51. ‘कवियों की उर्मिला विषयक उदासीनता’ शीर्षक से सरस्वती में प्रकाशित लेख महावीर प्रसाद द्विवेदी ने किस नाम से लिखा था ?
(A) भुजंगभूषण भट्टाचार्य
(B) भारतभूषण भट्टाचार्य
(C) मधुसूदन भट्टाचार्य
(D) भानुभूषण भट्टाचार्य
MPPSC सहायक प्राध्यापक परीक्षा-2022 द्वितीय प्रश्न पत्र हिंदी परीक्षा तिथि-09/06/2024-SET-B
उत्तर – (A) भुजंगभूषण भट्टाचार्य
भुजंगभूषण भट्टाचार्य’ नाम से प्रकाशित लेख – ‘कवियों की उर्मिला विषयक उदासीनता.
कवियों की उर्मिला-विषयक उदासीनता
महावीर प्रसाद द्विवेदी
कवि स्वभाव ही से उच्छृंखल होते हैं। वे जिस तरफ़ झुक गए। जी में आया तो राई का पर्वत कर दिया; जी में न आया तो हिमालय की तरफ़ भी आँख उठाकर न देखा। यह उच्छृंखलता या उदासीनता सर्वसाधारण कवियों में तो देखी ही जाती है, आदि कवि भी इससे नहीं बचे। क्रौंच पक्षी के जोड़े में से एक पक्षी को निषाद द्वारा वध किया गया देख जिस कवि-शिरोमणि का हृदय दुःख से विदीर्ण हो गया, और जिसके मुख से ‘मा निषाद’ इत्यादि सरस्वती सहसा निकल पड़ी, वही पर-दुःख-कातर मुनि रामायण निर्माण करते समय, एक नवपरिणीता दुःखिनी वधू को बिलकुल भूल गया। विपत्ति-विधुरा होने पर उसके साथ अल्पादल्पतरा समवेदना तक उसने न प्रकट की—उसकी ख़बर तक न ली। वाल्मीकि रामायण का पाठ किंवा पारायण करने वालों को उर्मिला के दर्शन सबसे पहले जनकपुर में सीता, मांडवी और श्रुतिकीर्ति के साथ होते हैं। सीता की बात तो जाने ही दीजिए, उनके और उनके जीविताधार रामचंद्र के चरित्र चित्रण ही के लिए रामायण की रचना हुई। मांडवी और श्रुतिकीर्ति के विषय में कोई विशेषता नहीं। क्योंकि आग से भी अधिक संतोष पैदा करनेवाला पति-वियोग उनको हुआ ही नहीं! रही बाल वियोगिनी देवी उर्मिला, सो उसका चरित सर्वथा गेय और आलेख्य होने पर भी, कवि ने उसके साथ अन्याय किया। मुने! इस देवी की इतनी उपेक्षा, इतना कार्पण्य क्यों? क्या इसलिए कि इसका नाम इतना श्रुति-सुखद, इतना मंजुल, इतना मधुर है, और तापस-जनों का शरीर सदैव शीतताप सहने के कारण कठोर और कर्कश होता है—पर नहीं, आपका काव्य पढ़ने से तो यही जान पड़ता है आप कटुता-प्रेमी नहीं। भवतु नाम। हम इस उपेक्षा का एकमात्र कारण भगवती उर्मिला का भाग्यदोष ही समझते हैं। हा हतविधिलसते! परमकारुणिकेन मुनिना वाल्मीकिनापि विस्मृतासि।
हाय वाल्मीकि! जनकपुरी में तुम उर्मिला को सिर्फ़ एक बार, वैवाहिक वधू वेश में, दिखाकर चुप हो बैठे। अयोध्या आने पर ससुराल में उसकी सुध यदि आपको न सही, पर क्या लक्ष्मण के वन-प्रयाण-समय में भी उसके दुःखाश्रु मोचन करना आपको उचित न जँचा? रामचंद्र के राज्याभिषेक की जब तैयारियाँ हो रही थीं, जब राजान्तःपुर ही क्यों, सारा नगर नंदनवन बन रहा था, उस समय नवला उर्मिला कितनी ख़ुशी मना रही थी, सो क्या आपने नहीं देखा? अपने पति के परमाराध्य राम को राज्यसिंहासन पर आसीन देख उर्मिला को कितना आनंद होता, इसका अनुमान क्या आपने नहीं किया? हाय! वही उर्मिला एक घंटे के बाद, राम जानकी के साथ, निज पति को 14 वर्ष के लिए वन जाते देख, छिन्नमूल शाखा की तरह राज सदन की एक एकांत कोठरी में भूमि पर लोटती हुई क्या आपके नयनगोचर नहीं हुई? फ़िर भी उसके लिए आपकी ‘वचने दरिद्रता!’ उर्मिला वैदेही की छोटी बहिन थी। सो उसे बहिन का भी वियोग सहना पड़ा और प्राणाधार पति का भी वियोग सहना पड़ा। पर इतनी घोर दु:खिनी पर भी आपने दया न दिखाई। चलते समय लक्ष्मण को उसे एक बार आँख भर देख भी न लेने दिया। जिस दिन राम और लक्ष्मण, सीता देवी के साथ चलने लगे—जिस दिन उन्होंने अपने पुर-त्याग से अयोध्या नगरी को अंधकार में, नगरवासियों को दुःखोदधि में और पिता को मृत्यु-मुख में निपतित किया, उस दिन भी आपको उर्मिला याद न आई! उसकी क्या दशा थी, वह कहीं पड़ी थी, सो कुछ भी आपने न सोचा? इतनी उपेक्षा!
