
51. “परबत समुद, अगम बिच, बीहड़ घन बनढाँख ।
किमि कै भेंटों कंत तुम्ह?, ना मोहि पाँव न पाँख।”
यह कवितांश जायसी कृत ‘पद्मावत’ के ‘नागमती वियोग खंड’ में किस मास के वर्णन के अंत में आया है?
(1) सावन
(2) अगहन
(3) भादों
(4) असाढ़
UGCNET-EXAM-SECOND-PAPER-HINDI- परीक्षा तिथि -18/06/2024
उत्तर – (1) सावन
सावन बरिस मेह अति पानी। सरनि भरइ हौं बिरह झुरानी॥
लागु पुनर्बसु पीउ न देखा। भै बाउरि कहँ कंत सरेखा॥
रकत क आँसु परे भुइँ टूटी। रेंगि चली जनु बीर बहूटी॥
सखिन्ह रचा पिउ संग हिँडोला। हरियर भुइँ कुसुंभि तन चोला॥
हिय हिँडोल जस डोले मोरा। बिरह झुलावै देइ झँकोरा॥
बाट असूझ अथाह गँभीरा। जिउ बाउर भा भवै भँभीरा॥
जग जल बूड़ि जहाँ लगि ताकी। मोर नाव खेवक बिनु थाकी॥
परबत समुँद अगम बिच बन बेहड़ घन ढंख।
किमि करि भेटौं कंत तोहि ना मोहि पाँव न पंख॥
सावन में मेघों से ख़ूब पानी बरसता है। भरन पड़ रही है, फिर भी मैं विरह में सूखती हूँ। पुनर्वसु लग गया। क्या प्रियतम ने उसे नहीं देखा? चतुर प्रियतम कहाँ रहे, यह सोच-सोच मैं बावली हो गई। रक्त के आँसू पृथ्वी पर बिखर रहे हैं। वे ही मानों बोर-बहूटियाँ रेंग रही हैं। मेरी सखियों ने अपने प्रियतमों के साथ हिंडोला डाला है। हरी भूमि देखकर उन्होंने अपना तन कुसुम्मी चोले से सजा लिया है। पर मेरा हृदय हिंडोले की तरह ऊपर नीचे हो रहा है। विरह झकोले देकर उसे झुला रहा है। बाट असूझ, अथाह और गंभीर है। मेरा जी बावला हुआ भँभीरी की भाँति घूम रहा है। जहाँ तक देखती हूँ, संसार जल में डूबा है। मेरी नाव खेवक के बिना ठहरी हुई है।
पर्वत, अगम समुद्र, बीहड़ वन और घने ढाक के जंगल मेरे और प्रियतम के बीच में हैं। हे प्यारे, तुमसे कैसे मिलूँ? न मेरे पाँव हैं, न पंख।
स्रोत :
पुस्तक : पदमावत (पृष्ठ 345) रचनाकार : मलिक मोहम्मद जायसी प्रकाशन : लोकभारती प्रकाशन संस्करण : 2007
52. निम्नलिखित कविता संग्रहों को, उनके प्रथम प्रकाशन वर्ष के अनुसार, पहले से बाद के क्रम में लगाइये।
A. सुदामा पांडे का प्रजातंत्र
B. पत्थर फेंकता हूँ
C. चाँद की वर्तनी
D. चाँद का मुँह टेढ़ा है
Ε. नए इलाके में
नीचे दिए गए विकल्पों में से सही उत्तर का चयन कीजिए :
(1) E, A, C, D, B
(2) E, A, D, B
(3) D, A, E, C, B
(4) D, E, C, B, A
UGCNET-EXAM-SECOND-PAPER-HINDI- परीक्षा तिथि -18/06/2024
उत्तर – (3) D, A, E, C, B
निम्नलिखित कविता संग्रहों को, उनके प्रथम प्रकाशन वर्ष के अनुसार, पहले से बाद के क्रम में इस प्रकार लगाया जा सकता है:
D. चाँद का मुँह टेढ़ा है (1964)
A. सुदामा पांडे का प्रजातंत्र (1984)
E. नए इलाके में (1996)
C. चाँद की वर्तनी (2006)
B. पत्थर फेंकता हूँ (2010)
इस प्रकार क्रम होगा: D, A, Ε, C,B
- चाँद का मुँह टेढ़ा है – (कविता संग्रह), 1964, भारतीय ज्ञानपीठ. नई कविता का आत्मसंघर्ष तथा अन्य निबंध (निबंध संग्रह), 1964, विश्वभारती प्रकाशन.
