UGCNET-EXAM-SECOND-PAPER-HINDI- परीक्षा तिथि -18/06/2024 Q.71-75


71. “जब तक भाषा बोलचाल में थी तब तक वह भाषा या देशभाषा ही कहलाती रही, जब वह भी साहित्य की भाषा हो गई तब उसके लिए ‘अपभ्रंश’ शब्द का व्यवहार होने लगा।” यह कथत् किसका है? 

(1) शिव प्रसाद सिंह 

(2) नामवर सिंह 

(3) रामचंद्र शुक्ल 

(4), हजारी प्रसाद द्विवेदी 

UGCNET-EXAM-SECOND-PAPER-HINDI- परीक्षा तिथि -18/06/2024

उत्तर – (3) रामचंद्र शुक्ल 


प्रकरण २ 

अपभ्रंश काव्य

जब से प्राकृत बोलचाल की भाषा न रह गई तभी से अपभ्रंश साहित्य का आविर्भाव समझना चाहिए। पहले जैसे ‘गाथा’ या ‘गाहा’ कहने से प्राकृत का बोध होता था वैसे ही पीछे ‘दोहा’ या ‘दूहा’ कहने से अपभ्रंश या लोकप्रचलित काव्यभाषा का बोध होने लगा। इस पुरानी प्रचलित काव्यभाषा में नीति, शृंगार, वीर आदि की कविताएँ तो चली ही आती थीं, जैन और बौद्ध धर्माचार्य अपने मतों की रक्षा और प्रचार के लिये भी इसमें उपदेश आदि की रचना करते थे। प्राकृत से बिगड़कर जो रूप बोलचाल की भाषा ने ग्रहण किया वह भी आगे चलकर कुछ पुराना पड़ गया और काव्य रचना के लिए रूढ़ हो गया। अपभ्रंश नाम उसी समय से चला। जब तक भाषा बोलचाल में थी तब तक वह भाषा या देशभाषा ही कहलाती रही, जब वह भी साहित्य की भाषा हो गई तब उसके लिए अपभ्रंश शब्द का व्यवहार होने लगा।

भरत मुनि (विक्रम तीसरी शती) ने ‘अपभ्रंश’ नाम न देकर लोकभाषा को ‘देशभाषा’ ही कहा है। वररुचि के ‘प्राकृतप्रकाश’ में भी अपभ्रंश का उल्लेख नहीं है। अपभ्रंश नाम पहले पहल बलभी के राजा धारसेन द्वितीय के शिलालेख में मिलता है जिसमें उसने अपने पिता गुहसेन (वि० सं० ६५० के पहले) को संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश तीनों का कवि कहा है। भामह (विक्रम ७वीं शती) ने भी तीनों भाषाओं का उल्लेख किया है। बाण ने ‘हर्षचरित’ में संस्कृत कवियों के साथ भाषाकवियों का भी उल्लेख किया है। इस प्रकार अपभ्रंश या प्राकृताभास हिंदी में रचना होने का पता हमें विक्रम की सातवीं शताब्दी में मिलता है। उस काल की रचना के नमूने बौद्धों की वज्रयान शाखा के सिद्धों की कृतियों के बीच मिलते हैं।

Hindi Sahitya ka itihas- acharya shukla  google docs

प्रकरण 2 अपभ्रंश काव्य website

72. आचार्य रामचंद्र शुक्ल द्वारा लिखित और संपादित रचनाओं को, प्रथम प्रकाशन वर्ष के अनुसार, पहले से बाद के क्रम में लगाइए। 

A. रस मीमांसा 

B. गोस्वामी तुलसीदास 

C. जायसी ग्रंथावली 

D. भ्रमरगीत सार 

E. हिंदी साहित्य का इतिहास 

नीचे दिए गए विकल्पों में से सही उत्तर का चयन कीजिए : 

(1) A, C, D, E, B 

(2). B, C, D, A, E 

(3) E, B, C, D, A 

(4) B, C, D, E, A 

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उत्तर – (4) B, C, D, E, A 

A. रस मीमांसा (1949 ई.)

B. गोस्वामी तुलसीदास (1923 ई.)

C. जायसी ग्रंथावली (1924 ई.)

D. भ्रमरगीत सार (1924 ई.)

E. हिंदी साहित्य का इतिहास (1929 ई.))

Acharya Shukla-आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की महत्वपूर्ण रचनाएँ

73. “बिना दुख के सब निस्सार, 

बिना आँसू के जीवन भार, 

दीन दुर्बल है रे, संसार 

इसी से दया, क्षमा औ’ प्यार!” 

यह कवितांश किस कवि द्वारा रचित है? 

(1) सुमित्रा नन्दन पन्त 

(2) मैथिलीशरण गुप्त 

(3) रामधारी सिंह ‘दिनकर’ 

(4) नागार्जुन 

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उत्तर – (1) सुमित्रा नन्दन पन्त 

पल्लव : सुमित्रानंदन पंत

21. परिवर्तन

(१)
कहां आज वह पूर्ण-पुरातन, वह सुवर्ण का काल?
भूतियों का दिगंत-छबि-जाल,
ज्योति-चुम्बित जगती का भाल?

राशि राशि विकसित वसुधा का वह यौवन-विस्तार?
स्वर्ग की सुषमा जब साभार
धरा पर करती थी अभिसार!

…….. …… …. 