लक्ष्मण ने अकृत्रिम भ्रातस्नेह के कारण बड़े भाई का साथ दिया उन्होंने राज-पाट छोड़कर अपना शरीर रामचंद्र को अर्पण किया। बहुत बड़ी बात की। पर उर्मिला ने इससे भी बढ़कर आत्मोत्सर्ग किया। उसने अपनी आत्मा की अपेक्षा भी अधिक प्यारा अपना पति राम जी की के लिए दे डाला और यह आत्मसुखोत्सर्ग उसने तब किया जब उसे ब्याह कर आये हुए कुछ ही समय हुआ था। उसने अपने सांसारिक सुख के सबसे अच्छे अंश से हाथ धो डाला। जो सुख विवाहोत्तर उसे मिलता उसको बराबरी 14 वर्ष पति-वियोग के बाद का सुख कभी नहीं कर सकता। नवोढ़त्व को प्राप्त होते ही जिस उर्मिला ने, रामचंद्र और जानकी के लिए, अपने सुख-सर्वस्व पर पानी डाल दिया उसी के लिए अंतर्दर्शी आदि कवि के शब्दभंडार में दरिद्रता!
पति-प्रेम और पति-पूजा की शिक्षा सीता देवी को जहाँ मिली थी, वहीं उर्मिला को भी मिली थी। सीता देवी की सम्मति थी कि—
जहँ लगि नाथ नेह अरु नाते।
पिय विनु तियहिं तरनि ते ताते॥
उर्मिला की क्या यह भावना न थी? ज़रूर थी। दोनों एक ही घर की थीं! उर्मिला भी पतिपरायण-धर्म को अच्छी तरह जानती थी। पर उसने लक्षमण के साथ वन-गमन की हठ जान बूझकर नहीं की। यदि वह भी साथ जाने को तैयार होती तो लक्ष्मण को अपने अग्रज राम के साथ उसे ले जाते संकोच होता, और उर्मिला के कारण लक्ष्मण अपने उस आराध्य-युग्म की सेवा भी अच्छी तरह न कर सकते। यही सोचकर उर्मिला ने सीता का अनुकरण नहीं किया। यह बात उसके चरित्र की महत्ता की बोधक है। वाल्मीकि को ऐसी उच्चाशय रमणी का विस्मरण होते देख किस कविता-मर्मज्ञ को आंतरिक वेदना न होगी?
