(rahim ke dohe class 9, NCERT)
रहीम का जन्म लाहौर (अब पाकिस्तान) में सन् 1556 में हुआ। इनका पूरा नाम अब्दुर्रहीम खानखाना था। रहीम अरबी, फ़ारसी, संस्कृत और हिंदी के अच्छे जानकार थे। इनकी नौतिपरक उक्तियों पर संस्कृत कवियों की स्पष्ट छाप परिलक्षित होती है। रहीम मध्ययुगीन दरबारी संस्कृति के प्रतिनिधि कवि माने जाते हैं। अकबर के दरबार में हिंदी कवियों में इनका महत्त्वपूर्ण स्थान था। रहीम अकबर के नवरत्नों में से एक थे।
रहीम के काव्य का मुख्य य विषय विषय श्रृंगार, श्रृंगार, नौति नौत्ति और और भक्ति भक्ति है। है। रहीम रहीम क बहुत लोकप्रिय कवि थे। इनके दोहे सर्वसाधारण को आसानी से याद हो जाते हैं। इनके नीतिपरक दोहे ज्यादा प्रचलित हैं, जिनमें दैनिक जीवन के दृष्टांत देकर कवि ने उन्हें सहज, सरल और बोधगम्य बना दिया है। रहीम को अवधी और ब्रज दोनों भाषाओं पर समान अधिकार था। इन्होंने अपने काव्य में प्रभावपूर्ण भाषा का प्रयोग किया है।
रहीम की प्रमुख कृतियाँ हैं रहीम सतसई, श्रृंगार सतसई, मदनाष्टक, रास पंचाध्यायी, रहीम रत्नावली, बरवै, भाषिक भेदवर्णन। ये सभी कृतियाँ ‘रहीम ग्रंथावली’ में समाहित हैं। प्रस्तुत पाठ में रहीम के नीतिपरक दोहें दिए गए हैं। ये दोहे जहाँ एक ओर पाठक को औरों के साथ कैसा बरताव करना चाहिए, इसकी शिक्षा देते हैं, वहीं मानव मात्र को करणीय और अकरणीय आचरण की भी नसीहत देते हैं। इन्हें एक बार पढ़ लेने के बाद भूल पाना संभव नहीं है और उन स्थितियों का सामना होते ही इनका याद आना लाजिमी है, जिनका इनमें चित्रण है।
दोहे (11)
दोहा- 01
रहिमन धागा प्रेम का, मत तोड़ो चटकाय।
टूटे से फिर ना मिले, मिले गाँठ परि जाय ।।
शब्दार्थ:-
चटकाय = चटकना, टूटना ।
परि = पड़ना, पड़ जाना ।
अर्थ: रहीम कहते हैं कि प्रेम का रिश्ता बहुत नाजुक होता है। इसे झटके से तोड़ना उचित नहीं है. प्यार का ये धागा अगर एक बार टूट जाए तो जुड़ना मुश्किल होता है और अगर जुड़ भी जाए तो टूटे हुए धागों के बीच में गांठ पड़ जाती है।
रहीम दास जी कहते हैं कि जिस प्रकार धागे को फिर से इस प्रकार करने के लिए जब हम उसे बांध देते हैं तो उसमें गांठ पड़ जाती है। वह पूर्व की भांति उसी प्रकार नहीं हो पाता है। इसी प्रकार प्रेम भी, जब उसमें किसी प्रकार की फूट पड़ जाती है तो फिर वह अपनी पूर्व अवस्था में नहीं आ पाता है। क्योंकि जब भरोसा टूट जाता है और टूटा हुआ भरोसा फिर पुनः पूर्ववत नहीं हो पाता भले ही कितना भी प्रयास कर लो अर्थात् उसमें कमी रह ही जाती है। जैसे कि धागे में उसको बांँधने पर गांठ आ जाती है और वह पूर्ववत् नहीं हो पाता।
दोहा- 02
रहिमन निज मन की बिथा, मन ही राखो गोय।
सुनि अठिलैहैं लोग सब, बाँटि न लैहैं कोय।।
शब्दार्थ:-
निज = मेरा, अपना।
बिथा = कष्ट, दर्द।
बाँटि = बांटना, वितरण करना।
सुनि = सुन्ना, सुनकर।
अठिलैहैं = मज़ाक उड़ाना, जिद्दी।
अर्थ: रहीम कहते हैं कि अपने मन के दुखों को मन में ही छिपाकर रखना चाहिए। लोग दूसरों का दुख सुनकर भले ही मज़ाक उड़ा लेते हैं, लेकिन उसे बांटकर कम करने वाला कोई नहीं होता।
