UGCNET-EXAM-SECOND-PAPER-HINDI- परीक्षा तिथि -18/06/2024 Q.76-80


76. ‘शेखर एक जीवनी’ के अनुसार शेखर द्वारा बनायी गयी समिति ‘एंटिगोनम क्लब’ के प्रमुख सदस्य थे : 

A. कुमार 

B. सदाशिव 

C. ईश्वरदत्त 

D. राघवन् 

E. देवदास 

नीचे दिए गए विकल्पों में से सही उत्तर का चयन कीजिए: 

(1), केवल A, B और E 

(2) केवल B, C और D 

(3) केवल A, C और D 

(4) D और E 

UGCNET-EXAM-SECOND-PAPER-HINDI- परीक्षा तिथि -18/06/2024

उत्तर –  (4) D और E 

A. कुमार ❌

B. सदाशिव ✅

C. ईश्वरदत्त ❌

D. राघवन् ✅

E. देवदास ✅

उन ‘अछूतों’ में से शेखर ने मित्र बनाने आरम्भ किये हैं। और अपने भीतर की इस बाध्यता को, उसके प्रत्येक बदलते हुए पर्दे को, वह उन पर प्रकट करता है। कुछ एक लड़के इकट्ठे करके उसने एक समिति-सी बना ली है, जिसका नाम-नियम कोई नहीं है, लेकिन जो प्रायः उसके कमरे में सम्मिलित होती है, और जिनसे निरन्तर विचारों का विनिमय और रुचियों, भावों और भावनाओं का संघर्षण रहता है…

शेखर उनका नेता नहीं है-न अपने मन में, न उनके मन में, लेकिन नेतृत्व किसी तरह उसी की ओर से उद्भूत होता है-वह जो आकारहीन-सी समिति है, वह इसलिए चलती है कि शेखर है।

एक समतल उजाड़ भूमि के मध्य में जिसे होस्टल के छात्र अपना ‘प्लेग्राउंड’ कहते हैं, अछूतों का तिमंजिला होस्टल खड़ा है, और उसकी छत के पक्के फर्श पर बिना कुछ बिछाए चार लड़के लेटे हैं। यह शेखर की नामहीन समिति की कार्यकारिणी है। कार्यकारिणी कहने का अभिप्राय इतना ही है कि इन चारों में अशान्ति भीतरी है, वे जाग रहे हैं और आसपास देखकर स्वभावतया चिन्तित हैं। समिति के दूसरे दो-तीन सदस्य अपनी गति, अपना प्रवाह नहीं रखते, उनमें लहर तब उठती है जब कोई हाथ से हिला देता है, या दूर से ही एक ढेला उनके ऊपर छायी हुई शान्त निस्तब्धता में गिरा देता है…

शेखर के अतिरिक्त बाकियों के नाम हैं, सदाशिव, राघवन् और देवदास। इनमें सदाशिव कद में सबसे छोटा किन्तु बुद्धि में सबसे तीव्र था। उसके प्रायः खुले हुए टेनिस कालर के ऊपर उसकी पतली ग्रीवा, उसके ऊपर बिखरे हुए बालों के कारण और भी बड़े दीखनेवाले सिर की छाया में शान्त अंडाकार चेहरा, जिसकी छोटी किन्तु खूब खुली-सी रहनेवाली आँखों में एक समझदार- करुणा का भाव रहता है, मानो आँखें कह रही हों, मैं तुम्हें कष्ट नहीं पहुँचाऊँगी, केवल निकट से देखकर जानना चाहती हूँ-इन सबको देखकर हठात् शेली के एक चित्र की याद आती थी, और शेखर ने उसका नाम ही शेली रख दिया था। सदाशिव इस नाम से बहुत झेंपता था-उसे लगता था यह शायद उसके आत्म विस्मृति कर देने वाले प्रकृति-प्रेम पर कटाक्ष है-इसलिए यह नाम स्थायी हो गया था।

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शेखर बोलता है। सदाशिव कभी-कभी दाद देता है, नहीं तो चुप रहता है। उसकी चुप में शेखर अपना सहयोगी पहचान लेता है। देवदास हँस देता है, पर जो काम सिपुर्द होता है, लगन से करता है। केवल राघवन् का उत्साह कुछ घट रहा है। समिति के उद्देश्य ज्यों-ज्यों साफ होते जाते हैं, उसके मेम्बर भी बढ़ते जाते हैं, क्योंकि उन्हें कोई सुस्पष्ट सिद्धान्त चाहिए, जिसके अग्नियान में वे अपनी-अपनी डोंगियाँ बाँध दें और समाज के समुद्र के पार घिसटते चलें। लेकिन उससे काम कुछ अधिक अच्छा होने लगा है, ऐसा नहीं जान पड़ता; बल्कि विरोधियों को अब विरोध के लिए कोई बात मिलना अधिक आसान हो गया है।