तुलसीदास ने भी उर्मिला पर अन्याय किया है। आपने इस विषय में आदि कवि का ही अनुकरण किया है। ‘नानापुराणनिगमागमसम्मत’ लेकर जब रामचरितमानस की रचना करने की घोषणा की थी, तब यहाँ पर आदि काव्य को ही अपने वचनों का आधार मानने की कोई वैसी ज़रूरत नहीं थी। आपने भी चलते वक्त लक्ष्मण को उर्मिला से नहीं मिलने दिया। माता से मिलने के बाद, झट कह दिया—गये लषण जहँ जानकिनाथा।
आपके इष्टदेव के अनन्य सेवक ‘लषण’ पर इतनी सख्ती क्यों? अपने कमंडलु के करुणानीर का एक भी बूँद आपने उर्मिला के लिए न रखा। सारा का सारा कमंडलु सीता को समर्पण कर दिया। एक ही चौपाई में उर्मिला की दशा का वर्णन कर देते। अथवा उसी के मुँह कुछ कहलाते। पाठक सुन तो लेते कि राम-जानकी के वनवास और अपने पति के वियोग के संबंध में क्या-क्या भावनाएँ उसके कोमल हृदय में उत्पन हुई थीं। उर्मिला को जनकपुर से साकेत पहुँचाकर उसे एकदम ही भूल जाना अच्छा नहीं हुआ।
हाँ, भवभूति ने इस विषय में कुछ कृपा की है। राम, लक्षमण और जानकी के वन से लौट आने पर भवभूति को बेचारी उर्मिला एक बार याद आ गई है। चित्र-फलक पर उर्मिला को देखकर सीता ने लक्ष्मण से पूछा—इयमप्यपरा का?’ अर्थात् लक्ष्मण, यह कौन है? इस प्रकार देवर से पूछना कौतुक से खाली नहीं। इसमें सरसता है। लक्ष्मण इस बात को समझ गए। वे कुछ लज्जित होकर मन ही मन कहने लगे—“उर्मिला को सीता देवी पूछ रही हैं।” उन्होंने सीता के प्रश्न का उत्तर दिए बिना ही उर्मिला के चित्र पर हाथ रख दिया। उनके हाथ से वह ढक गया। कैसे खेद की बात है कि उर्मिला का उज्ज्वल चरित्र कवियों के द्वारा भी आज तक इसी तरह ढकता आया।
स्रोत :
पुस्तक : सम्मेलन निबंध माला (भाग 2) (पृष्ठ 12) संपादक : गिरिजदत्त शुक्ला व ब्रजबहुषण शुक्ल रचनाकार : महावीर प्रसाद द्विवेदी प्रकाशन : गिरिजदत्त शुक्ला व ब्रजबहुषण शुक्ल
52. ‘श्रद्धा और इड़ा औरतानी औरतों का प्रतिनिधित्व नहीं करती। श्रद्धा औरतानी औरत के कुछ समीप है, …… इड़ा तो बिल्कुल नहीं ।’ कामायनी की श्रद्धा और इड़ा के संदर्भ में यह विचार किसका है ?
(A) मुक्तिबोध
(B) दिनकर
(C) नामवर सिंह
(D) नगेन्द्र
MPPSC सहायक प्राध्यापक परीक्षा-2022 द्वितीय प्रश्न पत्र हिंदी परीक्षा तिथि-09/06/2024-SET-B
उत्तर – (B) दिनकर
दिनकर के शब्दों में श्रद्धा ‘औरतानी औरत’ के समीप है लेकिन इड़ा नहीं। जैसा पहले कहा जा चुका है, कामायनी के काव्य-सौन्दर्य की श्रेष्ठता के बारे में किसी को संदेह नहीं है। लेकिन यह सौन्दर्य केवल बिंब-विधान में नहीं है बल्कि उस समूचे सांस्कृतिक-सामाजिक परिवेश से जुड़कर ही वह प्रभावशाली बन पाता है। चाहे प्रकृति-चित्र हों या मानवीय सौन्दर्य-वर्णन-सभी, कहीं न कहीं, मूल्यों से जुड़े हुए हैं। उनके मूल्यों से सहमत असहमत होना दूसरी बात है। पर आधुनिक जीवन के मानवीय संकटों के प्रति वे पूरे सचेत हैं। अतः उनके काव्य-सौन्दर्य को मूल्य से अलग करके नहीं देखा जा सकता।
Hindi Sahitya Ka Doosara Itihas By Bachchan Singh (Printed Page No 343) : https://www.google.co.in/books/edition/Hindi_Sahitya_Ka_Doosara_Itihas/owZZY9gjAJcC?hl=en&gbpv=1&dq=%27श्रद्धा+और+इड़ा+औरतानी&pg=PA343&printsec=frontcover
53. “निराला हिंदी साहित्य में नए मानवतावाद के प्रतिष्ठापक हैं।” यह कथन किसका है ?