दोहा- 03
एकै साधे सब सधै सब साधे सब जाय।
रहिमन मूलहिं सीचियों, फूलै फलै अघाय।।
शब्दार्थ:
एकै = एक।
साधे = साथ।
मूलहिं = जड़ में।
सींचिबो = सिंचाई करना।
अघाय = तृप्त।
अर्थ: एक के काम करने से सभी का काम हो जाता है। सबकी पूजा करने से सबके चले जाने की संभावना रहती है – जैसे किसी पौधे की जड़ को ही पानी देने से फूल और फल सभी को पानी मिल जाता है और उन्हें अलग-अलग सींचने की जरूरत नहीं पड़ती।
(संतों में यह युक्ति ईश्वर के लिए होती है कि जो ईश्वर की आराधना करता है उसे संसार का सब कुछ प्राप्त हो जाता है किंतु जो ईश्वर से विमुख होकर संसार की अनेक वस्तुओं के पीछे भागता है। उसे न तो ईश्वर मिलता है और न ही संसार की वस्तुएं ही उसे प्राप्त होती है, और यदि कुछ प्राप्त हुआ भी तो वह अंत में व्यर्थ ही सिद्ध होता है। जिनके पीछे वह जीवन भर भागता रहा था।)
दोहा- 04
चित्रकूट में रमि रहे, रहिमन अवध-नरेस।
जा पर विपदा पड़त है, सो आवत यह देस।।
शब्दार्थ:
अवध = अयोध्या।
बिपदा = विपत्ति , मुसीबत।
अर्थ : अर्थ – रहीमदास जी कहते हैं कि चित्रकूट में अयोध्या के राजा राम आकर रहे थे। (जब उन्हें 14 वर्षों के लिये वनवास मिला था।) अर्थात् वे कहते हैं कि इस स्थान (चित्रकूट) की याद दुःख में ही आती है, जिस पर भी विपत्ति आती है वह शांति पाने के लिए इसी प्रदेश (चित्रकूट) में खिंचा चला आता है।(अर्थात रहीम दास जी का कहना है कि चित्रकूट एक ऐसा स्थान है जहां पर विपदा में पड़े हुए लोगों को आश्रय प्राप्त होता है। अथवा तो ऐसे गहनवन प्रदेश में वही आकर रहता है जिसे विपत्ति सहन करनी पड़ती है।)
दोहा- 05
दीरघ दोहा अरथ के आखर थोरे आहिं।
ज्यों रहीम नट कुंडली, सिमिटि कूदि चढ़ि जाहिं ।।
अर्थ : रहीम जी का कहना है कि दोहों में भले ही थोड़े से अर्थात कम अक्षर या शब्द होते हैं, परंतु उनके अर्थ बड़े ही गूढ़ या गहन और दीर्घ या व्यापक होते हैं। यह वैसे ही होता है जैसे नट की कुंडली होती है। नट अपनी कुंडली में सिमट कर तरह तरह के विस्मयकारी करतब दिखा देता है। अर्थात् किसी के आकार को देखकर उसके महत्त्व को छोटा बड़ा नहीं आंकना चाहिए।
दोहा- 06
धनि रहीम जल पंक को लघु जिय पिअत अघाय।
उदधि बड़ाई कौन है, जगत पिआसो जाय।।
शब्दार्थ:
धनि = धन्य
पंक = कीचड़
लघु = छोटा
अघाय = जिसकी इच्छा या वासना पूरी हो चुकी हो
उदधि = सागर
पिआसो = प्यासा
अर्थ: रहीम दास जी इस दोहे में कहते हैं कि कीचड़ का पानी बहुत ही धन्य है क्योंकि उसका पानी पी कर छोटे-मोटे कीड़े मकोड़े आदि जीव जंतु कम से कम अपनी प्यास बुझा लेते हैं परन्तु समुद्र में जल का इतना विशाल भंडार होने पर भी यजि उसके पानी से प्यास नहीं बुझ सकती है तो उससे क्या लाभ? (अर्थात् हमारे पास जो कुछ भी धन आदि हैं उसकी सार्थकता तभी है जब वह किसी के परोपकार के लिए उपयोगी सिद्ध हो जाए अन्यथा वह व्यर्थ है।)
दोहा- 07
नाद रीझि तन देत मृग, नर धन हेत समेत ।
ते रहीम पशु से अधिक, रीझेहु कछू न देत ।।
शब्दार्थ :
