MPPSC सहायक प्राध्यापक परीक्षा हिंदी-SET-B Q.N.11-15


11. “महान रचनाकार निर्वैक्तिक होता है। कविता भाव की उन्मुक्त अभिव्यक्ति नहीं है, वह भाव से मुक्ति है। वह व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति नहीं, व्यक्तित्व से मुक्ति है किंतु निश्चय ही जिनमें व्यक्तित्व और भाव हैं, वे ही यह जान सकते हैं कि उनसे मुक्ति की आकांक्षा का अर्थ क्या होता है।” उक्त कथन किसका है ?

(A) अरस्तू

(B) लोंजाइनस

(C) टी.एस. इलियट

(D) कॉलरिज

MPPSC सहायक प्राध्यापक परीक्षा द्वितीय प्रश्न पत्र हिंदी परीक्षा तिथि-09/06/2024-SET-B

उत्तर – (C) टी.एस. इलियट

Uses of impersonality of TS Eliots poetry

▸ Eliot (1976) says “Poetry is not a turning loose of emotion, but an escape from emotion; it is not the expression of personality, but an escape from personality. But, of course, only those who have personality and emotions know what it means to want to escape from these things.” Eliot criticizes the romantic poets for being engrossed in subjectivity in their poems. As a matter of fact, Eliot could not escape being completely impersonal in his poetry, though he emphasizes the importance of impersonality in poetry. Ellmann (1987) argues that T. S. Eliot and Ezra Pound advocate impersonality, but they often smuggle their personality back into their poetics. He adds that Eliot insists that poetry originates in personal emotion and that the poet’s subjectivity pervades the text.

(टीएस एलियट की कविता में अवैयक्तिकता का उपयोग

▸ एलियट (1976) कहते हैं, “कविता भावनाओं को मुक्त करना नहीं है, बल्कि भावनाओं से पलायन है; यह व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति नहीं है, बल्कि व्यक्तित्व से पलायन है। लेकिन, निश्चित रूप से, केवल वे ही जानते हैं जिनके पास व्यक्तित्व और भावनाएँ हैं, इन चीज़ों से बचने की इच्छा का क्या मतलब है।” एलियट रोमांटिक कवियों की आलोचना करते हैं, क्योंकि वे अपनी कविताओं में व्यक्तिपरकता में डूबे रहते हैं। वास्तव में, एलियट अपनी कविता में पूरी तरह से अवैयक्तिक होने से बच नहीं पाए, हालाँकि वे कविता में अवैयक्तिकता के महत्व पर ज़ोर देते हैं। एलमैन (1987) का तर्क है कि टी.एस. एलियट और एज्रा पाउंड अवैयक्तिकता की वकालत करते हैं, लेकिन वे अक्सर अपने व्यक्तित्व को अपनी कविताओं में वापस ले आते हैं। वे आगे कहते हैं कि एलियट इस बात पर ज़ोर देते हैं कि कविता व्यक्तिगत भावना से उत्पन्न होती है और कवि की व्यक्तिपरकता पाठ में व्याप्त होती है। )

12. अरस्तू की काव्यशास्त्र सम्बन्धी कृति है

(A) वसीयतनामा

(B) पेरि पोइतिकेस

(C) तेखनेस रितोरिकेस

(D) उपरोक्त में से कोई नहीं

MPPSC सहायक प्राध्यापक परीक्षा द्वितीय प्रश्न पत्र हिंदी परीक्षा तिथि-09/06/2024-SET-B

उत्तर – (D) उपरोक्त में से कोई नहीं

LATO’S ‘TESTAMENT TO ARISTOTLE’. By A. J. ARBERRY (1905-69) ye unke dwara likhi hui lagti nahi. vaise 

अरस्तू का सक्षिप्त परिचय

अरस्तू (Aristotle) का जन्म मकदूनिया के स्तगिरा नामक नगर में 384 ई. पू. में हुआ था। उनके पिता सिकंदर के पितामह अर्मितास के दरबार में चिकित्सक थे। प्रतिष्ठित परिवार में जन्में अरस्तू बाल्यकाल से ही अत्यंत मेधावी और कुशाग्र बुद्धि के थे। शुरू से ही वे दार्शनिक स्वभाव के थे। वे प्रसिद्ध दार्शनिक प्लेटो के परमप्रिय शिष्य थे; जिन्हें प्लेटो अपने विद्यापीठ का मस्तिष्क भी कहा करते थे। उन्हें सिकंदर महान का गुरु होने का भी गौरव प्राप्त है। प्रचलित ज्ञान-विज्ञान के लगभग सभी क्षेत्रों पर उनका समान अधिकार था। अरस्तू ने एथेन्स के समीप ‘अपोलो’ नामक स्थान पर ‘लीसियसज् नाम से अपना एक निजी विद्यापीठ स्थापित भी किया था। यही कारण है कि अरस्तू को पाश्चात्य ज्ञान-विज्ञान की विधाओं का आदि आचार्य माना जाता है। उनके दो ग्रंथों से उन्हें दुनिया में ख्याति मिली।