(A) रामविलास शर्मा
(B) दूधनाथ सिंह
(C) नन्दकिशोर नवल
(D) बच्चन सिंह
MPPSC सहायक प्राध्यापक परीक्षा-2022 द्वितीय प्रश्न पत्र हिंदी परीक्षा तिथि-09/06/2024-SET-B
उत्तर – (A) रामविलास शर्मा
Hindi Aalochna Ki Parampra Aur Dr. Ram Bilas Sharma
By Kalu Ram Parihar
Page No 169 (Printed Page No)
तुलसीदास के बाद निराला को डॉ. शर्मा हिंदी का सबसे बड़ा कवि मानते हैं। उनके अनुसार निराला हिंदी साहित्य में नए मानवतावाद के प्रतिष्ठापक हैं। उनका मानवतावाद उनके देश-प्रेम और क्रांतिकारी भावना से जुड़ा हुआ है। उनकी क्रांतिकारी भावधारा का स्रोत उनकी गंभीर मानवीय करुणा है। भारत उनकी आस्था का आधार और कर्मों का लक्ष्य है। निराला साहित्य और समाज में क्रांति लाना चाहते थे। डॉ. शर्मा ने निराला-काव्य के विस्तृत विवेचन के द्वारा निराला की विचारधारा, भावबोध और कला के अंतःसंबंधों को स्पष्ट किया है तथा रेखांकित किया है कि निराला-काव्य में दुःख, संघर्ष और मृत्यु की भावनाएं होते हुए भी दैन्य का भाव नहीं है। दुःख से मुक्ति पाने के लिए सामाजिक-सांस्कृतिक परिवेश से संघर्ष और अपने आत्म-संघर्ष दोनों को निराला अपने जीवन की शक्ति और प्रेरणा बना लेते हैं। डॉ. शर्मा ने प्रमाणित किया है कि निराला अपने अंतर्विरोधों को पार करते हुए अपनी क्रांतिकारी चेतना और मानवतावाद के आधार पर अपने साहित्य में यथार्थवाद का विकास करते हैं।
छायावादोत्तर काल में यथार्थवादी काव्यधारा के विकास के मुख्य अवरोधों को पहचानते हुए डॉ. शर्मा ने प्रयोगवाद और ‘नई कविता’ के सकारात्मक पक्ष को भी रेखांकित किया है। रहस्यवाद और अस्तित्ववाद की विचारधाराओं से प्रेरित और प्रभावित कविता के अंतर्विरोधों को उभार कर उन्होंने प्रगतिशील काव्यधारा के विकास की संभावनाएं दिखाई हैं।
54. निम्नलिखित में से दिनकर की कौन-सी कविता ‘परशुराम की प्रतीक्षा’ काव्य-संग्रह में संकलित नहीं है ?
(A) आपद्धर्म
(B) विपथगा
(C) समर शेष है
(D) अहिंसावादी का युद्ध-गीत
MPPSC सहायक प्राध्यापक परीक्षा-2022 द्वितीय प्रश्न पत्र हिंदी परीक्षा तिथि-09/06/2024-SET-B
उत्तर – (B) विपथगा
यह अज्ञेय जी का पहला कहानी संग्रह है। इस संग्रह की अधिकांश कहानियाँ जेल में लिखी गई थीं।
परशुराम की प्रतीक्षा सामाजिक विषय पर आधारित रामधारी सिंह ‘दिनकर’ जी द्वारा रचित कविता संग्रह और खण्डकाव्य है। इस कविता संग्रह में लगभग अठारह कविताएँ शामिल हैं। इस खण्डकाव्य की रचना उन्होंने 1962-63 के आसपास की।
- परशुराम की प्रतीक्षा
- खण्ड एक
- खण्ड दो
- खण्ड तीन
- खण्ड चार
- खण्ड पाँच
- जवानियाँ
- हिम्मत की रौशनी
- लोहे के मर्द
- जनता जगी हुई
- आज कसौटी पर गाँधी की आग है
- जौहर
- आपद्धर्म
- पाद-टिप्पणी
- शान्तिवादी
- अहिंसावादी का युद्ध-गीत
- इतिहास का न्याय
- एनार्की
- एक बार फिर स्वर दो?1
- एक बार फिर स्वर दो?2
- तब भी आता हूँ मैं
- समर शेष है
- जवानी का झण्डा
परशुराम की प्रतीक्षा – समीक्षा < दिवा शंकर सारस्वत
55. ‘असाध्य वीणा’ जिस जापानी कथा पर आधारित मानी जाती है, उस कथा का क्या नाम है ?