- अरुण कमल- ‘अपनी केवल धार’ (1980) ‘सबूत’ (1989), ‘नए इलाक़े में’ (1996), ‘पुतली में संसार’ (2004), ‘मैं वो शंख महाशंख’ (2013) और ‘योगफल’ (2019) उनके कविता-संग्रह हैं। ‘नए इलाक़े में’ कविता-संग्रह के लिए उन्हें 1998 के साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
- चंद्रकांत देवताले – पत्थर फेंक रहा हूँ हिन्दी के विख्यात साहित्यकार चंद्रकांत देवताले द्वारा रचित एक कविता–संग्रह है जिसके लिये उन्हें सन् 2012 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
- राजेश जोशी-
चाँद की वर्तनी
चाँद लिखने के लिए चा पर चंद्र बिंदु लगाता हूँ
चाँद के ऊपर चाँद धर कर इस तरह
चाँद को दो बार लिखता हूँ
चाँद की एवज़ सिर्फ़ चंद्र बिंदु रख दूँ
तो काम नहीं चलता भाषा का
आधा शब्द में और आधा चित्र में
लिखना पड़ता है उसे हर बार
शब्द में लिखकर जिसे अमूर्त करता हूँ
चंद्र बिंदु बनाकर उसी का चित्र बनाता हूँ
आसमान के सफ़े पर लिखा चाँद
प्रतिपदा से पूर्णिमा तक
हर दिन अपनी वर्तनी बदल लेता है
चंद्र बिंदु बनाकर पूरे पखवाड़े के यात्रा वृत्तांत का
सार संक्षेप बनाता हूँ
जहाँ लिखा होता है चाँद
उसे हमेशा दो बार पढ़ना चाहता हूँ
चाँद
चाँद!
स्रोत :
पुस्तक : प्रतिनिधि कविताएँ (पृष्ठ 140) रचनाकार : राजेश जोशी प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन संस्करण : 2015
53. इनमें से कौन 13 वीं शती में प्रमुख काव्यशास्त्री के रूप में प्रसिद्ध हुए हैं?
(1) जगन्नाथ
(2) कुंतक
(3) मम्मट
(4) जयदेव
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उत्तर – (4) जयदेव
रस-सिद्धांत से संबंधित सामग्री हमें सब से पहले भरत के ‘नाट्यशास्त्र’ में और इसके बाद भरत के परवर्ती प्रायः सभी काव्याचार्यों के ग्रंथों में मिलती है। भरत ने रस के अतिरिक्त अलंकार गुण, रीति, दोष आदि पर भी प्रकाश डाला था, पर बहुत कम।
भरत-परवर्ती आचार्यों में सबसे पहले ये तीन आचार्य एक साथ उल्लेख्य हैं भामह, वंडी और उद्मट। इनका समय क्रमशः छठी, सातवीं और नवीं शती ई. है। ये तीनों आचार्य ‘अलंकारवादी’ कहलाते हैं। इनके बाद नवीं शती में वामन हुए। ये रीतिवावी आचार्य हैं। इनके बाद नवीं शती में ही आनन्दवर्धन ने ‘ध्वनि-सिद्धांत’ का प्रवर्तन किया और इनके बाद दसवीं-ग्यारहवीं शती में कुन्तक ने ‘वक्रोक्ति-सिद्धांत’ का। इन सब के अनन्तर ग्यारहवीं शती में क्षेमेन्द्र ने औचित्य-तत्व या ‘औचित्य सिद्धांत’ पर विस्तारपूर्वक प्रकाश डाला।
इनके अतिरिक्त अन्य प्रख्यात आचार्य हैं जिन्होंने किसी नवीन सिद्धांत का प्रवर्तन अथवा प्रतिपादन को नहीं किया, पर पूर्ववर्ती काव्यशास्त्रीय सिद्धांतों एवं मान्यताओं को व्याख्यायित और व्यवस्थित रूप में संग्रहीत किया। ये आचार्य हैं अभिनव गुप्त (11वीं शती), मम्मट (11वीं शती), विश्वनाथ (14वीं शती) और पंडितराज जगन्नाथ (17वीं शती)।
