अनुभव प्रमाण
अनुभव दो प्रकार का होता है – (1) यथार्थ अनुभव, (2) अयथार्थ अनुभव
यथार्थ अनुभव का लक्षण करते हुए आचार्य कहते हैं ‘तद्वति तत्प्रकारको ऽनुभव यथार्थः जिसमें जो है, वहाँ उसी प्रकार का जो अनुभव होता है, उसे यथार्थानुभव कहते है। आशय यह है कि कोई भी पदार्थ जिस स्वरूप या स्वभाव का होता है उसको उसी स्वरूप या स्वभाव के रूप से जानना ही यथार्थ अनुभव कहलाता है। जैसे- रजत में यह रजत है’ इस प्रकार का ज्ञान यथार्थानुभव है। इसी यथार्थज्ञान को ‘प्रमा’ कहा जाता है। न्याय-वैशेषिक दर्शन की ज्ञानमीमांसा के अनुसार जब भी हमे कोई विशिष्ट ज्ञान होता है तो उस ज्ञान में तीन प्रकार की विषयता रहती है – (1) प्रकारता या विशेषणता, (2) विशेष्यता, (3) संसर्गत्ता या सम्बन्ध। उदाहरण रूप में ‘अयं रक्तो घटः’ (यह लाल घड़ा है) यह एक विशिष्ट ज्ञान है। इस ज्ञान में रक्त वर्ण’, घट का विशेषण या प्रकार है अत. यह ज्ञान रक्तत्व प्रकारक’ ज्ञान है। इसी ज्ञान में ‘घट’ विशेष्य है क्योंकि वही रक्त वर्ण से विशिष्ट है, अतः यह ज्ञान घटत्व विशेष्यक’ भी है। विशेष्यभूत घट में प्रकारभूत रक्त वर्ण समवाय सम्बन्ध से रहता है क्योंकि रक्तवर्ण एक गुण है तथा घट एक द्रव्य (गुणी) है एवं न्याय-वैशेषिक दर्शन के नियमानुसार गुण-गुणी के मध्य समवाय सम्बन्ध होता है; अत. ‘अयं रक्तो घटः’ यह ज्ञान समवाय ससर्गक’ है। इस प्रकार ‘अय रक्तो घट का अर्थ है- ‘रक्तत्यप्रकारक-समवायससर्गक घटविशेष्यक ज्ञान। अब यथार्थानुभव के लक्षण का रागन्वय इस प्रकार होगा तदति घटत्ववति (घटत्व से युक्त), तत्प्रकारक घटत्वप्रकारक (घटत्व है प्रकार जिरागे), अनुभव यथार्थानुभवः। अर्थात् घट में जो घटत्व है, वही ‘अयं घटः’ इस ज्ञान में प्रकारतया भासित हो रही है, इसलिए यह यथार्थानुभव या प्रमा है।
अयथार्थ अनुभव का लक्षण है ‘तदभाववति तत्प्रकारकोऽनुभवोऽयथार्थः। जिसमें जो नही है, वहाँ उसके होने का जो अनुभव है, उसे अयथार्थ अनुभव कहते हैं। आशय यह है कि कोई भी पदार्थ जिस स्वरूप या स्वभाव का होता है उसको उसी स्वरूप या स्वभाव के रूप से न जानना ही अयथार्थ अनुभव कहलाता है। जैसे रज्जु मे यह सर्प है’ इस प्रकार का ज्ञान अयथार्थानुभव है। अयथार्थानुभव को अप्रमा भी कहते हैं। यथार्थानुभव के लक्षण का समन्वय इस प्रकार होगा तदभाववति सर्पत्वाभाववति (सर्पत्व के अभाव वाली), तत्प्रकारक सर्पत्वप्रकारक (सर्पत्व है प्रकार जिसमे), अनुभवः (ज्ञान) अयथार्थानुभव है। अर्थात् रज्जु में सर्पत्व का अत्यन्ताभाव है किन्तु वही रज्जु को देखकर होने वाले ‘अयं सर्पः’ इस ज्ञान में प्रकारतया भासित हो रही है, इसलिए यह अयथार्थानुभव या अप्रगा है।
विशेष : न्यायवैशेषिक दर्शन के अनुसार यथार्थानुभव (प्रमा) की उत्पत्ति गुणसहकृत प्रमाण’ से होती है तथा अयथार्थानुभव (अप्रमा) की उत्पत्ति दोषसहकृत प्रमाण’ से होती है। यथार्थानुभव – प्रत्यक्ष, अनुमिति, उपमिति एवं शाब्द के भेद से चार प्रकार का होता है तथा अयथार्थानुभव संशय, विपर्यय एवं तर्क के भेद से तीन प्रकार का होता है।
