116-आचार्य रामचन्द्र शुक्ल परिमार्जित गद्य की प्रथम पुस्तक किसे मानते हैं ?
(A) नासिकेतोपाख्यान
(B) सुखसागर
(C) प्रेमसागर
(D) भाषायोग वशिष्ठ
MPPSC सहायक प्राध्यापक परीक्षा-2022 द्वितीय प्रश्न पत्र हिंदी परीक्षा तिथि-09/06/2024-SET-B
उत्तर – (D) भाषायोग वशिष्ठ
विक्रम संवत 1798 में रामप्रसाद ‘निरंजनी’ ने ‘भाषायोगवासिष्ठ’ नाम का ग्रंथ साफ सुथरी खड़ी बोली में लिखा। ये पटियाला दरबार में थे और महारानी को कथा बाँचकर सुनाया करते थे। इनके ग्रंथ देखकर यह स्पष्ट हो जाता है कि मुंशी सदासुख और लल्लूलाल से बासठ वर्ष पहले खड़ी बोली का गद्य अच्छे परिमार्जित रूप में पुस्तकें आदि लिखने में व्यवहृत होता था। अब तक पाई गई पुस्तकों में यह ‘भाषा योगवासिष्ठ’ ही सबसे पुराना है जिसमें गद्य अपने परिष्कृत रूप में दिखाई पड़ता है। अतः जब तक और कोई पुस्तक इससे पुरानी न मिले तब तक इसी को परिमार्जित गद्य की प्रथम पुस्तक और राम प्रसाद निरंजनी को प्रथम प्रौढ़ गद्यलेखक मान सकते हैं। ‘भाषायोगवासिष्ठ’ से दो उद्ध रण आगे दिए जाते हैं, (क) प्रथम परब्रह्म परमात्मा का नमस्कार है जिससे सब भासते हैं और जिसमें सब लीन और स्थित होते हैं, × × × जिस आनंद के समुद्र के कण से संपूर्ण विश्वआनंदमय है, जिस आनंद से सब जीव जीते हैं। अगस्तजी के शिष्य सुतीक्षण के मन में एक संदेह पैदा हुआ तब वह उसके दूर करने का कारण अगस्त मुनि के आश्रम को जा विधिसहित प्रणाम करके बैठे और बिनती कर प्रश्न किया कि हे भगवान! आप सब तत्वों शास्त्रों के जाननहारे हो, मेरे एक संदेह को दूर करो। मोक्ष का कारण कर्म है किज्ञान है अथवा दोनों हैं, समझाय के कहो। इतना सुन अगस्त मुनि बोले कि हे ब्रह्मण्य! केवल कर्म से मोक्ष नहीं होता और न केवल ज्ञान से मोक्ष होता है, मोक्ष दोनों से प्राप्त होता है। कर्म से अंतःकरण शुद्ध होता है, मोक्ष नहीं होता और अंतःकरण की शुद्धि बिना केवल ज्ञान से मुक्ति नहीं होती। (ख) हे रामजी! जो पुरुष अभिमानी नहीं है वह शरीर के इष्ट-अनिष्ट में रागद्वेष नहीं करता क्योंकि उसका शुद्ध वासना है। x × × मलीन वासना जन्मों का कारण है। ऐसी वासना को छोड़कर जब तुम स्थित होगे तब तुम कर्ता होते हुए भी निर्लेप रहोगे। और हर्ष, शोक आदि विकारों से जब तुम अलग रहोगे तब वीतराग, भय, क्रोध से रहित रहोगे। × × × जिसने आत्मतत्व पाया है वह जैसे स्थित हो वैसे ही तुम भी स्थित हो। इसी दृष्टि को पाकर आत्मतत्व को देखो तब विगतज्वर होगे और आत्मपद को पाकर फिर जन्म मरण के बंधान में न आवोगे।
117. ‘हिन्दी नई चाल में ढली, सन् 1873 ई.।’ उक्त कथन भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने किसमें कहा ?
(A) कालचक्र
(B) कवि वचन सुधा
(C) हरिश्चन्द्र चंद्रिका
(D) बाला बोधिनी
MPPSC सहायक प्राध्यापक परीक्षा-2022 द्वितीय प्रश्न पत्र हिंदी परीक्षा तिथि-09/06/2024-SET-B
उत्तर – (A) कालचक्र
हिंदी ‘नई चाल में ढली , सन् 1873 ई. , भारतेंदु हरिश्चंद्र ने इसे कालचक्र पुस्तक में अंकित किया था। भारतेंदु की समस्त रचनाओं की संख्या 175 है । भारतेंदु को रसा उपनाम से जाना जाता था।
118. सरदार पूर्ण सिंह ने कुल कितने निबंध लिखे ?
(A) 10
(B) 9
(C) 8
(D) 6
MPPSC सहायक प्राध्यापक परीक्षा-2022 द्वितीय प्रश्न पत्र हिंदी परीक्षा तिथि-09/06/2024-SET-B
उत्तर -. (D) 6
हिंदी में लिखे पूर्णसिंह के केवल छह निबंध ही मिलते हैं। वे हैं : सच्ची वीरता, कन्यादान, पवित्रता, आचरण की सभ्यता, मजदूरी और प्रेम और अमरीका का मस्ताना योगी वाल्ट व्हिटमैन।
119. ‘उपन्यास’ नाम से मासिक पत्र कौन निकालता था ?
(A) किशोरीलाल गोस्वामी
(B) राधाचरण गोस्वामी भासन
(C) श्रीनिवास दास
(D) बदरीनारायण चौधरी ‘प्रेमधन’
MPPSC सहायक प्राध्यापक परीक्षा-2022 द्वितीय प्रश्न पत्र हिंदी परीक्षा तिथि-09/06/2024-SET-B
उत्तर – (A) किशोरीलाल गोस्वामी
कहानी, नई कहानियाँ, उपन्यास – भैरव प्रसाद गुप्त
उपन्यास-मासिक 1898 काशी गोपाल राम गहमरी
120 कुबेरनाथ राय के निबंध संग्रह ‘प्रिया नीलकंठी’ का प्रकाशन वर्ष है
(A) 1970
(B) 1967
(C) 1968
(D) 1969
MPPSC सहायक प्राध्यापक परीक्षा-2022 द्वितीय प्रश्न पत्र हिंदी परीक्षा तिथि-09/06/2024-SET-B
उत्तर – (D) 1969
निबन्ध प्रिया नीलकंठी, भारतीय ज्ञानपीठ, १९६९
कुबेरनाथ राय (1933—1996) की रचनाएँ/Works of Kubernath Rai
कृतियाँ
- प्रिया नीलकंठी (1969)
- रस आखेटक (1971 )
- गंधमादन (1972)
- विषाद योग (1973)
- निषाद बाँसुरी (1974)
- पर्ण मुकुट (1978)
- महाकवि की तर्जनी (1979)
- पत्र मणिपुतुल के नाम (1980)
- मनपवन की नौका (1982)
- किरात नदी में चंद्रमधु (1983)
- दृष्टि अभिसार (1984)
- त्रेता का वृहत्साम (1986)
- कामधेनु (1990)
- मराल (1993)
- उत्तरकुरु (1994)
- चिन्मय भारत : आर्ष चिंतन के बुनियादी सूत्र (1996)
- वाणी का क्षीरसागर (1998)
- अंधकार में अग्निशिखा (1998)
- रामायण महातीर्थम् ( 2002)
- अगम की नाव (2008)
काव्य-संग्रह
कंथामणि (1998)
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