Pratyaksha Praman – प्रत्यक्ष  प्रमाण-Part-05-सारांश

तत्त्वचिन्तन की प्रक्रिया में प्रमाणमीमांसा का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान है क्योंकि प्रमाणों की सहायता से ही प्रमेयो (तत्त्वों) का ज्ञान सम्भव होता है। दर्शनसरणियो में यह प्रसिद्ध उक्ति भी है – मानाधीना मेयसिद्धि अर्थात् मेय (प्रमेय) की सिद्धि मान (प्रमाण) के अधीन होती है। प्रमा या यथार्थज्ञान की उपलब्धि किसी साधन की सहायता से ही होती है इसलिए सामान्य रूप से प्रमा की उपलब्धि के साधन ही प्रमाण कहलाते हैं।

न्याय-वैशेषिक दर्शन में बुद्धि को गुण माना गया है। तर्कसंग्रहकार आचार्य अन्नम्भट्ट बुद्धि का लक्षण करते है- सर्वव्यवहारहेतुर्बुद्धिः ज्ञानम् अर्थात् समस्त व्यवहार के असाधारण कारणरूप गुण को ज्ञान अर्थात् बुद्धि कहते हैं। अभिप्राय यह है ज्ञानरूप बुद्धि से सभी प्राणियों का प्रवृत्ति, निवृत्ति, आहार-विहार आदि सभी प्रकार का व्यवहार होता है। बुद्धि के भेदो का निरूपण करते हुए आचार्य कहते है कि बुद्धि दो प्रकार कि

होती है- (1) स्मृति तथा (2) अनुभव। संस्कार मात्र से जन्य उत्पन्न ज्ञान को स्मृति कहते हैं। स्मृति से अतिरिक्त सभी प्रकार के ज्ञान अनुभव कहलाते हैं। अनुभव दो प्रकार का होता है – (1) यथार्थ अनुभव (2) अयथार्थ अनुभव।

कोई भी पदार्थ जिस स्वरूप या स्वभाव का होता है उसको उसी स्वरूप या स्वभाव के रूप से जानना ही यथार्थ अनुभव कहलाता है। यथार्थानुभव को ही न्याय वैशेषिक दर्शन में ‘प्रमा’ कहा जाता है। प्रत्यक्ष, अनुमिति, उपगिति और शाब्द के भेद से यथार्थानुभव चार प्रकार का होता है। कोई भी पदार्थ जिस स्वरूप या स्वभाव का होता है उसको उसी स्वरूप या स्वभाव के रूप से न जानना ही अयथार्थ अनुभव कहलाता है।

न्याय-वैशेषिक दर्शन में असाधारण कारण को करण कहते हैं। किसी भी कार्य के प्रति जो व्यापार का सम्पादक मुख्य असाधारण कारण है, वही करण माना जाता है। ‘कार्यनियतपूर्ववृत्ति कारणम्’ जो कार्य का नियत पूर्ववर्ती हो उसे कारण कहते हैं। कार्यनियत में नियत का अर्थ है निश्चित रूप से, वृत्ति का अर्थ रहना और पूर्वशब्द, काल का वाचक है। इस प्रकार लक्षण हुआ जो कार्य उत्पन्न होता है, उरासे ठीक पहले निश्चित रूप से जो विद्यमान हो, उसे कारण कहते हैं। कारण के तीन भेद है समवायिकारण, असमवायिकारण और निमित्तकारण।

प्रत्यक्षज्ञान का जो असाधारण कारण है, उसे प्रत्यक्ष कहते हैं। इन्द्रिय और अर्थ (विषय) का सन्निकर्ष प्रत्यक्ष ज्ञान का हेतु है। ज्ञानेन्द्रियों की सख्या 5 है चक्षु, श्रोत्र, त्वक, रसना एव घ्राण। प्रत्येक ज्ञानेन्द्रिय नियत विषय का ही ग्रहण करती है जैसे चक्षु रूप का, श्रोत्र शब्द का, त्वक् स्पर्श का, रसना रस का तथा घ्राण गन्ध का। जब कोई इन्द्रिय अपने नियत विषय के साथ संयुक्त होती है तो उस सन्निकर्ष से उत्पन्न ज्ञान को ही प्रत्यक्ष कहते हैं। प्रत्यक्ष दो प्रकार का होता है – (1) निर्विकल्पक प्रत्यक्ष, (2) सविकल्पक प्रत्यक्ष