फिर भी, ये अनेक तरह के जाल-जंजाल काटता हुआ और काला धुआँ उगलता हुआ अग्नियान चला ही जा रहा है, और उसका कप्तान शेखर सदाशिव जैसा सहकारी पाकर अपने को धन्य मानता है।

शेखर और उसके साथियों का एक दिन एकाएक ही नामकरण हो गया ‘एंटीगोनम क्लब’।

बात यों हुई…

समिति बहस-मुबाहसे के बाद धीरे-धीरे इस नतीजे पर पहुँच रही थी कि उनका युवक समाज स्त्रियों के प्रति वही भाव रखे, जो एक आदरणीय अतिथि के प्रति रखा जाता है-वे रहें कुछ अपरिचित ही, लेकिन सम्मान पाएँ, कष्ट में सहायता पाएँ, विपत्ति में संरक्षण पाएँ और इतना सब होते हुए भी स्वाधीन रहें, किसी तरह उनके प्रति बाधित न हों। अपनी ओर से शेखर ने यह भी तय कर लिया कि वह विवाह नहीं करेगा, उसकी बात भी नहीं सोचेगा। इस निश्चय पर पहुँचने के बाद ही उसने होस्टल के एक ओर लगी हुई बेल के नीचे एक छोटी-सी मीटिंग-सी की थी और उसमें अपने विचार प्रकट किये थे। जब तक अविवाहित रहने और स्त्रियों के प्रति दूरस्थ भाव का यत्न करने की बात आयी तब तक श्रोता ऊब गये थे और एक-एक दो-दो करके चले गये थे। रह गये थे केवल उसके तीनों मित्र। शेखर फिर भी कहे जा रहा था-

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77. “जिस जाति की सामाजिक अवस्था जैसी होती है उसका साहित्य भी ठीक वैसा ही होता है। जातियों की क्षमता और सजीवता यदि कहीं प्रत्यक्ष देखने को मिल सकती है तो उनके साहित्य रूपी आईने ही में मिल सकती है।” यह कथन किस लेखक का है? 

(1) महावीर प्रसाद द्विवेदी 

(2) रामचंद्र शुक्ल 

(3), श्याम सुंदर दास 

(4) प्रेमचंद 

UGCNET-EXAM-SECOND-PAPER-HINDI- परीक्षा तिथि -18/06/2024

उत्तर – (1) महावीर प्रसाद द्विवेदी 

जाति और साहित्य के सम्बन्ध पर द्विवेदी जी ने कानपुर वाले वक्तव्य में कहा  था, “जाति विशेष के उत्कर्षापकर्ष का, उसके उच्च नीच भावों का, उसके धाम्मिक विचारों और सामाजिक संघटन का उसके ऐतिहासिक घटनाचक्रों और राजनैतिक स्थितियों का प्रतिबिम्ब देखने को यदि कहीं मिल सकता है तो उसके ग्रन्थ साहित्य ही में मिल सकता है। सामाजिक शक्ति या सजीवता, सामाजिक अशक्ति या निर्जीवता और सभ्यता तथा असभ्यता का निर्णायक एक मात्र साहित्य है। जिस जाति विशेष में साहित्य का अभाव या उसकी न्यूनता आपको देख पड़े, श्राप यह निस्सन्देह निश्चित समझिए कि वह जाति असभ्य किवा अपूर्ण सभ्य हैं। जिस जाति की सामाजिक अवस्था जैसी होती है उसका साहित्य भी ठीक वैसा ही होता है, जातियों की क्षमता और सजीवता यदि कहीं प्रत्यक्ष देखने को मिल सकती है तो उनके साहित्य रूपी आईने ही में मिल सकती है।” समाज और साहित्य के गहरे सम्बन्ध पर द्विवेदी जी बार-बार जोर देते हैं। यह समाज आज जिस रूप में गठित है, उसका नाम है जाति। इसलिए जाति-विशेष के साहित्य का अध्ययन किसी समाज-विशेष के संदर्भ में ही हो सकता है। साहित्य में सामाजिक अवस्था प्रतिबिम्बित होती है, किन्तु साहित्य निष्क्रिय, तटस्थ प्रतिबिम्ब नहीं है। सामाजिक विकास में, जातियों के इतिहास में, उसकी क्रान्तिकारी भूमिका होती है।