(A) दि बुक ऑफ टी
(B) दि बुक ऑफ ट्री
(C) गेमिंग ऑफ दि हार्प
(D) टेमिंग ऑफ दि हार्प
MPPSC सहायक प्राध्यापक परीक्षा-2022 द्वितीय प्रश्न पत्र हिंदी परीक्षा तिथि-09/06/2024-SET-B
उत्तर – (D) टेमिंग ऑफ दि हार्प
असाध्य वीणा अज्ञेय जी की एक लम्बी कविता है। इस कविता की रचना उन्होंने सनˎ1957-58 के जापान प्रवास के बाद 18-20 जून 1961 में अल्मोड़ा के कॉटेज में 321 पंक्ति वाली यह लंबी कविता लिखी थी। यह कविता उनके काव्य संग्रह ‘आँगन के पार द्वार’ में संकलित है, जो 1961 में ही प्रकाशित हुआ था।
असाध्य वीणा कविता एक चीनी-जापानी लोक कथा पर आधारित है। इस कविता की मूल कहानी ‘आकोकुरा’ की पुस्तक ‘द बुक ऑफ टी’ में ‘टेंमिंग ऑफ द हार्प’ शीर्षक में संकलित है।
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असाध्य वीणा (कविता)
आ गए प्रियंवद! केशकंबली! गुफा-गेह!
राजा ने आसन दिया। कहा :
‘कृतकृत्य हुआ मैं तात! पधारे आप।
भरोसा है अब मुझ को
साध आज मेरे जीवन की पूरी होगी!’
लघु संकेत समझ राजा का
गण दौड़े। लाये असाध्य वीणा,
साधक के आगे रख उस को, हट गए।
सभी की उत्सुक आँखें
एक बार वीणा को लख, टिक गईं
प्रियंवद के चेहरे पर।
‘यह वीणा उत्तराखंड के गिरि-प्रांतर से
-घने वनों में जहाँ तपस्या करते हैं व्रतचारी-
बहुत समय पहले आयी थी।
पूरा तो इतिहास न जान सके हम :
किंतु सुना है
वज्रकीर्ति ने मंत्रपूत जिस
अति प्राचीन किरीटी-तरु से इसे गढ़ा था-
उस के कानों में हिम-शिखर रहस्य कहा करते थे अपने,
कंधों पर बादल सोते थे,
उस की करि-शुंडों-सी डालें
हिम-वर्षा से पूरे वन-यूथों का कर लेती थीं परित्राण,
कोटर में भालू बसते थे,
केहरि उस के वल्कल से कंधे खुजलाने आते थे।
और-सुना है-जड़ उस की जा पहुँची थी पाताल-लोक,
उस की ग्रंथ-प्रवण शीतलता से फण टिका नाग वासुकि सोता था।
उसी किरीटी-तरु से वज्रकीर्ति ने
सारा जीवन इसे गढ़ा :
हठ-साधना यही थी उस साधक की-
वीणा पूरी हुई, साथ साधना, साथ ही जीवन-लीला।’
राजा रुके साँस लंबी ले कर फिर बोले :
‘मेरे हार गए सब जाने-माने कलावंत,
सबकी विद्या हो गई अकारथ, दर्प चूर,
कोई ज्ञानी गुणी आज तक इसे न साध सका।
अब यह असाध्य वीणा ही ख्यात हो गई।
पर मेरा अब भी है विश्वास
कृच्छ्र-तप वज्रकीर्ति का व्यर्थ नहीं था।
वीणा बोलेगी अवश्य, पर तभी
इसे जब सच्चा-स्वरसिद्ध गोद में लेगा।
तात! प्रियंवद! लो, यह सम्मुख रही तुम्हारे
वज्रकीर्ति की वीणा,
यह मैं, यह रानी, भरी सभा यह :
सब उदग्र, पर्युत्सुक,
जन-मात्र प्रतीक्षमाण!’
केशकंबली गुफा-गेह ने खोला कंबल।
धरती पर चुप-चाप बिछाया।
वीणा उस पर रख, पलक मूँद कर, प्राण खींच
कर के प्रणाम,
अस्पर्श छुअन से छुए तार।
धीरे बोला : ‘राजन्! पर मैं तो
कलावंत हूँ नहीं, शिष्य, साधक हूँ-
जीवन के अनकहे सत्य का साक्षी।
वज्रकीर्ति!
प्राचीन किरीटी-तरु!
अभिमंत्रित वीणा!
ध्यान-मात्र इन का तो गद्गद विह्वल कर देने वाला है!’
चुप हो गया प्रियंवद।
सभा भी मौन हो रही।
वाद्य उठा साधक ने गोद रख लिया।
धीरे-धीरे झुक उस पर, तारों पर मस्तक टेक दिया।
सभा चकित थी- अरे, प्रियंवद क्या सोता है?