किसी ज्ञान में प्रतीत होने वाले नाम, जाति, गुण आदि को ही विकल्प कहा जाता है। जिस ज्ञान मे नाम, जाति इत्यादि की प्रतीति नहीं हुआ करती है वही निर्विकल्पक ज्ञान कहलाता है। जो ज्ञान नाम, जाति आदि प्रकार से युक्त होता है उसे सविकल्पक ज्ञान कहते हैं। आशय यह है कि जिस ज्ञान में विशेषण, विशेष्य तथा उनके मध्य के सम्बन्ध की प्रतीति होती है उसे ही सविकल्पक ज्ञान कहा जाता है। इन्द्रिय और अर्थ (विषय) का सन्निकर्ष प्रत्यक्ष ज्ञान का हेतु है। इन्द्रिय एवं अर्थ के मध्य होने वाला यह सन्निकर्ष 6 प्रकार का होता है (1) सयोग, (2) सयुक्तसमवाय, (3) सयुक्तसमवेतसमवाय, (4) समवाय, (5) समवेत समवाय, (6) विशेषणविशेष्यभाव ।

चक्षु इन्द्रिय से घट आदि द्रव्य के प्रत्यक्षज्ञान में संयोग नामक सन्निकर्ष होता है। चक्षु इन्द्रिय से घट के रूप का प्रत्यक्ष होने में संयुक्त रामवाय-रान्निकर्ष होता है। चक्षु से रूपत्व जाति के प्रत्यक्ष में संयुक्त-समवेत-समवाय-सन्निकर्ष माना जाता है। श्रोत्रेन्द्रिय से शब्द नामक गुण के प्रत्यक्ष ज्ञान में समवाय नामक सन्निकर्ष होता है। श्रोत्रेन्द्रिय से शब्दत्त्व जाति के प्रत्यक्ष में समवेत्तसमवाय सन्निकर्ष होता है। अभाव के प्रत्यक्षज्ञान में विशेषण-विशेष्यभाव सन्निकर्ष माना जाता है। छः सन्निकर्षो से होने वाला ज्ञान ही प्रत्यक्षज्ञान है। एतादृश प्रत्यक्ष ज्ञान के प्रति व्यापार वाला असाधारण कारण छ. प्रकार की इन्द्रिय ही प्रत्यक्ष प्रमाण है।

होती है- (1) स्मृति तथा (2) अनुभव। संस्कार मात्र से जन्य उत्पन्न ज्ञान को स्मृति कहते हैं। स्मृति से अतिरिक्त सभी प्रकार के ज्ञान अनुभव कहलाते हैं। अनुभव दो प्रकार का होता है – (1) यथार्थ अनुभव (2) अयथार्थ अनुभव।

कोई भी पदार्थ जिस स्वरूप या स्वभाव का होता है उसको उसी स्वरूप या स्वभाव के रूप से जानना ही यथार्थ अनुभव कहलाता है। यथार्थानुभव को ही न्याय वैशेषिक दर्शन में ‘प्रमा’ कहा जाता है। प्रत्यक्ष, अनुमिति, उपगिति और शाब्द के भेद से यथार्थानुभव चार प्रकार का होता है। कोई भी पदार्थ जिस स्वरूप या स्वभाव का होता है उसको उसी स्वरूप या स्वभाव के रूप से न जानना ही अयथार्थ अनुभव कहलाता है।