(२४)

बिना दुख के सब सुख निस्सार,

बिना आँसू के जीवन भार;

दीन दुर्बल है रे संसार,

इसी से दया, क्षमा औ’ प्यार !

पल्लव : सुमित्रानंदन पंत

74. भारतीय काव्यशास्त्र से संबंधित निम्नलिखित ग्रंथों को, उनके प्रथम प्रकाशन के अनुसार, पहले से बाद के क्रम में लगाइए। 

A. रसगंगाधर 

B. काव्य प्रकाश 

C. काव्यालंकार 

D. ध्वन्यालोक लोचन 

E. साहित्य दर्पण 

नीचे दिए गए विकल्पों में से सही उत्तर का चयन कीजिए: 

(1) A, D, B, E, C 

(2), C, B, D, E, A 

(3) C, D, B, E, A 

(4) B, D, E, A, C 

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उत्तर –  (2), C, B, D, E, A  (इनके रचनाकाल क्रम के अनुसार)

A. रसगंगाधर  –  पंडितराज जगन्नाथ (17वीं शती)।

B. काव्य प्रकाश – (मम्मट (11वीं शती),)

C. काव्यालंकार – भामह द्वारा रचित काव्यालंकार (७वीं शताब्दी)

D. ध्वन्यालोक लोचन – (अभिनव गुप्त (11वीं शती))

E. साहित्य दर्पण – विश्वनाथ (14वीं शती) 

साहित्यदर्पण संस्कृत भाषा में लिखा गया साहित्य विषयक ग्रन्थ है जिसके रचयिता पण्डित विश्वनाथ हैं। विश्वनाथ का समय १४वीं शताब्दी ठहराया जाता है। मम्मट के काव्यप्रकाश के समान ही साहित्यदर्पण भी साहित्यालोचना का एक प्रमुख ग्रन्थ है।

भरत-परवर्ती आचार्यों में सबसे पहले ये तीन आचार्य एक साथ उल्लेख्य हैं भामह, वंडी और उद्मट। इनका समय क्रमशः छठी, सातवीं और नवीं शती ई. है। ये तीनों आचार्य ‘अलंकारवादी’ कहलाते हैं। इनके बाद नवीं शती में वामन हुए। ये रीतिवावी आचार्य हैं। इनके बाद नवीं शती में ही आनन्दवर्धन ने ‘ध्वनि-सिद्धांत’ का प्रवर्तन किया और इनके बाद दसवीं-ग्यारहवीं शती में कुन्तक ने ‘वक्रोक्ति-सिद्धांत’ का। इन सब के अनन्तर ग्यारहवीं शती में क्षेमेन्द्र ने औचित्य-तत्व या ‘औचित्य सिद्धांत’ पर विस्तारपूर्वक प्रकाश डाला।

इनके अतिरिक्त अन्य प्रख्यात आचार्य हैं जिन्होंने किसी नवीन सिद्धांत का प्रवर्तन अथवा प्रतिपादन को नहीं किया, पर पूर्ववर्ती काव्यशास्त्रीय सिद्धांतों एवं मान्यताओं को व्याख्यायित और व्यवस्थित रूप में संग्रहीत किया। ये आचार्य हैं अभिनव गुप्त (11वीं शती), मम्मट (11वीं शती), विश्वनाथ (14वीं शती) और पंडितराज जगन्नाथ (17वीं शती)।

यों तो अन्य भी अनेक उल्लेखनीय काव्याचार्य हैं, जैसे महिमभट्ट, (11वीं शती) जयदेव (13वीं शती) भानुमिश्र (13-14वीं शती) आदि। किंतु, संस्कृत-काव्यशास्त्र के क्षेत्र में उपर्युक्त आचार्यों का योगदान अति महत्वपूर्ण है। तो आइए, इनके नाम एक बार फिर पढ़ ले (1) भरत (रसवादी), (2) भामह, दंडी और उद्भट (अलंकारवादी), (3) वामन (रीतिवादी,), (4) आन्दवर्धन (ध्वनिवादी), (5) कुन्तक (वक्रोक्तिवादी) और (6) क्षेमेन्द्र (औचित्य-तत्व का निरूपक)। इनके अतिरिक्त मम्मट, विश्वनाथ और जगन्नाथ संग्रहकर्ता आचार्य हैं। इस प्रकार भरत से जगन्नाथ पर्यन्त लगभग डेढ़-दो हजार वर्ष तक संस्कृत-काव्यशास्त्र में विभिन्न सिद्धांत प्रवर्तित, प्रतिपादित और खंडित-मंडित होते रहे। जैसा कि आप आगे देखेंगे ये संप्रदाय आपस में, किसी न किसी रूप में जुड़े हुए हैं और ये सभी ‘साहित्य-सिद्धांत’ के अंग हैं।

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75. “अपनपौ आप ही बिसरो। 

जैसे सोनहा काँच मंदिर मैं भरमत भूकि मरो।” 

कबीर की उपर्युक्त पंक्तियों में ‘सोनहा’ शब्द का उचित अर्थ है: 

(1) सोनार 

(2) स्थान का नाम 

(3) कुत्ता 

(4) साँड़ 

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MPPSC सहायक प्राध्यापक परीक्षा-2022 द्वितीय प्रश्न पत्र हिंदी परीक्षा तिथि-09/06/2024-SET-B

उत्तर – (3) कुत्ता