केशकंबली अथवा हो कर पराभूत
झुक गया वाद्य पर?
वीणा सचमुच क्या है असाध्य?
पर उस स्पंदित सन्नाटे में
मौन प्रियंवद साध रहा था वीणा-
नहीं, स्वयं अपने को शोध रहा था।
सघन निविड़ में वह अपने को
सौंप रहा था उसी किरीटी-तरु को।
कौन प्रियंवद है कि दंभ कर
इस अभिमंत्रित कारुवाद्य के सम्मुख आवे?
कौन बजावे
यह वीणा जो स्वयं एक जीवन भर की साधना रही?
भूल गया था केशकंबली राज-सभा को :
कंबल पर अभिमंत्रित एक अकेलेपन में डूब गया था
जिस में साक्षी के आगे था
जीवित वही किरीटी-तरु
जिस की जड़ वासुकि के फण पर थी आधारित,
जिस के कंधों पर बादल सोते थे
और कान में जिस के हिमगिरि कहते थे अपने रहस्य।
संबोधित कर उस तरु को, करता था
नीरव एकालाप प्रियंवद।
‘ओ विशाल तरु!
शत-सहस्त्र पल्लवन-पतझरों ने जिस का नित रूप सँवारा,
कितनी बरसातों कितने खद्योतों ने आरती उतारी,
दिन भौंरे कर गए गुंजरित,
रातों में झिल्ली ने
अनथक मंगल-गान सुनाये,
साँझ-सवेरे अनगिन
अनचीन्हे खग-कुल की मोद-भरी क्रीड़ा-काकलि
डाली-डाली को कँपा गई-
ओ दीर्घकाय!
ओ पूरे झारखंड के अग्रज,
तात, सखा, गुरु, आश्रय,
त्राता महच्छाय,
ओ व्याकुल मुखरित वन-ध्वनियों के
वृंदगान के मूर्त रूप,
मैं तुझे सुनूँ,
देखूँ, ध्याऊँ
अनिमेष, स्तब्ध, संयत, संयुत, निर्वाक् :
कहाँ साहस पाऊँ
छू सकूँ तुझे!
तेरी काया को छेद, बाँध कर रची गई वीणा को
किस स्पर्धा से
हाथ करें आघात
छीनने को तारों से
एक चोट में वह संचित संगीत जिसे रचने में
स्वयं न जाने कितनों के स्पंदित प्राण रच गए!
‘नहीं, नहीं! वीणा यह मेरी गोद रखी है, रहे,
किंतु मैं ही तो
तेरी गोदी बैठा मोद-भरा बालक हूँ,
ओ तरु-तात! सँभाल मुझे,
मेरी हर किलक
पुलक में डूब जाय:
मैं सुनूँ,
गुनूँ, विस्मय से भर आँकूँ
तेरे अनुभव का एक-एक अंत:स्वर
तेरे दोलन की लोरी पर झूमूँ मैं तन्मय-
गा तू :
तेरी लय पर मेरी साँसें
भरें, पुरें, रीतें, विश्रांति पाएँ।
‘गा तू!
यह वीणा रक्खी है : तेरा अंग-अपंग!
किंतु अंगी, तू अक्षत, आत्म-भरित,
रस-विद्
तू गा :
मेरे अँधियारे अंतस् में आलोक जगा
स्मृति का
श्रुति का-
तू गा, तू गा, तू गा, तू गा!