यों तो अन्य भी अनेक उल्लेखनीय काव्याचार्य हैं, जैसे महिमभट्ट, (11वीं शती) जयदेव (13वीं शती) भानुमिश्र (13-14वीं शती) आदि। किंतु, संस्कृत-काव्यशास्त्र के क्षेत्र में उपर्युक्त आचार्यों का योगदान अति महत्वपूर्ण है। तो आइए, इनके नाम एक बार फिर पढ़ ले (1) भरत (रसवादी), (2) भामह, दंडी और उद्भट (अलंकारवादी), (3) वामन (रीतिवादी,), (4) आन्दवर्धन (ध्वनिवादी), (5) कुन्तक (वक्रोक्तिवादी) और (6) क्षेमेन्द्र (औचित्य-तत्व का निरूपक)। इनके अतिरिक्त मम्मट, विश्वनाथ और जगन्नाथ संग्रहकर्ता आचार्य हैं। इस प्रकार भरत से जगन्नाथ पर्यन्त लगभग डेढ़-दो हजार वर्ष तक संस्कृत-काव्यशास्त्र में विभिन्न सिद्धांत प्रवर्तित, प्रतिपादित और खंडित-मंडित होते रहे। जैसा कि आप आगे देखेंगे ये संप्रदाय आपस में, किसी न किसी रूप में जुड़े हुए हैं और ये सभी ‘साहित्य-सिद्धांत’ के अंग हैं।
अन्य महत्वपूर्ण जानकारी
- जगन्नाथ (१५९०-१६७०), जिन्हें जगन्नाथ पंडिता या जगन्नाथ पंडितराजा या जगन्नाथ पंडिता रायलु के नाम से भी जाना जाता है, १७वीं शताब्दी में रहने वाले कवि, संगीतकार और साहित्यिक आलोचक थे। एक कवि के रूप में, उन्हें भामिनी-विलास (“सुंदर महिला (भामिनी) का खेल”) लिखने के लिए जाना जाता है।
- कुंतक अलंकारशास्त्र के एक मौलिक विचारक विद्वान। ये अभिधावादी आचार्य थे। यद्यपि इनका काल निश्चित रूप से ज्ञात नहीं हैं, किंतु विभिन्न अलंकार ग्रंथों के अंत:साक्ष्य के आधार पर ऐसा समझा जाता है कि कुंतक दसवीं शती ई. के आसपास हुए होंगे।
- मम्मट, मम्मटाचार्य अथवा आचार्य मम्मट संस्कृत काव्य शास्त्र के सर्वश्रेष्ठ विद्वानों में से एक माने गये हैं। मम्मट अपने शास्त्रग्रंथ काव्यप्रकाश के कारण प्रसिद्ध हुए।कश्मीरी पंडितों की परंपरागत प्रसिद्धि के अनुसार वे नैषधीय चरित के रचयिता कवि श्रीहर्ष के मामा थे। उन दिनों कश्मीर विद्या और साहित्य के केंद्र था तथा सभी प्रमुख आचार्यों की शिक्षा एवं विकास इसी स्थान पर हुआ। मम्मट भोजराज के उत्तरवर्ती माने जाते है। इस प्रकार से उनका काल 10वीं सदी का लगभग उत्तरार्ध है। ऐसा विवरण भी मिलता है कि उनकी शिक्षा-दीक्षा वाराणसी में हुई. वे कश्मीरी थे ऐसा उनके नाम से भी पता चलता है लेकिन इसके अतिरिक्त उनके विषय में बहुत कम जानकारी मिलती है।
- जयदेव (अंग्रेज़ी: Jayadeva लगभग 1200 ईस्वी) संस्कृत के महाकवि थे। ये लक्ष्मण सेन शासक के दरबारी कवि थे। वैष्णव भक्त और संत के रूप में जयदेव सम्मानित थे। जयदेव ‘गीतगोविन्द’ और ‘रतिमंजरी’ के रचयिता थे। श्रीमद्भागवत के बाद राधा-कृष्ण लीला की अद्भुत साहित्यिक रचना उनकी कृति ‘गीत गोविन्द’ को माना गया है।
54. ‘सरोज-स्मृति’ कविता की इन पंक्तियों को, कविता में आने के अनुसार, पहले से बाद के क्रम में लगाइए।
A. मैं कवि हूँ, पाया है प्रकाश
B. और भी फलित होगी वह छवि
C. दुख ही जीवन की कथा रही
D. धन्ये, मैं पिता निरर्थक था
Ε. तेरा वह जीवन-सिन्धु-तरण
नीचे दिए गए विकल्पों में से सही हत्तर का चयन कीजिए:
(1) C, D, E, A, B
(2) BA, D, E, C
(3) E, A, D, B, C
(4) D, B, A, E, C
UGCNET-EXAM-SECOND-PAPER-HINDI- परीक्षा तिथि -18/06/2024
उत्तर – (3) E, A, D, B, C
A. मैं कवि हूँ, पाया है प्रकाश Page No 01.2
B. और भी फलित होगी वह छवि, Page No 3
C. दु:ख ही जीवन की कथा रही, Page No. 14
D. धन्ये, मैं पिता निरर्थक था, Page No. 02
E. तेरा वह जीवन-सिंधु-तरण; Page No. 01.1
सरोज-स्मृति
सूर्यकांत त्रिपाठी निराला
ऊनविंश पर जो प्रथम चरण
तेरा वह जीवन-सिंधु-तरण; Page No. 01.1
तनय, ली कर दृक्-पात तरुण
जनक से जन्म की विदा अरुण!