न्याय-वैशेषिक दर्शन में असाधारण कारण को करण कहते हैं। किसी भी कार्य के प्रति जो व्यापार का सम्पादक मुख्य असाधारण कारण है, वही करण माना जाता है। ‘कार्यनियतपूर्ववृत्ति कारणम्’ जो कार्य का नियत पूर्ववर्ती हो उसे कारण कहते हैं। कार्यनियत में नियत का अर्थ है निश्चित रूप से, वृत्ति का अर्थ रहना और पूर्वशब्द, काल का वाचक है। इस प्रकार लक्षण हुआ जो कार्य उत्पन्न होता है, उरासे ठीक पहले निश्चित रूप से जो विद्यमान हो, उसे कारण कहते हैं। कारण के तीन भेद है समवायिकारण, असमवायिकारण और निमित्तकारण।

प्रत्यक्षज्ञान का जो असाधारण कारण है, उसे प्रत्यक्ष कहते हैं। इन्द्रिय और अर्थ (विषय) का सन्निकर्ष प्रत्यक्ष ज्ञान का हेतु है। ज्ञानेन्द्रियों की सख्या 5 है चक्षु, श्रोत्र, त्वक, रसना एव घ्राण। प्रत्येक ज्ञानेन्द्रिय नियत विषय का ही ग्रहण करती है जैसे चक्षु रूप का, श्रोत्र शब्द का, त्वक् स्पर्श का, रसना रस का तथा घ्राण गन्ध का। जब कोई इन्द्रिय अपने नियत विषय के साथ संयुक्त होती है तो उस सन्निकर्ष से उत्पन्न ज्ञान को ही प्रत्यक्ष कहते हैं। प्रत्यक्ष दो प्रकार का होता है – (1) निर्विकल्पक प्रत्यक्ष, (2) सविकल्पक प्रत्यक्ष

किसी ज्ञान में प्रतीत होने वाले नाम, जाति, गुण आदि को ही विकल्प कहा जाता है। जिस ज्ञान मे नाम, जाति इत्यादि की प्रतीति नहीं हुआ करती है वही निर्विकल्पक ज्ञान कहलाता है। जो ज्ञान नाम, जाति आदि प्रकार से युक्त होता है उसे सविकल्पक ज्ञान कहते हैं। आशय यह है कि जिस ज्ञान में विशेषण, विशेष्य तथा उनके मध्य के सम्बन्ध की प्रतीति होती है उसे ही सविकल्पक ज्ञान कहा जाता है। इन्द्रिय और अर्थ (विषय) का सन्निकर्ष प्रत्यक्ष ज्ञान का हेतु है। इन्द्रिय एवं अर्थ के मध्य होने वाला यह सन्निकर्ष 6 प्रकार का होता है (1) सयोग, (2) सयुक्तसमवाय, (3) सयुक्तसमवेतसमवाय, (4) समवाय, (5) समवेत समवाय, (6) विशेषणविशेष्यभाव ।

चक्षु इन्द्रिय से घट आदि द्रव्य के प्रत्यक्षज्ञान में संयोग नामक सन्निकर्ष होता है। चक्षु इन्द्रिय से घट के रूप का प्रत्यक्ष होने में संयुक्त रामवाय-रान्निकर्ष होता है। चक्षु से रूपत्व जाति के प्रत्यक्ष में संयुक्त-समवेत-समवाय-सन्निकर्ष माना जाता है। श्रोत्रेन्द्रिय से शब्द नामक गुण के प्रत्यक्ष ज्ञान में समवाय नामक सन्निकर्ष होता है। श्रोत्रेन्द्रिय से शब्दत्त्व जाति के प्रत्यक्ष में समवेत्तसमवाय सन्निकर्ष होता है। अभाव के प्रत्यक्षज्ञान में विशेषण-विशेष्यभाव सन्निकर्ष माना जाता है। छः सन्निकर्षो से होने वाला ज्ञान ही प्रत्यक्षज्ञान है। एतादृश प्रत्यक्ष ज्ञान के प्रति व्यापार वाला असाधारण कारण छ. प्रकार की इन्द्रिय ही प्रत्यक्ष प्रमाण है।