, मन और बुद्धि  इन बारहों  से परे । रात दिवसा …… जानी री = रात-दिन मेरे हृदय में  विरह वेदना  उमड़ती रहती है, पर मैंने उसकी आवाज नहीं सुनी और न उसके सहवास को ही जान सकी।

भावार्थ :-

पिया मेरा जागे मैं कैसे सोई री।

पाँच सखि मेरे सँगकी सहेली,

उन रँग रँगी पिया रंग न मिली री।

कबीर दास जी कहते हैं कि वह साधु मेरा जो पिया है मेरा जो प्रियतम है वह ईश्वर जाग रहा है तो फिर मैं कैसे सोया हुआ हूं अथवा तो वस्त्री रूप को अंगीकार कर कहते हैं कि अरे में कैसी सोई हुई हूं। मेरी 5 सखियां है वह सखियां कौन हैं? वह सखियां पंचतत्व हैं जो हमारे शरीर आदि का हमारे चित्तादी का सृजन करती हैं। शब्द स्पर्श रूप रस और गंध। वे कहते हैं कि मैं इन पंच तत्वों के ही रंग में रंगी हुई हूं और इन्हीं में सिमट कर रह गई हूं मैं अपने प्रियतम के रंग से रंगी नहीं हूं अर्थात मुझे ईश्वर का अनुभव नहीं हुआ है यह उनकी साधना अवस्था की भक्ति भावना का वर्णन है।

सास सयानी ननद-बोरानी,

उन डर डरी पिय सार न जानी री।

यहां भी अपनी कहते हैं कि मेरी सास जो है वह सयानी है अथवा तो समझदार है किंतु कहते हैं कि ननंद बौरानी अर्थात मेरी जो ननंद है वह पागल है अथवा तो मुझे कष्ट देती है। यहां पर उसका ऐसा अर्थ निकालना उचित होगा। आगे कहते हैं कि मैं उससे डरी हुई अपने पिया के पास जा ही नहीं सकी, उन्हें प्राप्त ही नहीं कर सकी।

दादस ऊपर सेज बिछानी,

चढ़ न सकौ मारी ला लजानी री।

रात दिवस मोहिं कूका मारे,

मैं न सुनी रचि रहि संग जार री।

वे कहते हैं की मेरे पिया की सेज बहुत ऊंचाई पर है जहां पर मैं लाज के मारे चढ ही नहीं सकी। क्योंकि घर में सब लोग रहते हैं और उनसे लज्जित होकर मैं ऐसा नहीं कर सकी। वे आगे कहते हैं कि मुझे हमेशा यह धुन रहती है रात दिन में चिंतन में रहती हूं कि मैं अपने प्रियतम से कब मिलूंगी। वह कहती हैं कि मैं उनके साथ रहते हुए भी एक ही घर में रहते हुए भी उनसे ठीक तरह से रच-बस नहीं पाई। ठीक तरह से मिल नहीं पाई। यही मेरी अवस्था है अर्थात यहां  वे यह कहना चाहते हैं कि वह ईश्वर जो कण-कण में व्याप्त है हमारे अंदर भी और बाहर भी व्याप्त है, इतने निकट होते हुए भी मैं उस ईश्वर का साक्षात्कार नहीं कर सका और लोक लज्जा के कारण मैंने उस ईश्वर की ओर पूरा ध्यान नहीं दिया। साधना नहीं की।

कहै कबीर सुनु सखी सयानी,

बिन सतगुरु पिया मिले न मिलानी री।।

कबीर दास जी कहते हैं कि है मेरी सखियों समझदार सखियों सुनो यहां पर मुझे मार्ग दिखाने वाला कोई नहीं था। इसीलिए मेरे आस-पास एक ही घर में रहते हुए भी मैं अपने प्रियतम से नहीं मिल पाई और इसीलिए मुझे मेरे सद्गुरु की आवश्यकता है। जो मुझे ईश्वर से मेरा मिलन करवा देंगे। अतः वह कहना चाहते हैं कि यदि आपको ईश्वर प्राप्ति करनी है तो किसी ब्रह्मवेत्ता सद्गुरु की शरण ग्रहण करें। अन्यथा आप उस ईश्वर से नहीं मिल पाएंगे।