‘हाँ, मुझे स्मरण है :
बदली-कौंध-पत्तियों पर वर्षा-बूँदों की पट-पट।
घनी रात में महुए का चुप-चाप टपकना।
चौंके खग-शावक की चिहुँक।
शिलाओं को दुलराते वन-झरने के
द्रुत लहरीले जल का कल-निनाद।
कुहरे में छन कर आती
पर्वती गाँव के उत्सव-ढोलक की थाप।
गड़रियों की अनमनी बाँसुरी।
कठफोड़े का ठेका। फुलसुँघनी की आतुर फुरकन :
ओस-बूँद की ढरकन-इतनी कोमल, तरल
कि झरते-झरते मानो
हरसिंगार का फूल बन गई।
भरे शरद् के ताल, लहरियों की सरसर-ध्वनि।
कूँजों का क्रेंकार। काँद लंबी टिट्टिभ की।
पंख-युक्त सायक-सी हंस-बलाका।
चीड़-वनों में गंध-अंध उन्मद पतंग की जहाँ-तहाँ टकराहट
जल-प्रपात का प्लुत एकस्वर।
झिल्ली-दादुर, कोकिल-चातक की झंकार पुकारों की यति में
संसृति की साँय साँय।
‘हाँ, मुझे स्मरण है :
दूर पहाड़ों से काले मेघों की बाढ़
हाथियों का मानो चिंघाड़ रहा हो यूथ।
घरघराहट चढ़ती बहिया की।
रेतीले कगार का गिरना छप्-छड़ाप।
झंझा की फुफकार, तप्त,
पेड़ों का अररा कर टूट-टूट कर गिरना।
ओले की कर्री चपत।
जमे पाले से तनी कटारी-सी सूखी घासों की टूटन।
ऐंठी मिट्टी का स्निग्ध घाम में धीरे-धीरे रिसना।
हिम-तुषार के फाहे धरती के घावों को सहलाते चुप-चाप।
घाटियों में भरती
गिरती चट्टानों की गूँज-
काँपती मंद्र गूँज-अनुगूँज-साँस खोयी-सी, धीरे-धीरे नीरव।
‘मुझे स्मरण है :
हरी तलहटी में, छोटे पेड़ों की ओट ताल पर
बँधे समय वन-पशुओं की नानाविध आतुर-तृप्त पुकारें :
गर्जन, घुर्घुर, चीख, भूँक, हुक्का, चिचियाहट।
कमल-कुमुद-पत्रों पर चोर-पैर द्रुत धावित
जल-पंछी की चाप
थाप दादुर की चकित छलाँगों की।
पंथी के घोड़े की टाप अधीर।
अचंचल धीर थाप भैंसों के भारी खुर की।
‘मुझे स्मरण है :
उझक क्षितिज से
किरण भोर की पहली
जब तकती है ओस-बूँद को
उस क्षण की सहसा चौंकी-सी सिहरन।
और दुपहरी में जब
घास-फूल अनदेखे खिल जाते हैं
मौमाखियाँ असंख्य झूमती करती हैं गुंजार-
उस लंबे विलमे क्षण का तंद्रालस ठहराव।
और साँझ को
जब तारों की तरल कँपकँपी
स्पर्शहीन झरती है-
मानो नभ में तरल नयन ठिठकी
नि:संख्य सवत्सा युवती माताओं के आशीर्वाद-
उस संधि-निमिष की पुलकन लीयमान।
‘मुझे स्मरण है :
और चित्र प्रत्येक
स्तब्ध, विजड़ित करता है मुझ को।
सुनता हूँ मैं
पर हर स्वर-कंपन लेता है मुझ को मुझ से सोख-
वायु-सा नाद-भरा मैं उड़ जाता हूँ…।
मुझे स्मरण है-
पर मुझ को मैं भूल गया हूँ :
सुनता हूँ मैं-
पर मैं मुझ से परे, शब्द में लीयमान।
‘मैं नहीं, नहीं! मैं कहीं नहीं!
ओ रे तरु! ओ वन!
ओ स्वर-संभार!
नाद-मय संसृति!
ओ रस-प्लावन!
मुझे क्षमा कर-भूल अकिंचनता को मेरी-
मुझे ओट दे-ढँक ले-छा ले-
ओ शरण्य!
मेरे गूँगेपन को तेरे सोये स्वर-सागर का ज्वार डुबा ले!
आ, मुझे भुला,
तू उतर वीन के तारों में
अपने से गा
अपने को गा-
अपने खग-कुल को मुखरित कर
अपनी छाया में पले मृगों की चौकड़ियों को ताल बाँध,
अपने छायातप, वृष्टि-पवन, पल्लव-कुसुमन की लय पर
अपने जीवन-संचय को कर छंदयुक्त,
अपनी प्रज्ञा को वाणी दे!
तू गा, तू गा-
तू सन्निधि पा-तू खो
तू आ-तू हो-तू गा! तू गा!’
