MPPSC-सहा.-प्राध्यापक परीक्षा-2022-हिंदी-SET-B Q.N.06-10


6. पंत की काव्य-कृतियों का प्रकाशन की दृष्टि से सही क्रम कौन-सा है ?

(A) पल्लव, गुंजन, युगांत, ग्राम्या, लोकायतन

(B) पल्लव, गुंजन, ग्राम्या, युगांत, लोकायतन

(C) पल्लव, ग्राम्या, गुंजन, युगांत, लोकायतन

(D) पल्लव, लोकायतन, गुंजन, ग्राम्या, युगांत

MPPSC सहायक प्राध्यापक परीक्षा द्वितीय प्रश्न पत्र हिंदी परीक्षा तिथि-09/06/2024-SET-B

उत्तर –  (A) पल्लव, गुंजन, युगांत, ग्राम्या, लोकायतन

 ‘पल्लव’ (1928 ई०), ‘गुंजन’ (1932 ई०), ‘युगान्त’ (1936 ई०),  ‘ग्राम्या’ 1940 ई0),’लोकायतन’ (महाकाव्य, 1964 ई०)।

पंत : एक परिचय

सुमित्रानंदन पंत ‘छायावाद’ के एक प्रमुख स्तंभ है। जयशंकर प्रसाद, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला और महादेवी वर्मा इस काव्य-धारा के प्रमुख कवियों में से हैं। ये ‘छायावाद’ के प्रतिनिधि कवि हैं। ‘छायावाद’ के प्रतिनिधि कवि होने के बावजूद सुमित्रानंदन पंत का अपना विशिष्ट व्यक्तित्व है और उनका काव्य अपने आप में अनूठा है। इकाई के इस भाग में हम कवि पंत के जीवन और साहित्य का संक्षेप में उल्लेख करने जा रहे हैं।

जीवन यात्रा

सुमित्रानंदन पंत का जन्म 20 मई, 1900 ई0 के दिन कौसानी ग्राम में हुआ था। उनके पिता श्री गंगादत्त पंत एक सुशिक्षित व्यक्ति थे। पंत जी के जन्म के समय ही उनकी माता सरस्वती देवी का देहान्त हो गया और उनका पालन-पोषण दादी ने किया। पंत जी ने लिखा “आँखें मूंदकर जब अपने किशोर जीवन की छायावीथी में प्रवेश करता हूँ, तो पहाड़ी का घर, छोटा सा आंगन पलकों में नाचने लगता है….. चबूतरे पर बैठा मैं पढ़ता हूँ और….. गोरी बूढ़ी दादी की गोद में सिर रखकर, साँझ के समय, दन्तकथाएं और देवी-देवताओं की आरती के गीत सुनता हूँ”।

पंत जी का जन्म प्राकृतिक सौन्दर्य के बीच हुआ। इस सौन्दर्य ने कवि के मन पर अमिट छाप छोड़ी। पंत की आरंभिक कविताएं इसी सौन्दर्य का प्रस्फुटन है।

पंत जी के बचपन का नाम “गोसाई दत्त” रखा गया। बड़े होने पर पंत जी ने यह नाम छोड़ अपना नाम सुमित्रानंदन पंत रख लिया। आरंभिक शिक्षा कौसानी में हुई और 1910 में वे अल्मोड़ा चले गए। यहीं उन्होंने अपनी कविताएं लिखनी शुरू कीं। यहां उन्होंने हिंदी कविता और संस्कृत काव्य शास्त्र का अध्ययन आरंभ किया। उन पर मदन मोहन मालवीय, रामकृष्ण परमहंस, विवेकानन्द आदि के सांस्कृतिक नवजागरण का प्रभाव पड़ा। उनकी कविताओं पर हरिऔध, मुकुटधर पाण्डेय और पैथिलीशरण गुप्त का प्रभाव पड़ा। उन्होंने कालिदास, रवीन्द्रनाथ और पश्चिम के स्वच्छन्दतावादी कवियों का अध्ययन किया। हाई स्कूल उत्तीर्ण कर वे प्रयाग गए। प्रयाग उनकी काव्य-साधना का प्रमुख केन्द्र वना। सन् 1921 में गांधीजी के आह्वान पर उन्होंने कॉलेज छोड़ दिया। लेकिन उन्होंने सीधे-सीधे स्वतंत्रता संग्राम में हिस्सा नहीं लिया। वे काव्य-साधना में लीन हो गए।

