पद: 199
बहुत दिनन की जोवती, बाट तुम्हारी राम।
जिव तरसे तुझ मिलन कूँ, मनि नाहीं विश्राम।।1।।
बिरहिन ऊठै भी पड़े, दरसन कारनि राम।
मूवाँ पीछे देहुगे, सो दरसन किहिं काम॥2।।
मूवां पीछे जिनि मिलै, कहै कबीरा राम।
पाथर घाटा लौह सब, पारस कोणों काम॥3।।
बासुरि सुख, नाँ रैणि सुख, ना सुख सुपिनै माहिं।
कबीर बिछुट्या राम सूं, ना सुख धूप न छाँहि॥4।।
भावार्थ :-
बहुत दिनन की जोवती, बाट तुम्हारी राम।
जिव तरसे तुझ मिलन कूँ, मनि नाहीं विश्राम।।1।।
संत कबीर जी कहते हैं की हे प्रियतम मैं बहुत दिनों से तुम्हारी राह देख रही थी हे मेरे राम! मेरा मन तुमसे मिलने को तरस गया है। और उसे किसी भी प्रकार से विश्राम नहीं मिला है उसे आपसे मिलने के सिवा और कुछ सूझता ही नहीं है।
बिरहिन ऊठै भी पड़े, दरसन कारनि राम।
मूवाँ पीछे देहुगे, सो दरसन किहिं काम॥2।।
वह कहते हैं की है मेरे प्रियतम! हे मेरे राम! आपकी जो यह बिरहिन दासी है वह आपके दर्शनों के लिए प्रयास करते हुए आपकी ओर आने के लिए उठती है और फिर गिर पड़ती है। क्योंकि वह आपके विरह वियोग में इतनी कमजोर हो गई है कि ठीक तरह से उठकर खड़ी भी नहीं हो पाती। तो आपसे मैं यह कहना चाहती हूं कि क्या जब मेरे प्राण निकल जाएंगे तब आप मुझे दर्शन देने के लिए आएंगे। किंतु यदि आप उस समय आएंगे तो फिर जब मैं रहूंगी ही नहीं तो दर्शन कौन करेगा अर्थात यह उचित नहीं होगा।
मूवां पीछे जिनि मिलै, कहै कबीरा राम।
पाथर घाटा लौह सब, पारस कोणों काम॥3।।
कबीरदास जी कहते हैं कि हे प्रभु! यदि आप मेरी मृत्यु के पश्चात आकर मिलेंगे तो फिर वह व्यर्थ हो जाएगा क्योंकि कोई लोहा जब दीर्घकाल तक नष्ट होकर पड़ा रहता है तो वह घटकर पत्थर हो जाता है और फिर उस पत्थर को यदि पारस का स्पर्श किया जाए तो वह सोना नहीं बन सकता अर्थात् सही समय पर यदि आप नहीं आए तो आप का आना भी उसी प्रकार व्यर्थ हो जाएगा अतः आप शीघ्र आइए।
बासुरि सुख, नाँ रैणि सुख, ना सुख सुपिनै माहिं।
कबीर बिछुट्या राम सूं, ना सुख धूप न छाँहि॥4।।
आगे कहते हैं की न तो दिन में सुख है न तो रात में सुख है और नहीं स्वप्न अवस्था में ही सुख है वह कहते हैं कि यदि राम से बिछड़े हुए हैं तो न तो धूप में सुख है न ही छांव में सुख है अर्थात् किसी भी प्रकार से आपके बिना मुझे सुख नहीं मिलता अर्थात मैं बहुत दुखी हूं आप आन मिलिए।