उसी वक्तव्य में साहित्य की क्रान्तिकारी भूमिका के बारे में द्विवेदी जी कहते हैं, “आँख उठाकर जरा और देशों तथा और जातियों की ओर तो देखिए। आप देखेंगे कि साहित्य ने वहाँ की सामाजिक और राजकीय स्थितियों में कैसे कैसे परिवर्तन कर डाले हैं; साहित्य ही ने वहाँ समाज की दशा कुछ की कुछ कर दी है; शासन प्रबन्ध में बड़े बड़े उथल पुथल कर डाले हैं; यहाँ तक कि अनुदार धार्मिक भावों को भी जड़ से उखाड़ फेंका है। साहित्य में जो शक्ति छिपी रहती है वह तोप, तलवार और बम्ब के गोलों में भी नहीं पाई जाती। योरप में हानिकारिणी धार्मिक रूड़ियों का उत्पाटन साहित्य ही ने किया है; जातीय स्वातन्त्र्य के बीज उसी ने बोये हैं; व्यक्तिगत स्वातन्त्र्य के भावों को भी उसी ने पाला, पोसा और बढ़ाया है; पतित देशों का पुनरुत्थान भी उसी ने किया है। पोप की प्रभुता को किसने कम किया है ? फ्रान्स में प्रजा की सत्ता का उत्पादन और उन्नयन किसने किया है? पादाक्रान्त इटली का मस्तक किसने ऊंचा उठाया है ? साहित्य ने, साहित्य ने, साहित्य ने। जिस साहित्य में इतनी शक्ति है, जो साहित्य मुर्दो को भी जिन्दा करनेवाली संजीवनी औषधि का आकर है, जो साहित्य पतितों को उठाने वाला और उत्थितों के मस्तक को उन्नत करनेवाला है उसके उत्पादन और संवर्धन की चेष्टा जो जाति नहीं करती वह अज्ञानान्धकार के गर्त में पड़ी रहकर किसी दिन अपना अस्तित्व ही खो बैठती है। अतएव समर्थ होकर भी जो मनुष्य इतने महत्वशाली साहित्य की सेवा और अभिवृद्धि नहीं करता अथवा उससे अनुराग नहीं रखता वह समाजद्रोही साहित्य समालोचना और रीतिवाद-विरोधी अभियान | २७१

(Mahaveer Prasad Dwivedi Aur Hindi Navjagaran

By Ramvilas Sharma) Google Books Page 271-Printed.

78. एक साहित्यिक की डायरी के अध्याय ‘कलाकार की व्यक्तिगत ईमानदारीः एक’ के एक पात्र यशराज की शैक्षणिक योग्यत क्या थी ? 

(1) बी.टेक., एम.एस-सी., एल-एल.बी. 

(2) बी.एस.सी., एम.एस-सी., एल-एल.बी. 

(3) बी.एस.सी, बी.टेक., एल-एल.बी. 

(4). बी.ए., एम.ए., एल-एल.बी. 

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उत्तर – (3) बी.एस.सी, बी.टेक., एल-एल.बी. 

कलाकार की व्यक्तिगत ईमानदारी : एक

मेरी डायरी पर बहुत कम बहस हुआ करती है। लेकिन कल हो ही गयी। वो जो यशराज हैं न। वहीं, वहीं । उस गली में रहते हैं। नहीं, नहीं, उनकी वकालत नहीं चलती । हाँ, यूँ ही हैं, यों आदमी काबिल हैं। बी.एस-सी., बी. टेक., एल-एल. बी., लेकिन बिलकुल बेरोजगार हैं। इस शहर में उन्हें सब जानते हैं। हँसते हैं उनपर । वे बेरोजगार हैं न, इसलिए । उनके चेहरे पर हमेशा शनीचरी छाया रहती है ।

खैर तो ‘वसुधा’ के लिए लिखी गयी ताजी-ताजी डायरी उन्हें सुनाने का मुझे जब सौभाग्य प्राप्त हुआ तो मैं बड़ा खुश था। क्या तीर मारा है मैंने ! यशराज गरदन नीचे डाले मेरी डायरी को चुपचाप सुन रहे थे । जब सुनाना खत्म हुआ तो बहुत ही मन्थर गति से उन्होंने अपना सिर ऊँचा उठाया । कहने लगे-

“यह डायरी एकदम फ्रॉड है !”