काव्य यात्रा

सुमित्रानंदन पंत 1916 से लेकर 1977 तक लगातार साहित्य सृजन करते रहे। प्रमुख रूप से उन्होंने कविताएं ही लिखीं। आरंभ में उन्होंने “हार” नामक उपन्यास लिखा था। इसमें उन्होंने भाग्यहीन तथा पीड़ित जनता का चित्रण किया है। कविता में यह पीड़ा थोड़ी देर बाद व्यक्त हुई।

सुमित्रानंदन पंत की प्रकाशित रचनाएं इस प्रकार है “उच्छवास” (1920 ई०), “ग्रन्थि” (1920 ई०), “वीणा” (1927 ई०), ‘पल्लव’ (1928 ई०), ‘गुंजन’ (1932 ई०), ‘युगान्त’ (1936 ई०), ‘युगवाणी’ (1939 ई0), ‘ग्राम्या’

1940 ई0), ‘स्वर्ण किरण’ (1947 ई0), ‘स्वर्ण धूलि’ (1947 ई०), ‘युगपथ’ (1948 ई०), ‘उत्तरा’ (1949 ई०), ( ‘रजत शिखर’ (रूपक 1951 ई०), ‘शिल्पी’ (रूपक, 1952 ई०), ‘अतिमा’ (1955 ई०), ‘वाणी’ (1957 ई0). ‘सौवर्ण’ (रूपक 1957 ई0), ‘कला और बूढ़ा चाँद’ (1959 ई0), नाटक ‘ज्योत्सना’ (1934 ई0), कहानी- ‘पांच कहानियां’ (1936 ई०), समीक्षात्मक गद्य ‘गद्यपय’ (1949 ई०), आत्मकथा-‘साठ वर्ष-एक रेखांकन’ (1960 ई0), ‘संचयन ‘आधुनिक कवि’ (1941 ई0), ‘पल्लविनी’ (1951 ई0), ‘रश्मि बन्ध’ (1958 ई०), ‘चिदंबरा’ (1959 ई०), अनुवाद-‘मधुज्वाल।’ (1938 ई०), ‘लोकायतन’ (महाकाव्य, 1964 ई०)।

इसके बाद ‘किरण वीणा’, ‘पुरूषोत्तम राम’, ‘पौ फटने के पहले’, ‘गीत हंस’, ‘पतझर’, ‘एकभाव क्रांति’, ‘शंख ध्वनि, (1971 ई०), ‘शशि की तरी’, ‘समाधिता’, ‘आस्था’, ‘सत्यकाम’, ‘संक्रांति’ और ‘गीत-अगीत’ (1977 ई0) काव्य संग्रह प्रकाशित हुए।

Source eGyankosh : https://egyankosh.ac.in/bitstream/123456789/28307/1/Unit-36.pdf

7. कवि और उसकी कृति की दृष्टि से कौन-सा युग्म सुमेलित नहीं है ?

(A) माखनलाल चतुर्वेदी – हिम किरीटिनी

(B) बाल कृष्ण शर्मा ‘नवीन’ – उर्मिला

(C) नरेन्द्र शर्मा –  प्रवासी के गीत

(D) सुभद्रा कुमारी चौहान – अपराजिता

MPPSC सहायक प्राध्यापक परीक्षा द्वितीय प्रश्न पत्र हिंदी परीक्षा तिथि-09/06/2024-SET-B

उत्तर – (D) सुभद्रा कुमारी चौहान – अपराजिता

रामेश्वर छायावाद युग के उत्तरार्ध के कवि हैं। बाद में इन्होंने मार्क्सवादी तथा प्रगतिशील कविताएं भी लिखीं। इनकी भाषा में नए विशेषण और नए उपमान प्रयुक्त हुए हैं। मुख्य कविता-संग्रह हैं : ‘मधुलिका, ‘अपराजिता, ‘किरण बेला, ‘वर्षांत के बादल और ‘विराम चिन्ह। Source : 

https://hi.wikipedia.org/wiki/रामेश्वर_शुक्ल_%27अंचल%27#:~:text=रामेश्वर%20छायावाद%20युग%20के%20उत्तरार्ध,के%20बादल%20और%20%27विराम%20चिन्ह।

8. प्रगतिवाद के संदर्भ में कौन-सा कथन सही नहीं है ?