नाद = आवाज़, संगीत की ध्वनि
रीझि = प्रसन्नता, खुश होकर
मृग = हिरण
अर्थात् रहीमदास जी कहते हैं कि संगीत की ध्वनि से मोहित होकर हिरण अपना शरीर शिकारी को सौंप देता है। और धन के कारण मनुष्य अपना जीवन खो देता है। परन्तु वे लोग भी उस जानवर से गये गुजरे हैं, जो तृप्त होने या रीझने पर भी कुछ नहीं देते।
दोहा- 08
बिगरी बात बनै नहीं, लाख करौ किन कोय।
रहिमन फाटे दूध को मथे न माखन होय।।
शब्दार्थ:
बिगरी = बिगड़ी।
फटे दूध = फटा हुआ दूध।
मथे = मरना।
अर्थ: मनुष्य को सोच-समझकर व्यवहार करना चाहिए, क्योंकि अगर किसी कारण से कोई काम बिगड़ जाए तो उसे बनाना मुश्किल हो जाता है, जैसे दूध एक बार फट जाए तो लाख कोशिशों के बाद भी उसमें से मक्खन नहीं निकल पाता।
दोहा- 09
रहिमन देखि बड़ेन को, लघु न दीजिये डारि।
जहाँ काम आवे सुई, कहा करे तरवारि।।
शब्दार्थ:
बड़ेन = बड़ा , विशाल।
लघु = छोटा।
आवे = आना।
तरवारि = तलवार।
अर्थ: बड़ों को देखकर छोटों को नहीं भगाना चाहिए। क्योंकि जहाँ छोटे का काम होता है, वहाँ बड़ा कुछ नहीं कर सकता। जिस प्रकार सुई का काम तलवार नहीं कर सकती।
दोहा- 10
रहिमन निज संपति बिना, कोउ न विपति सहाय।
बिनु पानी ज्यों जलज को, नहिं रवि सके बचाय।।
रहीम जी कहते हैं कि अपनी सम्पत्ति के अलावा मुसीबत में कोई सहायक सिद्ध नहीं होता। अर्थात् संकट के समय अपना ही धन काम आता है। जैसे यदि तालाब सूख जाता है तो उसमें खिला हुआ कमल भी नष्ट हो जाति है। उसे सूर्य जैसा प्रतापी भी नहीं बचा पाता। (किंतु यदि उस कमल के पास कीचड़ वाला ही सही किंतु उसका अपना थोड़ा सा ही जल होता तो भी उससे वह अपनी रक्षा कर लेता अर्थात् जी लेता। कहने का तात्पर्य है कि दूसरों के पास विपुल संपत्ति का भंडार हो फिर भी वह अपनी आपत्ति के समय किसी प्रकार सहाय रूप नहीं होता, अपने किसी काम नहीं आता।)
दोहा- 11
रहिमन पानी राखिए, बिनु पानी सब सून।
पानी गए न ऊबरै, मोती, मानुष, चुन ।।
शब्दार्थ:
निज = अपना।
संपत्ति = धन दौलत , पैसा।
बिपति = विपत्ति , मुसीबत।
सहाय = सहायता , मदद।
जलज = कमल।
रवि = सूरज।
अर्थ: कवि रहीमदास जी ने पानी को तीन प्रकार के अर्थों में प्रयोग किया है। पानी का पहला अर्थ मनुष्य के संदर्भ में ‘विनम्रता’ से है। मनुष्य में हमेशा विनम्रता (अर्थात् पानी) होना चाहिए। पानी का दूसरा अर्थ आभा, तेज या चमक से है जिसके बिना मोती(जिसमें आभा या चमक होती है के बिना मोती) का कोई मूल्य नहीं। तीसरा अर्थ जल से है जिसे आटे (चून) से जोड़कर दर्शाया गया है।
रहीम का कहना है कि जिस तरह आटे (अन्न के पिसे चूर्ण अर्थात् आटा) के बिना संसार का अस्तित्व नहीं हो सकता (अर्थात् सभी उसे ही खाकर जीवित हैं।), मोती का मूल्य उसकी आभा के बिना नहीं हो सकता है, उसी तरह विनम्रता के बिना व्यक्ति का कोई मूल्य नहीं हो सकता। मनुष्य को अपने व्यवहार में हमेशा विनम्र रहना चाहिए।
प्रश्न-अभ्यास
1. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए-
(क) प्रेम का धागा टूटने पर पहले की भाँति क्यों नहीं हो पाता ?
