UGCNET-EXAM-SECOND-PAPER-HINDI- परीक्षा तिथि -18/06/2024 Q.111-115


111. सूची-1 के साथ सूची-II का मिलान कोहिए 

नीचे दिए गए विकल्पों में से सही उत्तर का चयन कीजिए: 

(1) A-IV, B-I, C-III, D-II 

(2) A-III, B-IV, C-IL, D-1 

(3) A-IV, B-III, C-1, D-II 

(4) A-IL, B-III, C-IV, D-I 

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उत्तर – (1) A-IV, B-I, C-III, D-II 

112. ‘भारत भारती’ के ‘वर्तमान खण्ड’ के उपखण्डों के शीर्षक हैं: 

A. भारतवर्ष की श्रेष्ठता 

B. कृषि और कृषक 

C. रईसों के सपूत 

D. शुभकामना 

E. धर्म की दशा 

नीचे दिए गए विकल्पों में से सही उत्तर का चयन कीजिए: 

(1) केवल A, B और C 

(2) केवल B, C और D 

(3). केवल B, C और E 

(4) केवल A, C और E 

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उत्तर – (3). केवल B, C और E 

A. भारतवर्ष की श्रेष्ठता 

B. कृषि और कृषक –  Yes

C. रईसों के सपूत –  Yes

D. शुभकामना 

E. धर्म की दशा –  Yes

Source : भारत-भारती : मैथिलीशरण गुप्त

113. सूची-1 के साथ सूची-11 का मिलान कीजिए: 

नीचे दिए गए विकल्पों में से सही उत्तर का चयन कीजिए: 

(1), A-II, B-I, C-IV, D-III 

(3) A-1, B-II, C-III, D-IV 

(2) A-IIL B-IL C-IV, D-4 

(4) A-IV. B-IL C-L D-III 

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उत्तर – (1), A-II, B-I, C-IV, D-III 

B. यशपाल I. मनुष्य के रूप

D. गुलशेर खां शानी -सांप और सीढ़ी

A. इलाचंद्र जोशीII. निबोसित

  • इलाचंद्र जोशी – उपन्यास—’लज्जा’, ‘संन्यासी’, ‘पर्दे की रानी’, ‘प्रेत और छाया’, ‘निर्वासित’, ‘मुक्तिपथ’, ‘सुबह के भूले’, ‘जिप्सी’, ‘जहाज़ का पंछी’, ‘भूत का भविष्य’, ‘ऋतुचक्र’;
  • यशपाल -‘मनुष्य के रूप’ सन् १९४९ में लिखित यशपाल जी का पाँचवा उपन्यास है। इसमें उन्होंने प्रेम को केन्द्र – बिंदु बनाकर मनुष्य के अनेक रूपों को उद्घाटित किया है। दुर्भाग्यवश दोनों पुलिस द्वारा पकड़े जाते हैं। पुलिस धनसिंह को हवालात में बन्द करती है तथा सोमा को अपनी वासना – पूर्ति का साधन बनाती है।

114. सूत्री 1 के साथ सूची 11 का मिलान कीजिए। 

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उत्तर –  (4) A-IV, BI, C-II, D-III 

सूची-1 सूची-II

(लेखक) (एकांकी)

A. भारत भूषण अग्रवाल -IV. पलायन

B. कमलेश्वर – I. लहर लौट गयी

C. विष्णु प्रभाकर -II. मैं तुम्हें क्षमा नहीं करूँगा

D. उदयशंकर भट्ट – आदिम युग

115. बंगाल क्लब की साहित्य गोष्ठी के लिए शरत् चंद्र च‌ट्टोपाध्याय ने कौन सी रचना लिखी थी ? 

(1) पण्डित जी 

(2) नारी का इतिहास 

(3) कaशीनाथ 

(4) परिणीता 

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उत्तर –  (2) नारी का इतिहास 


……. .. .  .. 

