एक महान रचनाकार-सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’


परिचय

पं. श्री सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की रचनाओं में हिन्दी-पाठक प्रारंभ से ही अनेक संभावनाओं की खोज करता रहा है। व्यक्ति के स्तर पर महाप्राण स्वीकृत नाम है। रचना के स्तर पर वे साहित्य के विभिन्न चरणों का प्रतिनिधित्व करते हैं- छायावाद, प्रगतिवाद प्रयोगवाद और नयी कविता तक। पर मूल में उनका स्वच्छन्दतावादी व्यक्तित्व है जिसके प्रकाशन और अभिव्यक्ति के लिए उन्होंने मुक्त छंद को अपनाया, लगभग वैदिक मंत्रों की तरह। उनकी स्पष्ट घोषणा है, ‘मनुष्यों की मुक्ति की तरह ही कविता की भी मुक्ति होती है।’ उनके व्यक्तित्व निर्माण में महिषादल (बंगभूमि) और बैसवाड़ा उत्तरप्रदेश की महत्त्वपूर्ण भूमिका है जहाँ उन्होंने अपने जीवन-संघर्ष के साथ-साथ प्रकृति और जीवन के सौंदर्य से संस्कार प्राप्त किये।

आपका जन्म फरवरी, 1899 में हुआ था और इसे आपने अपने प्रिय ऋतु बसंत की पंचमी से जोड़ लिया। अद्यतन हिन्दी संसार इसी परम्परा का निर्वहन करता आ रहा है। पिता राम सहाय बंगाल पुलिस में थे, महिषादल में उनके साथ रहते हुए निराला जी भारतीय नव जागरण के सर्वोत्तम से परिचित होते हैं और रामकृष्ण विवेकानंद के अद्वैत दर्शन (वेदांत) को अपनाते हैं, इसलिए उन्हें हिन्दी के लिए बंगाला रेनेशां की देन कहा गया।

बंगाल के बाद वे बैसवाड़ा आते हैं। वे अपने पैतृकग्राम गढ़ाकोला में भी रहे। इसके बाद कानपुर, लखनऊ, उन्नाव, काशी और प्रयाग उनकी कर्मभूमि रही है। उनका पारिवारिक जीवन लगभग दुःखांत नाटक की तरह अस्त-व्यस्त रहा है। बचपन में ही माँ को खोया, युवावस्था में ही परिवार के अनेक सदस्य काल-कवलित हुए। वर्ष 1918 की महामारी में कविप्रिया ‘मनोहरा’ नहीं रहीं। उनकी दो संताने हैं बेटी सरोज और बेटा रामकृष्ण। बेटी सरोज चिकित्सा के अभाव में अठारह वर्ष पूर्ण करते ही चली गई। जिसे कवि ने तरुण जनक से जन्म की बिदा अरुण कहा है। बेटी के निधन पर रचित सरोज स्मृति हिन्दी 

साहित्य

का इकलौता शोक गीत है जिसे एक पिता ने अपनी पुत्री के निधन पर लिखा। इस गीत में निराला अपने जीवन के सूत्र देते हैं और सामाजिक कटुता का यथार्थ चित्रण भी करते हैं। कविता की महत्त्वपूर्ण पंक्ति है- ‘दुःख ही जीवन की कथा रही, क्या कहूँ आज जो नहीं कही।’ उनकी अवसान तिथि अक्टूबर 1961 है। सन् 1916 से 1961 तक की लम्बी रचना यात्रा में ऐसे अनेक दृश्य हैं जो शिल्प और कथा की दृष्टि से निराला को विशिष्ट बनाते हैं।

उनके साहित्यिक मित्रों में प्रमुख हैं- सेठ महादेव (जिनके साथ ‘मतवाला’ का प्रकाशन हुआ और यहीं से निराला शब्द भी सामने आया), शिवपूजन सहाय, दुलारेलाल भार्गव, कृष्णमोहन वाजपेयी, नंददुलारे वाजपेयी, रामविलास शर्मा, जानकी वल्लभ शास्त्री, महादेवी वर्मा और अनेक रचनाकार मित्र जिनके साथ निराला स्वयं को रचते रहे।

उन्हें स्वयं को गद्य-पद्य के ‘समाभ्यस्त’ कहा है। वे अनेक विधाओं में लिखते रहे हैं- उनकी रचनाओं में प्रमुख हैं-

काव्य – 

प्रथम अनामिका (1922), परिमल (1929), गीतिका, तुलसीदास (1938), अणिमा (1943), बेला (1943), कुकुरमुत्ता (1942) (1948), नये पते (1946), अर्चना (1950), आराधना (1953), गीतगुंज (1964) और सांध्य काकली (1969)।

उपन्यास- 

निरूपमा, चोटी की पकड़, प्रभावती, काले कारनामे, अप्सरा। कहानी संग्रह- सुकुल की बीवी, चतुरी चमार, लिली, सखी।

रेखाचित्र- 

कुल्लीभाट, बिल्लेसुर बकरिहा।

निबंध-

 प्रबन्ध प्रतिमा, चयन, चाबुक ।

व्यावहारिक समीक्षा – 

रवीन्द्र कविता कानन।

अनुवाद –

 रामकृष्ण कथामृत तथा रामचरित मानस का खड़ी बोली में। 

काव्य दृष्टि 

निराला का समय भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के संघर्ष, प्रथम और द्वितीय विश्व युद्ध के मध्य से लेकर स्वतंत्र भारत तक है और इसके मध्य वे भारतीय मूल्यों को पुनर्स्थापित करने पर बल देते हैं। वे प्रिय स्वतंत्र रव अमृत मंत्र नव की प्रार्थना करते हैं, जिससे सम्पूर्ण संसार जगमग हो जाये। भारतीय संस्कृति के उन्नायकों में  राम उनके प्रिय चरित्र हैं। उनके युद्ध वर्णन को लेकर ‘राम की शक्तिपूजा’ लिखी। इसमें ये नवीन पुरुषोत्तम की अवधारणा पर बल देते हैं। 