(A) प्रगतिवाद साहित्य को सोद्देश्य मानता है।

(B) मार्क्सवादी चिन्तकों ने सैद्धान्तिक स्तर पर साहित्य में प्रचार का समर्थन किया है।

(C) प्रगतिवादी साहित्य का बड़ा हिस्सा प्रचार बन कर रह गया।

(D) प्रगतिवाद ने सौन्दर्य को नए दृष्टिकोन से देखा ।

MPPSC सहायक प्राध्यापक परीक्षा द्वितीय प्रश्न पत्र हिंदी परीक्षा तिथि-09/06/2024-SET-B

उत्तर – (C) प्रगतिवादी साहित्य का बड़ा हिस्सा प्रचार बन कर रह गया।

अंग्रेजी में जिसे ” प्रोग्रेसिव लिटरेचर ” कहते हैं और और हिंदी साहित्य में इसे ” प्रगतिशील साहित्य ” नाम दिया गया है। हिंदी में प्रगतिशील के साथ-साथ प्रगतिवाद का भी प्रयोग हुआ है। गैर प्रगतिशील लेखकों ने उस साहित्य को जो मार्क्सवादी सौंदर्यशास्त्र के अनुसार लिखा गया है प्रगतिवाद नाम दिया है। 1936 से 42 तक एक विशेष प्रकार की काव्यधारा प्रचलित रही, जिसे प्रगतिवाद का नाम दिया गया। ” प्रगति” का शाब्दिक अर्थ है गति उच्च गति या उन्नति।

इस साहित्य के विषय में प्रायः सभी ने इस धारणा को स्वीकार किया है कि प्रगतिवादी साहित्य मार्क्सवादी चिंतन से प्रेरित साहित्य है, जो पूंजीवादी शोषण और अन्याय के विरुद्ध विद्रोह जगाकर वर्गहीन समाज की स्थापना में विकास रखता है। पूंजीपतियों के विरुद्ध विद्रोह और क्रांति की प्रेरणा फूँकना, करुणा, यथार्थता, निष्ठा और अभिव्यक्ति की सादगी और सार्थकता प्रगतिवादी साहित्य की विशेषता है।

डाॅ. नगेन्द्र’ के अनुसार – ‘‘हिन्दी साहित्य में ‘प्रयोगवाद’ नाम उन कविताओं के लिये रूढ़ हो गया है, जो कुछ नये भाव बोधों, संवेदनाओं तथा उन्हें प्रेषित करने वाले शिल्पगत चमत्कारों को लेकर शुरू-शुरू में ‘तार-सप्तक’ के माध्यम से सन् 1943 ई. में प्रकाशन जगत् में आयी और जो प्रगतिशील कविताओं के साथ विकसित होती गयीं तथा जिनका पर्यवसान (समापन) नयी कविता में हो गया।

Source : https://www.drishtiias.com/hindi/mains-practice-question/question-3020

Drishtiias 

प्रगतिवाद

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9. ‘तारसप्तक’ की भूमिका के आधार पर ‘तारसप्तक’ में शामिल कवियों के संदर्भ में कौन-सा कथन सही नहीं है ?