उत्तर – रहीम दास जी कहते हैं कि जिस प्रकार धागे को फिर से इस प्रकार करने के लिए जब हम उसे बांध देते हैं तो उसमें गांठ पड़ जाती है। वह पूर्व की भांति उसी प्रकार नहीं हो पाता है। इसी प्रकार प्रेम भी, जब उसमें किसी प्रकार की फूट पड़ जाती है तो फिर वह अपनी पूर्व अवस्था में नहीं आ पाता है। क्योंकि जब भरोसा टूट जाता है और टूटा हुआ भरोसा फिर पुनः पूर्ववत नहीं हो पाता भले ही कितना भी प्रयास कर लो अर्थात् उसमें कमी रह ही जाती है। जैसे कि धागे में उसको बांँधने पर गांठ आ जाती है और वह पूर्ववत् नहीं हो पाता।
(ख) हमें अपना दुःख दूसरों पर क्यों नहीं प्रकट करना चाहिए? अपने मन की व्यथा दूसरों से कहने पर उनका व्यवहार कैसा हो जाता है?
उत्तर – कवि रहीम दास जी कहते हैं कि हमें अपना दुख जहां-जहां प्रकट नहीं करना चाहिए। क्योंकि लोग हमारी दुखद अवस्था को जानकर उस पर हंसते हैं और सहाय रूप नहीं होते । इसलिए हमें हमारे मन की व्यथा ऐसे स्थान पर प्रकट नहीं करनी चाहिए जो उसका मजाक बनाए, हमारी हंँसी उड़ाते फिरें। उसे गंभीरता से न समझें।
(ग) रहीम ने सागर की अपेक्षा पंक जल को धन्य क्यों कहा है?
उत्तर – रहीम दास जी ने कीचड़ में रहने वाले पानी को इसलिए धन्य कहा है क्योंकि उससे सूक्ष्म-छोटे प्राणियों (कीड़े मकोड़े आदि) को प्यास मिटाने का अवसर मिल जाता है जबकि सागर का जल खारा होने के कारण वह उन प्राणियों की प्यास नहीं मिटा पाता।
(घ) एक को साधने से सब कैसे सध जाता है?
उत्तर – रहीम दास जी के कहने का तात्पर्य है कि हमें हमारे मूल कारण का ध्यान रखना चाहिए। जिस प्रकार किसी वृक्ष की जड़ पर जल सिंचन से पूरे वृक्ष की टहनियांँ हरी भरी होकर वह वृद्धि को प्राप्त होता है। उसी प्रकार हमारे अभीष्ट हेतु का ध्यान रखकर उसकी सुरक्षा और पोषण करने से हमारा समग्र कल्याण सुरक्षित रहता है। इसी बात को समझने के लिए उन्होंने कहा है एक साधे सब सधे, सब साधे सब जाय।
(ङ) जलहीन कमल की रक्षा सूर्य भी क्यों नहीं कर पाता?
उत्तर – जलहीन कमल की रक्षा सूर्य भी नहीं कर पाता क्योंकि कमल के पास उसका अपना धन ( या सामर्थ्य ) जो कि कीचड़ के साथ रहने वाला पानी है वह नहीं होता। तो अत्यंत सामर्थ्य धारण करने वाला सूर्य जो सारे ब्रह्मांड को प्रकाश और ऊर्जा देता है। वह भी उस कमल की रक्षा नहीं कर पाता, क्योंकि वह कमल की अपनी संपत्ति नहीं है।
इस प्रकार अपनी थोड़ी सी भी संपत्ति अपनी विपत्ति में काम आती है जबकि दूसरों के पास रहने वाली अपार संपदा भी हमारे लिए किसी काम की सिद्ध नहीं होती।
(च) अवध नरेश को चित्रकूट क्यों जाना पड़ा?