डॉ. रामविलास शर्मा ने उन्हें अपनी जनता का कवि कहा है क्योंकि वे तोड़ती पत्थर जैसी अनेक यथार्थवादी रचनाएँ दे सके हैं। स्वच्छदतावादी रचनाओं में सौंदर्य- चित्रण करते हए वे स्वकीया भाव को प्राथमिकता देते हैं इसलिए उन्हें आचार्य नंद दुलारे वाजपेयी ने ‘अस्खलित सौंदर्य का कवि’ कहा है। वेदांत निराला के लिए सौंदर्य चित्रण में कवच की तरह कार्य करता है। वर्षा और बसंत उनकी प्रिय ऋतुएँ हैं और वे ऋतुओं के माध्यम से जीवन के सुख-दुःखों को अभिव्यक्त कर देते हैं, एक ही ऋतु की अनेक भावनाओं से जुड़े चित्र उनकी रचनाओं में प्राप्त होते हैं। 

हिन्दी साहित्य की रचनाशीलता में निराला स्वच्छंदतावाद, नवजागरण, नववेदांत के समर्थ पोषक हैं। नयी रचनाशीलता को वे नवसंस्कार देते हैं। भाषा की दृष्टि से वे बहु स्तरीय हैं। तत्सम प्रधान शब्दावली से लेकर देशज और ग्राम की ठेठ शब्दावली के मध्य अन्य भाषाओं के शब्दों को भी अपनी शैली में प्रयोग करते हैं जो किसी एक पीढ़ी की रचनाओं में नहीं दीख पड़ती, इसलिए उन्हें पीढ़ियों का कवि भी कहा गया। अपने समय और समाज को समग्रता में प्रस्तुत करने वाले वे सबसे महत्त्वपूर्ण कवि हैं।

प्रस्तुत कविता निराला जी के प्रतिनिधि संग्रह ‘परिमल’ में तथा निराला रचनावली के भाग 1 में संकलित है। यह प्रथमतया ‘मतवाला’ (कलकत्ता, 27 मार्च, 1926) में प्रकाशित हुई थी। ‘जागो फिर एक बार’ शीर्षक से निराला जी ने दो कविताएँ लिखी हैं और दोनों की भावभूमियाँ भिन्न-भिन्न हैं। प्रथम कविता प्रिय को जगाने के लिए प्रिया द्वारा किया गया उपक्रम है जहाँ कवि ने अरुणोदय के माध्यम से चेतना के जागरण के नये आयाम की कल्पना की है और इसके राष्ट्रीय आशय भी स्पष्ट हैं। दूसरी कविता ओजगुण सम्पन्न है और देशप्रेम की भावनाओं को उद्धृत करती है।

‘जागो फिर एक बार’ शीर्षक सांकेतिक है। भारतीय इतिहास, समाज और संस्कृति के विविध पहलुओं का संकेत करती हुई यह कविता भारतीय जनता को फिर से जगाने के लिए प्रेरित करती है। तात्पर्य यह कि जाग्रत जनता को पुनर्जाग्रत होने की आवश्यकता है। यह आव्हान ऐसी जनता के प्रति है जिसकी विरासत में श्रेष्ठता है पर उसे पहचानने की शक्ति परिस्थिति जन्य नहीं रह गयी है। कविता में पराधीन भारत अथवा अँग्रेजी राज का सीधा उल्लेख नहीं है, पर रचना-काल 

की दृष्टि से यह धारणा पुष्ट होती है कि कवि का मन्तव्य भारतीय स्वतंत्रता ही है। निराला ने सांस्कृतिक सूर्य के अस्त होने और गहन अंधकार छा जाने की ओर अनेक कविताओं में संकेत किया है। कालचक्र में दबे हुए राजकुमारों जैसी पंक्तियाँ स्पष्ट करती हैं कि कविता का सम्बन्ध नवयुवकों से है। अनेक महापुरुषों गीता उपनिषदों की उक्तियों का उदाहरण देते हुए भारतीयों को जगाने का प्रयास किया गया है। सिंह अपनी प्रकृति के विरुद्ध सियारों से कैसे भयभीत हो सकते हैं, सिंहनी से कोई उसका शावक छीनने का प्रयास कैसे कर सकता है।

कविता में भारतीय दर्शन ‘अहम् ब्रह्मास्मि’ की स्थापना भी की गयी है, जिसके ज्ञातभाव से प्रत्येक बाधा का समाधान होता है। कविता का मंतव्य है विश्व की बाधाएँ पैरों की धूल के बराबर भी नहीं हैं। गुरु गोविंद सिंह और सत् श्री अकाल के उद्घोष से प्रारंभ हुई कविता योग की शब्दावली के माध्यम से भी सहस्त्रार के भेदन पर बल देती है। कविता की स्थापना यही है कि संसार में योग्य जन को ही जीवन जीने का अधिकार प्राप्त होता है। यह उक्ति भारत की ही देन है अन्य देश की नहीं। इसे ही बार-बार स्मरण करना है कि हम वीर हैं, समर शूर हैं, ब्रह्म हैं, इसी स्मरण से हमारा भविष्य आत्मनिर्भर हो सकेगा।

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