(A) योजना का मूल आधार सहयोग था ।

(B) कविता को प्रयोग का विषय मानते थे ।

(C) उनका दावा था कि काव्य का सत्य उन्होंने पा लिया है।

(D) वे अपने को उन्वेषी मानते थे ।

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उत्तर –

तार सप्तकः दूसरे संस्करण की भूमिका / अज्ञेय

तार सप्तक का प्रकाशन सन् 1943 में हुआ था। दूसरे संस्करण की भूमिका सन् 1963 में लिखी जा रही है। बीस वर्ष की एक पीढ़ी मानी जाती है। वयमेव याताः के अनिवार्य नियम के अधीन सप्तक के सहयोगी, जो 1943 के प्रयोगी थे, सन् 1963 के सन्दर्भ हो गये हैं। दिक्कालजीवी को इसे नियति मान कर ग्रहण करना चाहिए, पर प्रयोगशील कवि के बुनियादी पैंतरे में ही कुछ ऐसी बात थी कि अपने को इस नये रूप में स्वीकार करना उसके लिए कठिन हो। बूढ़े सभी होते हैं, लेकिन बुढ़ापा किस पर कैसा बैठता है यह इस पर निर्भर रहता है कि उसका अपने जीवन से, अपने अतीत और वर्तमान से (और अपने भविष्य से भी क्यों नहीं?) कैसा सम्बन्ध रहता है। हमारी धारणा है कि तार सप्तक ने जिन विविध नयी प्रवृत्तियों को संकेतित किया था उनमें एक यह भी रही कि कवि का युग-सम्बन्ध सदा के लिए बदल गया था। इस बात को ठीक ऐसे ही सब कवियों ने सचेत रूप से अनुभव किया था, यह कहना झूठ होगा; बल्कि अधिक सम्भव यही है कि एक स्पष्ट, सुचिन्तित विचार के रूप में यह बात किसी भी कवि के सामने न आयी हो। लेकिन इतना असन्दिग्ध है कि सभी कवि अपने को अपने समय से एक नये ढंग से बाँध रहे थे। उत्पत्स्यते तु मम कोऽपि समानधर्मा वाला पैंतरा न किसी कवि के लिए सम्भव रहा था, न किसी को स्वीकार्य था। सभी सबसे पहले समाजजीवी मानव प्राणी थे और समानधर्मा का अर्थ उनके लिए कवि-धर्मा से पहले मानवधर्मा था। यह भेद किया जा सकता है कि कुछ के लिए आधुनिकधर्मा होने का आग्रह पहले था और अपनी मानवधर्मिता को वह आधुनिकता से अलग नहीं देख सकते थे, और दूसरे कुछ ऐसे थे जिनके लिए आधुनिकता मानवधर्मिता का एक आनुषंगिक पहलू अथवा परिणाम था।

सप्तक के कवियों का विकास अपनी-अपनी अलग दिशा में हुआ है। सर्जनशील प्रतिभा का धर्म है कि वह व्यक्तित्व ओढ़ती है। सृष्टियाँ जितनी भिन्न होती हैं स्रष्टा उससे कुछ कम विशिष्ट नहीं होते, बल्कि उनके व्यक्तित्व की विशिष्टताएँ ही उनकी रचना में प्रतिबिम्बित होती हैं। यह बात उन पर भी लागू होती है जिनकी रचना प्रबल वैचारिक आग्रह लिये रहती है जब तक कि वह रचना है, निरा वैचारिक आग्रह नहीं है। कोरे वैचारिक आग्रह में अवश्य ऐसी एकरूपता हो सकती है कि उसमें व्यक्तियों को पहचानना कठिन हो जाये। जैसे शिल्पाश्रयी काव्य पर रीति हावी हो सकती है, वैसे ही मताग्रह पर भी रीति हावी हो सकती है। सप्तक के कवियों के साथ ऐसा नहीं हुआ, संपादक की दृष्टि में यह उनकी अलग-अलग सफलता (या कि स्वस्थता) का प्रमाण है। स्वयं कवियों की राय इससे भिन्न भी हो सकती है- वे जानें।

इन बीस वर्षों में सातों कवियों की परस्पर अवस्थिति में विशेष अन्तर नहीं आया है। तब की सम्भावनाएँ अब की उपलब्धियों में परिणत हो गयी हैं- सभी बोधिसत्त्व अब बुद्ध हो गये हैं। पर इन सात नये ध्यानी बुद्धों के परस्पर सम्बन्धों में विशेष अन्तर नहीं आया है। अब भी उनके बारे में उतनी ही सचाई के साथ कहा जा सकता है कि उनमें मतैक्य नहीं है, सभी महत्त्वपूर्ण विषयों पर उनकी राय अलग-अलग है-जीवन के विषय में, समाज और धर्म, राजनीति के विषय में, काव्य-वस्तु और शैली के, छन्द और तुक के, कवि के दायित्वों के-प्रत्येक विषय में उनका आपस में मतभेद है। और यह बात भी उतनी ही सच है कि वे सब परस्पर एक-दूसरे पर, दूसरे की रुचियों, कृतियों और आशाओं-विश्वासों पर और यहाँ तक कि एक-दूसरे के मित्रों और कुत्तों पर भी हँसते हैं। (सिवा इसके कि इन पंक्तियों को लिखते समय संपादक को जहाँ तक ज्ञान है कुत्ता किसी कवि के पास नहीं है, और हँसी की पहले की सहजता में कभी कुछ व्यंग्य या विद्रूप का भाव भी आ जाता होगा!)।