उत्तर – अवध के राजा राम को जब 14 वर्ष का वनवास दिया गया तब उन्हें चित्रकूट की ओर जाना पड़ा क्योंकि वहां गहन सघन वन प्रदेश था।
(छ) ‘नट’ किस कला में सिद्ध होने के कारण ऊपर चढ़ जाता है?
उत्तर – नट अपनी कुंडली में सिमट कर छोटा सा होजाने के कारण वह तरह तरह के विस्मयकारी करतब दिखा देता है और ऊपर भी चढ़ जाता है।
(ज) ‘मोती, मानुष, चुन के संदर्भ में पानी के महत्त्व को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर – कवि रहीमदास जी ने पानी को तीन प्रकार के अर्थों में प्रयोग किया है।
01-पानी का पहला अर्थ मनुष्य के संदर्भ में ‘विनम्रता’ से है। मनुष्य में हमेशा विनम्रता (अर्थात् पानी) होना चाहिए।
02-पानी का दूसरा अर्थ आभा, तेज या चमक से है जिसके बिना मोती(जिसमें आभा या चमक होती है के बिना मोती) का कोई मूल्य नहीं।
03-तीसरा अर्थ जल से है जिसे आटे (चून) से जोड़कर दर्शाया गया है। रहीम का कहना है कि जिस तरह आटे(अन्न के पिसे चूर्ण अर्थात् आटा) के बिना संसार का अस्तित्व नहीं हो सकता (अर्थात् सभी उसे खाकर जीवित हैं।)
2. निम्नलिखित का भाव स्पष्ट कीजिए-
(क) टूटे से फिर ना मिले, मिले गाँठ परि जाय।
उत्तर – रहीम दास जी कहते हैं कि जिस प्रकार धागे को फिर से इस प्रकार करने के लिए जब हम उसे बांध देते हैं तो उसमें गांठ पड़ जाती है। वह पूर्व की भांति उसी प्रकार नहीं हो पाता है। इसी प्रकार प्रेम भी, जब उसमें किसी प्रकार की फूट पड़ जाती है तो फिर वह अपनी पूर्व अवस्था में नहीं आ पाता है। क्योंकि जब भरोसा टूट जाता है और टूटा हुआ भरोसा फिर पुनः पूर्ववत नहीं हो पाता भले ही कितना भी प्रयास कर लो अर्थात् उसमें कमी रह ही जाती है। जैसे कि धागे में उसको बांँधने पर गांठ आ जाती है और वह पूर्ववत् नहीं हो पाता।
(ख) सुनि अठिलैहैं लोग सब, बाँटि न लैहैं कोय।
उत्तर – कवि रहीम दास जी कहते हैं कि जब हम जहां-तहां बिना सोचे समझे हमारे दुख को लोगों के सामने उजागर करने लगते हैं, तो फिर लोग उसका मजाक बना लेते हैं और हमारा दुख जो पहले से ही बहुत था, उसे और बढ़ा देते हैं और हम अधिक दुखी हो जाते हैं। इसीलिए हमें जहां कहीं भी अपना दुख व्यक्त नहीं करना चाहिए बल्कि उसे छुपाकर रखना चाहिए। और उसी स्थान पर कहना चाहिए या ऐसे ही लोगों से उसे कहना चाहिए जो हमारे दुख को दूर करने में हमारी सहायता कर सकें। उसे हमसे दूऊकर सकें।
(ग) रहिमन मूलहिं सीचिबो, फूलै फलै अघाय।
उत्तर – एक मूल कार्य करने से उस पर आश्रित हमारे सभी काम सिद्ध हो जाते हैं। और सबकी ओर भागते रहने से सबके चले जाने की संभावना रहती है – जैसे किसी पौधे की जड़ को ही पानी देने से फूल और फल सभी को पानी मिल जाता है और उन्हें अलग-अलग सींचने की जरूरत नहीं पड़ती।
तात्पर्य यह है कि हमें मूलभूत कारण पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए।
(घ) दौरघ दोहा अरथ के, आखर थोरे आहिं।