मुझ पर वज्रपात हो गया था। काटो तो खून नहीं । नाड़ी खिसक गयी। यशराज ने अपना चेहरा ऐसा बिगाड़ लिया था, मानो उनकी जबान का स्वाद एकदम कड़आ हो उठा हो !

डायरी मैंने बहुत मेहनत से बनायी थी। परसाई जी के पत्र-रूपी पिस्तौलों से सम्प्रेरित होकर मैंने इतनी मेहनत की थी। नतीजा क्या निकला “धूल राख” बालू !

मैंने अपने मन को काफी नसीहत दी। उसकी पीठ थपथपायी। लेकिन निस्सन्देह उस समय मेरा चेहरा बहुत पीला हो गया, क्योंकि मैंने उन क्षणों का अनुभव किया कि चेहरों का खून निचुड़ता हुआ दिल में टपक रहा है। मैंने यशराज की तरफ जब देखा तो मुझे सन्देह हुआ कि वह भी मुझपर हँस रहा है।

मैंने अपने को सँवारते हुए, अटकते हुए और शब्दों के लिए भटकते हुए कहा, “तुम भले ही फ्रॉड कह लो । इसमें व्यक्तिगत ईमानदारी जरूर है। डायरी मेरी व्यक्तिगत ईमानदारी का सबूत है ।”

( पृष्ठ क्रमांक 106 : एक साहित्यिक की डायरी)

79. ‘अकाल और उसके बाद’ कविता में आए जीवों/वस्तुओं को कविता में आने के अनुसार, पहले से बाद के क्रम में लगाइए 

A. कुतिया 

B. कौआ

C. चूहा 

D. चक्की 

E. छिपकली 

नीचे दिए गए विकल्पों में से सही उत्तर का चयन कीजिए: 

(1) E, B, A, D, C 

(2), D, A, E, C, В 

(3) C, B, D, E, A 

(4) B, A, E, C, D 

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उत्तर –  (2), D, A, E, C, В 

Line Number

A. कुतिया 2

B. कौआ 8

C. चूहा 4

D. चक्की 1

E. छिपकली 3

अकाल और उसके बाद / नागार्जुन


कई दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास

कई दिनों तक कानी कुतिया सोई उनके पास

कई दिनों तक लगी भीत पर छिपकलियों की गश्त

कई दिनों तक चूहों की भी हालत रही शिकस्त।

दाने आए घर के अंदर कई दिनों के बाद

धुआँ उठा आँगन से ऊपर कई दिनों के बाद

चमक उठी घर भर की आँखें कई दिनों के बाद

कौए ने खुजलाई पाँखें कई दिनों के बाद।

80. निम्नलिखित चरित्रों को, तत्संबंधी नाटकों के प्रथम प्रकाशन के अनुसार, पहले से बाद के क्रम में लगाइए। 

A. अलका 

B. अशोक 

C. अनुनासिक 

D. लोचन बाबू 

E. नारायणदास 

नीचे दिए गए विकल्पों में से सही उत्तर का चयन कीजिए 

(1) B, D, A, E, C 

(2) C, B, E, A, D 

(3) D, A, E, C, B 

(4), E, A, C, B, D 

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उत्तर –  (4), E, A, C, B, D 

A. अलका  – “अलका” जयशंकर प्रसाद के चन्द्रगुप्त नाटक की पात्र है.चन्द्रगुप्त (सन् 1931 में रचित) हिन्दी के प्रसिद्ध नाटककार जयशंकर प्रसाद का प्रमुख नाटक है।

B. अशोक  –  आधे अधूरे मोहन राकेश द्वारा लिखित हिंदी का प्रसिद्ध नाटक है। यह मध्यवर्गीय जीवन पर आधारित नाटक है। इसमें तीन स्त्री पात्र हैं तथा पाँच पुरुष पात्र। इनमें से चार पुरुषों की भूमिका एक ही पुरुष पात्र निभाता है। हिंदी नाटक में यह अलग ढंग का प्रयोग है। इस नाटक का प्रकाशन 1969 ई. में हुआ था। यह पूर्णता की तलाश का नाटक है। इस नाटक को  meel का पत्थर भी कहा जाता है।

C. अनुनासिक  –  आषाढ़ का एक दिन (1958) नाटक में रंगीनी और संगिनी दोनों नागरी थे। अनुस्वार और अनुनासिक दोनों इस नाटक में अधिकारी थे।

D. लोचन बाबू 

E. नारायणदास  –  अंधेर नगरी’-प्रकाशन वर्ष – 1881 ई. – यह नाटक 6 अंकों में विभक्त है। यह प्रहसन शैली में लिखा गया है।