ऐसी परिस्थिति में ऐसा बहुत कम है जो निरपवाद रूप से सभी कवियों के बारे में कहा जा सकता है। ये मनके इतने भिन्न हैं कि सबको किसी एक सूत्र में गूँथने का प्रयास व्यर्थ ही होगा। कदाचित् एक बात-मात्रा-भेद की गुंजाइश रख कर सबके बारे में कही जा सकती है। सभी चकित हैं कि तार सप्तक ने समकालीन काव्य-इतिहास में अपना स्थान बना लिया है। प्रायः सभी ने यह स्वीकार भी कर लिया है। अपने कार्य का या प्रगति का, मूल्यांकन जो भी जैसा भी कर रहा हो, जिसकी वर्तमान प्रवृत्ति जो हो, सभी ने यह स्थिति लगभग स्वीकार कर ली है कि उन्हें नगर के चौक में खम्भे से, या मील के पत्थर से, बाँध कर नमूना बनाया जाये: यह देखो और इससे शिक्षा ग्रहण करो ! कम से कम एक कवि का मुखर भाव ऐसा है, और कदाचित् दूसरों के मन में भी अव्यक्त रूप में हो, कि अच्छा होता अगर मान लिया जा सकता कि वह तार सप्तक में संग्रहीत था ही नहीं। इतिहास अपने चरित्रों या कठपुतलों को इसकी स्वतन्त्रता नहीं देता कि वे स्वयं अपने को न हुआ मान लें। फिर भी मन का ऐसा भाव लक्ष्य करने लायक और नहीं तो इसलिए भी है कि वह परवर्ती साहित्य पर एक मन्तव्य भी तो है ही- समूचे साहित्य पर नहीं तो कम से कम सप्तक के अन्य कवियों की कृतियों पर (और उससे प्रभावित दूसरे लेखन पर) तो अवश्य ही। असम्भव नहीं कि संकलित कवियों को अब इस प्रकार एक-दूसरे से सम्पृक्त होकर लोगों के सामने उपस्थित होना कुछ अजब या असमंजसकारी लगता हो। लेकिन ऐसा है भी, तो उस असमंजस के बावजूद वे इस सम्पर्क को सह लेने को तैयार हो गये हैं इसे संपादक अपना सौभाग्य मानता है। अपनी ओर से वह यह भी कहना चाहता है कि स्वयं उसे इस सम्पृक्ति से कोई संकोच नहीं है। परवर्ती कुछ प्रवृत्तियाँ उसे हीन अथवा आपत्तिजनक भी जान पड़ती हैं, और निःसन्देह इनमें से कुछ का सूत्र तार सप्तक से जोड़ा जा सकता है या जोड़ दिया जाएगा; तथापि संपादक की धारणा है कि तार सप्तक ने अपने प्रकाशन का औचित्य प्रमाणित कर लिया। उसका पुनर्मुद्रण केवल एक ऐतिहासिक दस्तावेज को उपलभ्य बनाने के लिए नहीं, बल्कि इसलिए भी संगत है कि परवर्ती काव्य-प्रगति को समझने के लिए इसका पढना आवश्यक है। इन सात कवियों का एकत्रित होना अगर केवल संयोग भी था तो भी वह ऐसा ऐतिहासिक संयोग हुआ जिसका प्रभाव परवर्ती काव्य-विकास में दूर तक व्याप्त है।

इसी समकालीन अर्थवत्ता की पुष्टि के लिए प्रस्तुत संस्करण को केवल पुनर्मुद्रण तक सीमित न रख कर नया संवद्धित रूप देने का प्रयत्न किया गया है। तार सप्तक के ऐतिहासिक रूप की रक्षा करते हुए जहाँ पहले की सब सामग्री-काव्य और वक्तव्य-अविकल रूप से दी जा रही है, वहाँ प्रत्येक कवि से उसकी परवर्ती प्रवृत्तियों पर भी कुछ विचार प्राप्त किए गये हैं। संपादक का विश्वास है कि यह प्रत्यवलोकन प्रत्येक कवि के कृतित्व को समझने के लिए उपयोगी होगा और साथ ही तार सप्तक के पहले प्रकाशन से अब तक के काव्य-विकास पर भी नया प्रकाश डालेगा। एक पीढ़ी का अन्तराल पार करने के लिए प्रत्येक कवि की कम से कम एक-एक नयी रचना भी दे दी गयी है। इसी नयी सामग्री को प्राप्त करने के प्रयत्न में सप्तक इतने वर्षों तक अनुपलभ्य रहा: जिनके देर करने का डर था उनसे सहयोग तुरन्त मिला; जिनकी अनुकूलता का भरोसा था उन्होंने ही सबसे देर की-आलस्य या उदासीनता के कारण भी, असमंजस के कारण भी, और शायद अनभिव्यक्त आक्रोश के कारण भी: जो पास रहे वे ही तो सबसे दूर रहे। संपादक ने वह हठधर्मिता (बल्कि बेहयाई!) ओढ़ी होती जो पत्रकारिता (और संपादन) धर्म का अंग है, तो सप्तक का पुनर्मुद्रण कभी न हो पाता : यह जहाँ अपने परिश्रम का दावा है; वहाँ अपनी हीनतर स्थिति का स्वीकार भी है।