गीते मेरी, तज रूप-नाम
वर लिया अमर शाश्वत विराम
पूरे कर शुचितर सपर्याय
जीवन के अष्टादशाध्याय,
चढ़ मृत्यु-तरणि पर तूर्ण-चरण
कह—“पितः, पूर्ण आलोक वरण
करती हूँ मैं, यह नहीं मरण,
‘सरोज’ का ज्योतिःशरण—तरण—
अशब्द अधरों का, सुना, भाष,
मैं कवि हूँ, पाया है प्रकाश Page No 01.2
मैंने कुछ अहरह रह निर्भर
ज्योतिस्तरणा के चरणों पर।
जीवित-कविते, शत-शर-जर्जर
छोड़कर पिता को पृथ्वी पर
तू गई स्वर्ग, क्या यह विचार—
“जब पिता करेंगे मार्ग पार
यह, अक्षम अति, तब मैं सक्षम,
तारूँगी कर गह दुस्तर तम?”
कहता तेरा प्रयाण सविनय,—
कोई न अन्य था भावोदय।
श्रावण-नभ का स्तब्धांधकार
शुक्ला प्रथमा, कर गई पार!
धन्ये, मैं पिता निरर्थक था, Page No. 02
कुछ भी तेरे हित न कर सका।
55. ‘राजनीति साहित्य नहीं है। उसमें एक-एक क्षण का महत्व है। कभी एक क्षण के लिए भी चूक जायें, तो बहुत बड़ा अनिष्ट हो सकता है।’ – यह संवाद किस नाटक और किस चरित्र का है?
नाटक और चरित्र के सही युग्म का चयन कीजिए।
(1) आषाढ़ का एक दिन प्रियंगु
(2). चन्द्रगुप्त राक्षस
(3) स्कंदगुप्त बंधुवर्मा
(4) महाभोज दा साहब
UGCNET-EXAM-SECOND-PAPER-HINDI- परीक्षा तिथि -18/06/2024
उत्तर – (1) आषाढ़ का एक दिन प्रियंगु
मोहन राकेश आषाढ़ का एक दिन नाटक
…..
मल्लिका : कालिदास की।
प्रियंगु की भौंहें कुछ संकुचित हो जाती हैं।
प्रियंगु : अब वे मातृगुप्त के नाम से जाने जाते हैं। यहाँ भी उनकी रचनाएँ मिल जाती हैं?
मल्लिका : ये प्रतियाँ मैंने उज्जयिनी से आनेवाले व्यवसायियों से प्राप्त की हैं।
प्रियंगुमंजरी के होंठों पर हलकी व्यंग्यात्मक मुस्कराहट प्रकट होती है।
प्रियंगु : मैं समझ सकती हूँ। उनसे जान चुकी हूँ कि तुम बचपन से उनकी संगिनी रही हो। उनकी रचनाओं के प्रति तुम्हारा मोह स्वाभाविक है।
जैसे कुछ सोचती-सी छत की ओर देखने लगती है।
वे भी जब-तब यहाँ के जीवन की चर्चा करते हुए आत्म-विस्मृत हो जाते हैं। इसीलिए राजनीतिक कार्यों से कई बार उनका मन उखड़ने लगता है।
फिर उसकी आँखें मल्लिका के मुख पर स्थिर हो जाती हैं।
ऐसे अवसरों पर उनके मन को संतुलित रखने के लिए बहुत प्रयत्न करना पड़ता है। राजनीति साहित्य नहीं है। उसमें एक-एक क्षण का महत्त्व है। कभी एक क्षण के लिए भी चूक जाएँ, तो बहुत बड़ा अनिष्ट हो सकता है। राजनीतिक जीवन की धुरी में बने रहने के लिए व्यक्ति को बहुत जागरूक रहना पड़ता है।… साहित्य उनके जीवन का पहला चरण था। अब वे दूसरे चरण में पहुँच चुके हैं। मेरा अधिक समय इसी आयास में बीतता है कि उनका बढ़ा हुआ चरण पीछे न हट जाए।… बहुत परिश्रम करना पड़ता है इसमें।
मुस्कराने का प्रयत्न करती है।
तुम ऐसा नहीं समझतीं ?
मल्लिका : मैं राजनीतिक जीवन के संबंध में कुछ भी नहीं जानती।
…. … …
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