यथार्थानुभश्चतुर्विधः प्रत्यक्षाऽनुमित्युपमितिशाब्दभेदात्। तत्करणमपि चतुर्विध
प्रत्यक्षाऽनुमानोपमानशब्दभेदात् ।
व्याख्या: तर्कसंग्रहकार आचार्य अन्नमभट्ट ने यथार्थानुभव का निरूपण इस प्रकार से किया है – तद्वति तत्प्रकारकोऽनुभवः यथार्थः जिसमें जो है, वहाँ उसी प्रकार का जो अनुभव होता है, उसे यथार्थानुभव कहते है। प्रत्यक्ष, अनुमिति, उपमिति और शाब्द के भेद से यथार्थानुभव चार प्रकार का होता है। इन चारों ज्ञान के करण भी क्रमशः चार प्रकार के होते हैं – प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और शब्द।
विशेष : यथार्थानुभव को ही न्याय-वैशेषिक दर्शन में प्रमा’ कहा जाता है। प्रगा के करण (असाधारण कारण) को ही ‘प्रमाण’ कहते हैं। वैशेषिक दर्शन में 2 प्रमाण स्वीकृत हैं- प्रत्यक्ष तथा अनुमान जबकि न्यायदर्शन 4 प्रमाण स्वीकार करता है- प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान तथा शब्द। तर्कसंग्रह’ न्याय वैशेषिक समन्वयवादी परम्परा का एक प्रकरण ग्रन्थ है जिसमे वैशेषिक दर्शन की पदार्थमीमांसा के साथ न्यायदर्शन की प्रमाणमीमासा का विवेचन किया गया है।
असाधारण कारण करणम्। कार्यनियतपूर्ववृत्ति कारणम्। कार्य प्रागभावप्रतियोगि ।
व्याख्या : असाधारण कारण को करण कहते हैं। किसी भी कार्य के प्रति जो व्यापार का सम्पादक मुख्य असाधारण कारण है, वही करण माना जाता है। महर्षि पाणिनि के अष्टाध्यायी ग्रन्थ में करण का लक्षण किया है साधकतम करणम्’ अर्थात् साधकतम को करण कहते हैं। साधकतम पद में निविष्ट तमप् प्रत्यय अतिशय अर्थ का वाचक है, अत. करण वह है जो किसी कार्य का अतिशयेन साधक हो। किसी कार्य के प्रकृष्ट या सर्वोत्कृष्ट कारण को ही करण कहते है।
कार्य कारण के सम्बन्ध में यह हमारा व्यावहारिक अनुभव है कि किसी भी कार्य की उत्पत्ति में अनेक कारणों की आवश्यकता होती है। कोई भी कार्य किसी एक ही कारण रो जन्य नहीं होता है। वे कारण जिनकी अपेक्षा प्रत्येक कार्य में हुआ करती है वे राभी साधारण कारण’ कहलाते हैं। इन साधारण कारणों के अतिरिक्त जितने भी कारण किसी कार्य की उत्पत्ति में अपेक्षित होते हैं, उन्हें असाधारण कारण’ कहते हैं। असाधारण कारणों में से जो कारण प्रकृष्ट अर्थात् अतिशययुक्त होता है उसे ही करण कहा जाता है। प्राचीन न्याय में इस अतिशयता को व्यापार’ कहा जाता है तथा करण का लक्षण – व्यापारवत् असाधारण कारण करणम्’ किया जाता है। इसका अर्थ है कि व्यापार द्वारा जो किसी कार्य का असाधारण कारण बनता है, वही उस कार्य का करण होता है। व्यापार का लक्षण है तज्जन्यत्वे सति तज्जन्यजनक’ अर्थात् जो हेतु से उत्पन्न होकर कार्य का जनक हो, वह व्यापार कहलाता