पुस्तक के बहिरंग के बारे में अधिक कुछ कहना आवश्यक नहीं है। पहले संस्करण में जो आदर्शवादिता झलकती थी, उसकी छाया कम से कम संपादक पर अब भी है, किन्तु काव्य-प्रकाशन के व्यावहारिक पहलू पर नया विचार करने के लिए अनुभव ने सभी को बाध्य किया है। पहले संस्करण से उपलब्धि के नाम पर कवियों को केवल पुस्तक की कुछ प्रतियाँ ही मिलीं; बाकी जो कुछ उपलब्धि हुई वह भौतिक नहीं थी! सम्भाव्य आय को इसी प्रकार के दूसरे संकलन में लगाने का विचार भी उत्तम होते हुए भी वर्तमान परिस्थिति में अनावश्यक हो गया है। रूप-सज्जा के बारे में भी स्वीकार करना होगा कि नये संस्करण पर परवर्ती सप्तकों का प्रभाव पड़ा है। जो अतीत की अनुरूपता के प्रति विद्रोह करते हैं, वे प्रायः पाते हैं कि उन्होंने भावी की अनुरूपता पहले से स्वीकार कर ली थी! विद्रोह की ऐसी विडम्बना कर सकना इतिहास के उन बुनियादी अधिकारों में से है जिसका वह बड़े निर्ममत्व से उपयोग करता है। नये संस्करण से उपलब्धि कुछ तो होगी, ऐसी आशा की जा सकती है। उसका उपयोग कौन कैसे करेगा यह योजनाधीन न होकर कवियों के विकल्प पर छोड़ दिया गया। वे चाहें तो उसे तार सप्तक का प्रभाव मिटाने में या उसके संसर्ग की छाप धो डालने में भी लगा सकते हैं!

http://gadyakosh.org/gk/तार_सप्तक:_दूसरे_संस्करण_की_भूमिका_/_अज्ञेय

10. कवि और उसकी काव्य कृति की दृष्टि से कौन-सा युग्म सुमेलित नहीं है ?

(A) कुँवर नारायण – कोई दूसरा नहीं

(B) धर्मवीर भारती – कनुप्रिया

(C) रघुवीर सहाय – सीढ़ियों पर धूप में

(D) दुष्यंत कुमार – पहले मैं सन्नाटा बुनता हूँ

MPPSC सहायक प्राध्यापक परीक्षा द्वितीय प्रश्न पत्र हिंदी परीक्षा तिथि-09/06/2024-SET-B

उत्तर –  (D) दुष्यंत कुमार – पहले मैं सन्नाटा बुनता हूँ

कोई दूसरा नहीं हिन्दी के विख्यात साहित्यकार कुँवर नारायण द्वारा रचित एक कविता–संग्रह है जिसके लिये उन्हें सन् 1995 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया।

राधा और कृष्ण की कहानी में कई पहलू कई रंग देखने को मिलते हैं – जहां संशय नहीं है, तन्मयता है, जिज्ञासा है, लेकिन निराशा नहीं – बस प्रेम है और प्रेम के अनेकोनेक रंग – धर्मवीर भारती की कविता कनुप्रिया उसी प्रणय और विरह की कहानी कहती है। 

रघुवीर सहाय (सन् 1929-1990)