राजा जागे।
समाधिस्थ संगीतकार का हाथ उठा था-
काँपी थीं उँगलियाँ।
अलस अँगड़ाई ले कर मानो जाग उठी थी वीणा :
किलक उठे थे स्वर-शिशु।
नीरव पद रखता जालिक मायावी
सधे करों से धीरे धीरे धीरे
डाल रहा था जाल हेम-तारों का।
सहसा वीणा झनझना उठी-
संगीतकार की आँखों में ठंडी पिघली ज्वाला-सी झलक गई-
रोमांच एक बिजली-सा सब के तन में दौड़ गया।
अवतरित हुआ संगीत
स्वयंभू
जिस में सोता है अखंड
ब्रह्मा का मौन
अशेष प्रभामय।
डूब गए सब एक साथ।
सब अलग-अलग एकाकी पार तिरे।
राजा ने अलग सुना :
जय देवी यश:काय
वरमाल लिए
गाती थी मंगल-गीत,
दुंदुभी दूर कहीं बजती थी,
राज-मुकुट सहसा हलका हो आया था, मानो हो फूल सिरिस का
ईर्ष्या, महदाकांक्षा, द्वेष, चाटुता
सभी पुराने लुगड़े-से झर गए, निखर आया था जीवन-कांचन
धर्म-भाव से जिसे निछावर वह कर देगा।
रानी ने अलग सुना :
छँटती बदली में एक कौंध कह गई-
तुम्हारे ये मणि-माणक, कंठहार, पट-वस्त्र,
मेखला-किंकिणि-
सब अंधकार के कण हैं ये! आलोक एक है
प्यार अनन्य! उसी की
विद्युल्लता घेरती रहती है रस-भार मेघ को,
थिरक उसी की छाती पर उस में छिप कर सो जाती है
आश्वस्त, सहज विश्वास-भरी।
रानी
उस एक प्यार को साधेगी।
सब ने भी अलग-अलग संगीत सुना।
इस को
वह कृपा-वाक्य था प्रभुओं का।
उस को
आतंक-मुक्ति का आश्वासन!
इस को
वह भरी तिजोरी में सोने की खनक।
उसे
बटुली में बहुत दिनों के बाद अन्न की सोंधी खुदबुद।
किसी एक को नई वधू की सहमी-सी पायल-ध्वनि।
किसी दूसरे को शिशु की किलकारी।
एक किसी को जाल-फँसी मछली की तड़पन-
एक अपर को चहक मुक्त नभ में उड़ती चिड़िया की।
एक तीसरे को मंडी की ठेलमठेल, गाहकों की आस्पर्धा भरी बोलियाँ,
चौथे को मंदिर की ताल-युक्त घंटा-ध्वनि।
और पाँचवें को लोहे पर सधे हथौड़े की सम चोटें
और छठे को लंगर पर कसमसा रही नौका पर लहरों की
अविराम थपक।
बटिया पर चमरौधे की रुँधी चाप सातवें के लिए-
और आठवें को कुलिया की कटी मेंड़ से बहते जल की छुल-छुल।
इसे गमक नट्टिन की एड़ी के घुँघरू की।
उसे युद्ध का ढोल।
इसे संझा-गोधूली की लघु टुन-टुन-
उसे प्रलय का डमरु-नाद।
इस को जीवन की पहली अँगड़ाई
पर उस को महाजृंभ विकराल काल!
सब डूबे, तिरे, झिपे, जागे-
हो रहे वंशवद, स्तब्ध :
इयत्ता सब की अलग-अलग जागी,
संघीत हुई,
पा गई विलय।
वीणा फिर मूक हो गई।
साधु! साधु!!
राजा सिंहासन से उतरे-
रानी ने अर्पित की सतलड़ी माल,
जनता विह्वल कह उठी ‘धन्य!
हे स्वरजित्! धन्य! धन्य!’
संगीतकार
वीणा को धीरे से नीचे रख, ढँक-मानो
गोदी में सोये शिशु को पालने डाल कर मुग्धा माँ
हट जाय, दीठ से दुलराती-
उठ खड़ा हुआ।
बढ़ते राजा का हाथ उठा करता आवर्जन,
बोला :
‘श्रेय नहीं कुछ मेरा :
मैं तो डूब गया था स्वयं शून्य में-
वीणा के माध्यम से अपने को मैंने
सब कुछ को सौंप दिया था-
सुना आप ने जो वह मेरा नहीं,
न वीणा का था :
वह तो सब कुछ की तथता थी
महाशून्य
वह महामौन
अविभाज्य, अनाप्त, अद्रवित, अप्रमेय
जो शब्दहीन
सब में गाता है।’
नमस्कार कर मुड़ा प्रियंवद केशकंबली।
ले कर कंबल गेह-गुफा को चला गया।
उठ गई सभा। सब अपने-अपने काम लगे।
युग पलट गया।
प्रिय पाठक! यों मेरी वाणी भी
मौन हुई।
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