‘मन्दिर’ गल्प पर पारितोषिक मिलने पर भी उसने अपने को प्रकट नहीं किया। ‘बड़ी दीदी’ के छपने पर भी नहीं किया। रवीन्द्रनाथ की भूरि-भूरि प्रशंसा पाकर भी वह अन्धकार में छिपा रहा। लेकिन निश्चय ही कुछ ऐसा हो चुका था जिसने न केवल उसके जीवन को ही बदल दिया बल्कि भारतीय साहित्य की धारा को भी नया मोड़ दिया। जन-मन को अभिभूत कर देने वाली एक जीवन्त सृजनात्मक शक्ति, मानव की अभिज्ञता को रूप देने वाला एक महान लोकप्रिय कथाशिल्पी ! क्या सचमुच उसका जन्म हुआ होता यदि सौरीन्द्रमोहन ने ‘भारती’ में ‘बड़ी दीदी’ को प्रकाशित न कर दिया होता ? यह कल्पना करना कठिन नहीं है कि यदि ऐसा न होता तो अपने को छिपाने की प्रवृत्ति में सिद्धहस्त शरत् की प्रतिभा रंगून के एकाउंटेंट जनरल के दफ्तर की फाइलों में ही दफन होकर रह जाती। अपने को छिपाने की इस प्रवृत्ति का कारण उपर्युक्त पत्र में ढूंढ़ा जा सकता है। कुछ और लोगों ने भी नाना रूपों में इसका विश्लेषण किया है। हिन्दी के सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री इलाचन्द्र जोशी ने, जो कलकत्ता में कई वर्ष उनके सम्पर्क में रहे, लिखा है, “ऐसा जान पड़ता है कि साहित्य-समाज में अपरिचित और अज्ञात बने रहने में उसे एक विचित्र प्रकार के सुख का अनुभव होता था। उसके अन्तर में कुछ ऐसी ग्रन्थियां थीं कि जिनके कारण वह अपने जीवनकाल में ख्याति का सामना करने से कतराता था। और लिखता इसलिए चला जाता था कि उसकी मृत्यु के बाद उनका प्रकाशन हो। तब एक स्वर्गीय लेखक की रचनाओं के भीतर से बोलने वाली महान आत्मा समस्त लेखकों पर हावी हो जाए।”

शायद इसीलिए लिखना उसका किसी दिन नहीं रुका। धीमी गति से वह निरन्तर चलता रहा। फिर भी उसके बर्मा के साथियों में बहुत कम लोग जानते थे कि शरत् सचमुच एक सुन्दर लेखक है। यह रहस्य प्रकट हुआ उसके एक निबन्ध से जो उसने ‘बंगाल क्लब’ की ‘साहित्य गोष्ठी’ के लिए लिखा था। इस क्लब की स्थापना बंगाल सोशल क्लब’ से अलग हो जाने वाले कुछ सदस्यों ने की थी।

1

18 मार्च, 1913 ई०

98 / आवारा मसीहा

इसकी गोष्ठियों में कविता, कहानी तथा विभिन्न विषयों पर प्रबन्ध पढ़े जाते थे। उन पर चर्चा होती थी। शरत् वाक्पटु तो था ही। आलोचना करने में आगे रहता। तब कई बार मित्रों ने उससे कहा, “इतना बोलते हो तो स्वयं क्यों नहीं लिखते ?”

उसने उत्तर दिया, “मैं लिखना नहीं जानता, बहुत कम पढ़ा-लिखा हूं।”

वही झूठ, वही अपने को छिपाने की प्रवृत्ति। लेकिन एक दिन जब नारी चरित्र को लेकर उस गोष्ठी में तुमुल तर्कयुद्ध मच उठा, तब अनेक विद्वानों की पुस्तकों से उद्धरण पर उद्धरण देकर उसने सबको चकित कर दिया। यहीं पर वह फंस गया। मित्रों ने कहा, “तुम तो कहते थे कि बहुत कम पढ़े-लिखे हो। इतना ज्ञान बिना पढ़े कैसे हो सकता है? अगली बार तुम्हें निबन्ध लिखना होगा।”

बचने का कोई मार्ग शेष नहीं रहा था। उसी समय यह घोषणा कर दी गई कि ‘नारी के सामाजिक जीवन पर यौन प्रभाव’ विषय को लेकर आगामी बैठक में शरत् एक निबन्ध पढ़ेगा। शीर्षक होगा- ‘नारी का इतिहास ।’