पहला ‘तेखनेस रितेरिकेस‘ जो भाषण कला से सम्बन्धित है। इसका अनुवाद ‘भाषण कला’ (Rhetoric) किया गया।

दूसरा ‘पेरिपोइतिकेस’ जो काव्यशास्त्र से सम्बन्धित है। जिसका अनुवाद ‘काव्यशास्त्र’ (poetics) किया गया। यद्यपि ‘काव्यशास्त्र’ का यह ग्रंथ वृहत् ग्रंथ न होकर एक छोटी-सी पुस्तिका के रूप में है, जिसमें सीधे कोई व्यवस्थित व्याख्यायित शास्त्रीय सिद्धांत निरूपण नहीं है। बल्कि ऐसा लगता है कि इस ग्रंथ में उनके द्वारा अपने विद्यापीठ में पढ़ाने के लिए तैयार की गई पाठ्य सामग्री है। जिन्हें उनके शिष्यों ने संगृहीत कर दिया होगा। लेकिन कुल मिलाकर यह एक अत्यंत महत्वपूर्ण संदर्भ ग्रंथ बनकर हम सबके सामने है।

‘काव्यशास्त्र’ की रचना के मूल में अरस्तू के दो उद्देश्य रहे हैं-

एक तो अपनी दृष्टि से यूनानी काव्य का वस्तुगत विवेचन-विश्लेषण-निरूपण और दूसरा अपने गुरु प्लेटो द्वारा काव्य पर किये गये आक्षेपों का समाधान करना। अरस्तू ने जिन काव्यशास्त्रीय सिद्धांतों का प्रतिपादन किया, उनमें से तीन सिद्धांत विशेष महत्व रखते हैं-

1) अनुकरण सिद्धांत

2)त्रासदी-विवेचन

3) विरेचन सिद्धांत

अपने 61 वर्ष के जीवनकाल में अरस्तू ने तर्कशास्त्र, तत्वमीमांसा, मनोविज्ञान, राजनीतिशास्त्र, आचार-शास्त्र, भौतिकशास्त्र, ज्योतिर्विज्ञान, तथा साहित्यशास्त्र जैसे विषयों पर लगभग 400 ग्रन्थों की रचना की थी।

eGyankosh Source : https://egyankosh.ac.in/bitstream/123456789/72234/1/Unit-2.pdf

13. ‘विशिष्ट पद रचना रीतिः’ सूत्र किस आचार्य का है ?

(A) वामन

(B) दण्डी

(C) राजशेखर

(D) मम्मट

MPPSC सहायक प्राध्यापक परीक्षा द्वितीय प्रश्न पत्र हिंदी परीक्षा तिथि-09/06/2024-SET-B

उत्तर – (A) वामन

Source : इकाई 10 रीति सम्प्रदाय : अवधारणा एवं आयाम

14. औचित्य को काव्यात्मभूत काव्य सिद्धांत के रूप में प्रतिष्ठित करने वाले आचार्य है

(A) कुंतक

(B) भामह

(C) क्षेमेन्द्र

(D) विश्वनाथ

MPPSC सहायक प्राध्यापक परीक्षा द्वितीय प्रश्न पत्र हिंदी परीक्षा तिथि-09/06/2024-SET-B

उत्तर – (C) क्षेमेन्द्र

आचार्य क्षेमेन्द्र ने काव्य रचना में छंद, अलंकार, रस आदि सभी तत्वों के औचित्य को स्वीकारा है। अनुचित अलंकार प्रयोग, अनुचित रीति, अनुचित रस एवं अर्थ, ये सभी काव्य के सौष्ठव को नष्ट कर देते हैं। अतः आचार्य क्षेमेन्द्र ने औचित्य मत का प्रतिपादन करने के साथ ही उसे काव्य की आत्मा भी स्वीकारा।