उत्तर – रहीम दास जी कहते हैं की दोहे का आकार तो छोटा सा रहता है किंतु ऐसे छोटे-छोटे दोहों में भी बड़ी और गहन और महत्वपूर्ण बातों को सरलता से कह दिए जाने की सामर्थ्य होती है।
(ङ) नाद रीझि तन देत मृग, नर धन हेत समेत।
उत्तर – कवि रहीम दास जी कहते हैं कि जिस प्रकार हिरण मधुर संगीत या किसी मधुर ध्वनि के सुनाई आने पर और अपने प्राणों को संकट में डालकर,उसके पीछे-पीछे जाने लगता है तब शिकारी उसके प्राणों को हर लेता है। उसी प्रकार व्यक्ति भी धन की तृष्णा को लेकर अपने पास जो कुछ भी है उसे दांव पर लगा देता है। अर्थात् धन की आशा में वह नष्ट हो जाता है। तात्पर्य यह है कि धन का निर्रथक व अत्यधिक लोभ करना व्यर्थ है।
(च) जहाँ काम आवे सुई, कहा करे तरवारि।
उत्तर – रहीम ने इस दोहे में बताया है कि हमें कभी भी बड़ी वस्तु की चाह में छोटी वस्तु को फेंकना या व्यर्थ नहीं मान लेना चाहिए, क्योंकि जो काम एक सुई कर सकती है वही काम एक तलवार नहीं कर सकती। अत: हर वस्तु का अपना अलग महत्व है। ठीक इसी प्रकार हमें किसी भी इंसान को छोटा नहीं समझना चाहिए सभी का अपना अलग-अलग महत्व है सभी महत्वपूर्ण हैं।
(छ) पानी गए न ऊबरै, मोती, मानुष, चून।
उत्तर – कवि रहीम जी यहां पर पानी के तीन अर्थों का प्रयोग करते हैं। मनुष्य के लिए पानी अर्थात विनम्रता है। मोती के लिए पानी अर्थात उसकी आभा या चमक है। और चून अर्थात् अन्न का आटा जिससे रोटी बनाई जाती है, उसके लिए पानी का अर्थ पानी ही है। इस प्रकार यदि मनुष्य में से विनम्रता को अलग कर दिया जाए तो फिर उसमें कुछ नहीं बचता, उसका कोई मूल्य नहीं है।
इस प्रकार मोती में से यदि चमक हटा दी जाए तो फिर उस मोती का कोई मोल नहीं होता। और यदि आटे में से पानी हटा दिया जाए तो उससे रोटी नहीं बनाई जा सकती अर्थात् उसका फिर कोई महत्व नहीं है क्योंकि आप उसका सीधा-सीधा खाने में उपयोग नहीं कर सकते।
3. निम्नलिखित भाव को पाठ में किन पंक्तियों द्वारा अभिव्यक्त किया गया है-
(क) जिस पर विपदा पड़ती है वही इस देश में आता है।
पंक्ति – जा पर विपदा पड़त है, सो आवत यह देस।।
(ख) कोई लाख कोशिश करे पर बिगड़ी बात फिर बन नहीं सकती।
पंक्ति -बिगरी बात बनै नहीं, लाख करौ किन कोय।
(ग) पानी के बिना सब सुना है अतः पानी अवश्य रखना चाहिए।
पंक्ति -रहिमन पानी राखिए, बिनु पानी सब सून।
4. उदाहरण के आधार पर पाठ में आए निम्नलिखित शब्दों के प्रचलित रूप लिखिए-
उदाहरण:
कोय कोई,
जे जो
ज्यों
कछ
नहिं
कोय
धनि
आखर
जिय
थार
होय
माखन
तरवारि
सौचिवो
मूलहि
पिअत
पिजासो
बिगरी
आवे
ऊबरे
अंठिलैहैं
बिथा
परिजाय
उत्तर :
ज्यों <–> जैसे
कछु <–> कुछ
नहिं <–> नहीं
कोय <–> कोई
धनि <–> धन्य
आखर <–> अक्षर
जिय <–> जीव
थोरे <–> थोड़े
होय <–> होना
माखन <–> मक्खन
तरवारि <–> तलवार
सींचिबो <–> सींचना
मूलहिं <–> मूल को
पिअत <–> पीना
पिआसो <–> प्यासा
बिगरी <–> बिगड़ी
आवे <–> आना
सहाय <–> सहायक
ऊबरै <–> उबरना
बिनु <–> बिना
बिथा <–> व्यथा
अठिलैहैं <–> इठलाना
परिजाय <–> पड़ जाती है