इस स्वीकृति के बाद सदस्यों में, विशेषकर युवकों में उत्साह की जैसे कोई सीमा न रही। बड़ी उत्सुकता से वे उस दिन की राह देखने लगे। निश्चित दिन और निश्चित समय पर वह सभा आरम्भ हुई। विषय की रोचकता के अनुरूप उस दिन काफी भीड़ थी। लेकिन वक्ता शरत् कहीं नहीं दिखाई दे रहा था। समय बीतने लगा, भीड़ में व्यग्रता भी बढ़ने लगी। सभापति कुर्सी पर बैठे-बैठे थक गए। आखिर यह निश्चय किया गया कि दो सदस्य शरत् को बुलाने के लिए उसके घर रवाना हों और इस बीच में उ‌द्बोधन संगीत के साथ सभा का कार्य आरम्भ कर दिया जाए।

खूब वर्षा हो रही थी। योगन्द्रनाथ सरकार एक अन्य सदस्य के साथ डेढ़ मील की यात्रा पर निकले लेकिन जब घर पहुंचे तो पाया कि शरत् वहां भी नहीं है। बहुत पुकारने पर एक व्यक्ति बाहर आया। सरकार ने कहा, “क्या शरत् अन्दर नहीं है ?”

उस व्यक्ति ने पूछा, “आप कौन हैं, और कहां से आए हैं ?”

सरकार ने कहा, “हम बंगाल क्लब से आए हैं। आज शरत् को वहां पूरी बात सुने बिना वह व्यक्ति अन्दर चला गया। दोनों सदस्य चकित रह गए, लेकिन वे कुछ करते इससे पूर्व ही वह व्यक्ति फिर बाहर आया। उसके हाथ में नत्थी किए हुए कागज़ों का एक ढेर था। सरकार को वे कागज देते हुए उसने कहा, “बाबू विशेष काम से बाहर चले गए हैं, सभा में नहीं आ सकेंगे। मुझे ये कागज़ देने को कह गए हैं।”

प्रबन्ध का रूप देखते ही वे दोनों सदस्य घबरा गए। छोटे-छोटे अक्षरों में लिखा हुआ मानो वह महाभारत ही था। लौटकर उन्होंने सभा में इस बात की सूचना दी। निश्चय हुआ कि यदि शरत् बाबू नहीं आ सके हैं तो उनका यह निबन्ध पढ़ा जाए। लेकिन पढ़े कौन? अक्षर यद्यपि सुन्दर थे फिर भी इतने छोटे थे, और कागज़ इतने अधिक थे कि उनको पढ़ने के लिए कोई भी राज़ी नहीं हो सका। अन्त में यह भार योगेन्द्रनाथ सरकार को ही उठाना पड़ा।

सुना गया कि शरत् ने निबन्ध इसी शर्त पर लिखा था कि वह स्वयं उसे नहीं पढ़ेगा, वह पढ़ ही नहीं सकता था। राशि-राशि कोटेशनों से भरे हुए उस निबन्ध को पढ़ने में योगेन्द्र को पूरे दो घण्टे लगे। लेकिन जब वह निबन्ध पूर्ण हुआ तो सभा स्तब्ध थी। भाषा ऐसी ललित, शैली ऐसी मोहक, विषयवस्तु का निरूपण ऐसा सहज और तर्कसम्मत, ऐसा मौलिक और गंभीर कि सबने मुक्तकण्ठ से उसकी प्रशंसा की। उसकी बचपन की रचना ‘बड़ी दीदी’ प्रकाशित हो चुकी थी, लेकिन उसकी सहज प्रतिभा और प्रौढ़ रचनाकौशल का वास्तविक परिचय पहली बार ही प्रकट हुआ।

उसके चित्र देखते-देखते एक दिन योगेन्द्रनाथ ने एक पाण्डुलिपि खोज निकाली थी। मोटे मेलट की कापी पर मोतियों जैसे अक्षरों में आठ-नौ अध्याय लिखे हुए थे। नाम था ‘चरित्रहीन’। पढ़ना शुरू किया तो छोड़ते न बना। रवीन्द्रनाथ के ‘गोरा’ को छोड़कर ऐसी सुन्दर रचना उन्होंने नहीं पढ़ी थी। अभी कुछ दिन पहले ही तो उसका प्रकाशन हुआ था।

1. सन् 1910 ई०

दिशा की खोज / 99

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