आचार्य क्षेमेन्द्र ने माना कि रस सिद्ध काव्य की स्थिरता औचित्य तत्व पर ही निर्भर करती है अतः औचित्य ही प्राण है जब शरीर में प्राण है तभी अलंकार आदि की शोभा होगी, तभी रस का संचार हो सकता है, किन्तु प्राणों से रहित होने पर कोई भी विशेषता नहीं रह जाती है। अतः मूल तत्व औचित्य है जिससे काव्य में विविध गुणों एवं चमत्कार का विकास होता है।

यह औचित्य का सिद्धांत अत्यंत सरल और स्प्ष्ट है। सामान्य अनुभव के अनुसार इसे संयोजन का भाव भी कहा जा सकता है क्योंकि जब तक 

किसी वस्तु में उसके सब अंग उचित रूप से संयुक्त नहीं होंगे, तब तक उसमें पूर्णता नहीं आ सकती। एकत्व की प्रतिष्ठा नहीं हो सकती।

इस एकत्व के विचार से औचित्य का सिद्धांत इसीलिए भी महत्वपूर्ण है कि इस सिद्धांत का प्रयोग तो किसी भी वस्तु के उसके अपने सब अंगों के सम्बन्धों का परीक्षण करने तथा उस वस्तु के साथ अन्य वस्तुओं के पारस्परिक परीक्षण के लिए भी किया जाता है। अतः औचित्य का प्रधान तत्व गुण है अर्थात् कवि को, प्रत्येक तत्व के उचित प्रयोग का ध्यान रखना चाहिए।

eGyankosh Source :  इकाई 13 औचित्य सम्प्रदाय : अवधारणा एवं स्वरूप

15. भरतमुनि के अनुसार ‘वीभत्स रस’ का स्थायी भाव है

(A) भय

(B) जुगुप्सा

(C) विस्मय

(D) उत्साह

MPPSC सहायक प्राध्यापक परीक्षा द्वितीय प्रश्न पत्र हिंदी परीक्षा तिथि-09/06/2024-SET-B

उत्तर – (B) जुगुप्सा


 विभत्स रस

1) विभत्स रस लक्षणः वीभत्स रस का स्थायी भाव जुगुप्सा होता है। जुगुप्सा स्थायी भाव ही जाग्रत होकर विभत्स रस का रूप धारण कर लेता है।

2) विभत्स की उत्पत्ति किसी नाटक में अथवा वर्तमान जीवन में जब कोइ व्यक्ति सडा मांस वमन विष्ठा कीटादि युक्त वस्तु तथ दुर्गन्धित स्थान आदि अवांछित वस्तुओं स्थानों आदि को देखता है। गंध, रस स्पर्श शब्द आदि के दोषों से युक्त वस्तु व्यक्ति अथवा स्थान (जैसे दुर्गन्धयुक्त वस्तु व्यक्ति, स्थान) आदि को देखता है अथवा इसी प्रकार के अनेक निकृष्ट एवं उत्तेजक पदार्थों के सम्पर्क में आता है, तब वीभत्स रस समुत्पन्न होता है। इस प्रकार यह वीभत्स रस कष्टप्रद, अप्रिय एवं अनिष्ट पदार्थो के दर्शन, श्रवण, स्पर्शन एवं कथन द्वारा उत्पन्न होता है।

विभत्स रस में :-

दुर्गन्धित वस्तु स्थान आदि आलम्बन विभाव ।

निकृष्ट वस्तु व्यक्ति स्थान के प्रति घृणा – अनुभाव ।

उद्वेग, आवेग, श‌ङ्का आदि – व्यभिचारी भाव है।

इनके संयोग से जुगुप्सा नामक स्थायी भाव ाव जाग्रत जाग्रत हो हो जाता जाता है है तो तो वह वह वीभत्स वीभत्स रस का रुप धारण केर लेता है। EPEOPLE’S

3) वीभत्स रस का अभिनय भरत मुनि का कथन है कि रंगमंच पर वीभत्स रस का अभिनय निम्न रीति से करना चाहिए। नाटक में नट नटी आदि पात्रों द्वारा अपने मुख एवं नेत्रों को बार-बार घुमाते हुए नाक को हाथवस्त्र आदि द्वारा ढकते हुए / मुख को नीचे झुका देने के द्वारा तथा लड़खड़ाते हुए कदमों द्वारा चलते हुए / वीभत्स रस का अभिनय करना चाहिए। इसी प्रकार शरीर के समस्त अंगों को संकुचित करना, मुख सिकोडना उबकाई लेना थूकना तथा शरीर को ताडित करना आदि कार्यों द्वारा भी वीभत्स रस का अभिनय करना चाहिये।

Source eGyankosh : https://egyankosh.ac.in/bitstream/123456789/95026/1/Unit-9.pdf