रघुवीर सहाय का जन्म लखनऊ (उत्तर प्रदेश) में हुआ था। उनकी संपूर्ण शिक्षा लखनऊ में ही हुई। वहीं से उन्होंने 1951 में अंग्रेजी साहित्य में एम.ए किया। रघुवीर सहाय पेशे से पत्रकार थे। आरंभ में उन्होंने प्रतीक में सहायक संपादक के रूप में काम किया। फिर वे आकाशवाणी के समाचार विभाग में रहे। कुछ समय तक वे हैदराबाद वर्षों तक क उन्होंने दिनमान से प्रकाशित होने वाली पत्रिका कल्पना के संपादन से भी जुड़े रहे और कई वर्षों तक का संपादन किया।

रघुवीर सहाय नयी कविता के कवि हैं। उनकी कुछ कविताएँ अज्ञेय द्वारा संपादित दूसरा सप्तक में संकलित हैं। कविता के अलावा उन्होंने रचनात्मक और विवेचनात्मक गद्य भी लिखा है। उनके काव्य-संसार में आत्मपरक अनुभवों की जगह जनजीवन के अनुभवों की रचनात्मक अभिव्यक्ति अधिक है। वे व्यापक सामाजिक संदर्भों के निरीक्षण, अनुभव और बोध को कविता में व्यक्त करते हैं।

रघुवीर सहाय ने काव्य-रचना में अपनी पत्रकार-दृष्टि का सर्जनात्मक उपयोग किया है। वे मानते हैं कि अखबार की खबर के भीतर दबी और छिपी हुई ऐसी अनेक खबरें होती हैं, जिनमें मानवीय पीड़ा छिपी रह जाती है। उस छिपी हुई मानवीय पीड़ा की अभिव्यक्ति करना कविता का दायित्व है। इस काव्य-दृष्टि के अनुरूप ही उन्होंने अपनी नयी काव्य-भाषा का विकास किया है। वे अनावश्यक शब्दों के प्रयोग से प्रयासपूर्वक बचते हैं। भयाक्रांत अनुभव की आवेगरहित अभिव्यक्ति उनकी कविता की प्रमुख विशेषता है। रघुवीर सहाय ने मुक्त छंद के साथ-साथ छंद में भी काव्य-रचना की है। जीवनानुभवों की अभिव्यक्ति के लिए वे कविता की संरचना में कथा या वृत्तांत का उपयोग करते हैं।

उनकी प्रमुख काव्य-कृतियाँ हैं-सीढ़ियों पर धूप में, आत्महत्या के विरुद्ध, हँसो हँसो जल्दी हँसो और लोग भूल गए हैं। छह खंडों में रघुवीर सहाय रचनावली प्रकाशित हुई है, जिसमें उनकी लगभग सभी रचनाएँ संगृहीत हैं। लोग भूल गए हैं काव्य संग्रह पर उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला था। https://ncert.nic.in/textbook/pdf/lhat105.pdf

सच्चिदानंद वात्स्यायन 'अज्ञेय' 


पहले एक सन्नाटा बुनता हूं।

उसी के लिए स्वर-तार चुनता हूँ।

ताना: ताना मज़बूत चाहिए: कहां से मिलेगा?

पर कोई है जो उसे बदल देगा,

जो उसे रसों में बोर कर रंजित करेगा, तभी तो वह खिलेगा।

मैं एक गाढ़े का तार उठाता हूं:

मैं तो मरण से बंधा हूं; पर किसी के---और इसी तार के सहारे

     काल से पार पाता हूं।

फिर बाना: पर रंग क्या मेरी पसन्द के हैं?

अभिप्राय भी क्या मेरे छन्द के हैं?

पाता हूँ कि मेरा मन ही तो गिरीं है, डोरा है;

इधर से उधर, उधर से इधर; हाथ मेरा काम करता है

            नक्शा किसी और का उभरता है।

यों बुन जाता है जाल सन्नाटे का

और मुझ में कुछ है कि उस से घिर जाता हूँ।

सच मानिए, मैं नहीं है वह

क्योंकि मैं जब पहचानता हूँ तब

            अपने को उस जाल के बाहर पाता हूँ।

फिर कुछ बंधता है जो मैं न हूँ पर मेरा है,

वही कल्पक है।

जिसका कहा भीतर कहीं सुनता हूँ;

'तो तू क्या कवि है? क्यों और शब्द जोड़ना चाहता है?

कविता तो यह रखी है।'

हाँ तो। वही आकाश  सखी है ,

             मेरी सगी है।

जिसके लिए, फिर

         दूसरा सन्नाटा बुनता हूँ।