है। जैसे घट नामक कार्य की उत्पत्ति में कपालद्वयसयोग’ व्यापार है क्योंकि यह दण्डादि कारणो से उत्पन्न होकर उसी दण्डादि कारण से उत्पन्न घटरूपकार्य का जनक होता है। कपालद्रयसयोगरूप व्यापार के द्वारा ही दण्ड, चक्र आदि घट की उत्पत्ति में असाधारण कारण बनते हुए ‘करण’ कहलाते हैं। नव्यनैयायिक इस परिभाषा से असहमत हैं तथा उनकी करण की परिभाषा है – फलायोगव्यवच्छिन्न कारणं करणम्‘ अर्थात् कार्य से निश्चित रूप से और तुरन्त पहले रहने वाला वह कारण जिसके तुरन्त बाद कार्य की उत्पत्ति हो जाती है, वह ‘करण’ कहलाता है।
करण का लक्षण करते समय कारण पद का प्रयोग हुआ था, अतः अब आचार्य कारण का लक्षण कर रहे है कार्यनियतपूर्ववृत्ति कारणम्। जो कार्य का नियत पूर्ववर्ती हो उसे कारण कहते हैं। कार्यनियत में नियत का अर्थ है निश्चित रूप से, वृत्ति का अर्थ रहना और पूर्वशब्द, काल का वाचक है। इस प्रकार लक्षण हुआ जो कार्य उत्पन्न होता है, उससे ठीक पहले निश्चित रूप से जो विद्यमान हो, उसे कारण कहते हैं।
कारण के लक्षण में प्रयुक्त नियत’ पद का अर्थ अवश्यंभावी है। तात्पर्य यह है कि कभी-कभी कोई पदार्थ किसी कार्य की उत्पत्ति से पूर्व कार्यस्थल पर उपस्थित हो जाता है, इससे वह कार्य का पूर्ववृत्ति तो हो जाता है किन्तु उसे उस कार्य का कारण नहीं कहा जा सकता है क्योकि उसे उस कार्य का कारण बनने के लिए कार्य नियत’ (कार्य का व्यापक) होना चाहिए। यथा घटनिर्माण के समय यदि कोई रासभ वहाँ उपस्थित हो जाए तो पूर्ववृत्ति होने के कारण उसे भी घटोत्पत्ति का कारण मानना पड़ेगा किन्तु राराभ को घट का कारण नहीं माना जाता है। इसी अतिव्याप्ति को रोकने के लिए कारण के लक्षण में ‘नियत’ पद का प्रयोग किया गया है। कारण के लक्षण में प्रयुक्त पूर्वभाव पद का अर्थ कार्योत्पत्ति के अव्यवहित पूर्वक्षण में रहना है। ‘अव्यवहित पूर्वक्षण का अर्थ है कार्योत्पत्ति का वह पूर्वक्षण, जिराके ठीक उत्तरक्षण में कार्य की उत्पत्ति हो जाती है।
कार्य का लक्षण करते हुए आचार्य कहते हैं ‘कार्य प्रागभाव प्रतियोगि’ अर्थात् प्रागभाव के प्रतियोगी को कार्य कहते हैं। कार्य की उत्पत्ति के पहले रहने वाले अभाव को प्रागभाव कहते हैं। जब कार्य उत्पन्न होता है तो वह अपने अभाव को दूर कर देता है इसीलिए उसे प्रागभाव का प्रतियोगी कहा जाता है।
विशेष : न्यायदर्शन में कार्योत्पत्ति के अव्यवहित पूर्वक्षण को ‘सामग्रीक्षण’ भी कहा जाता है। सामग्री का अर्थ है कार्योत्पत्ति के समग्र कारणों का उपस्थित होना। न्याय-वैशेषिक मत में ‘प्रतियोगि’ एक प्रकार का सम्बन्ध है जिसकी कल्पना अभाव पदार्थ की भाव पदार्थ के साथ सम्बन्ध स्थापित करने के लिए की जाती है। भाव पदार्थों का अभाव के साथ सम्बन्ध ही प्रतियोगिता कहलाती है। जैसे घट घटाभाव का प्रतियोगि है।
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