पूजा करना, सेवा करना, तरह-तरह के नियमों का पालन करना, व्रत रखना यह सभी वस्तुएं या यह सभी क्रियाकलाप आध्यात्मिक क्षेत्र में गुड़ियों के खेल जैसा है अर्थात् जैसे छोटे बच्चे गुड्डी गुड़िया से खेलते हैं भक्ति के क्षेत्र में यह भी उसी तरह का बच्चों का खेल है। कबीरदास जी कहते हैं कि जब तक पिउ अर्थात् ईश्वर का या आत्म स्वरूप का अनुभव नहीं हो जाता अर्थात आत्मानुभूति नहीं हो जाती तब तक यह जो संसार है कि मैं ब्रह्म हूं कि नहीं , इसका विनाश नहीं होता। अनुभूति के पश्चात कोई भी अपने को आत्म स्वरूप, मुक्त स्वरूप, जीवन्मुक्त स्वरूप में अनुभव करता है। और उसके सभी संशय नष्ट हो जाते हैं।
पद 162
जात न पूछो साधुकी, पूछि लीजिये ज्ञान।
मोल करो तलवारका, पड़ा रहन दो म्यान।।
हस्ती चढ़िए ज्ञानकौ, सहज दुलीचा डारि।
स्वान-रूप संसार है, भूँकन दे झक मार।।
भावार्थ :-
यदि आप अपना परमार्थ सिद्ध करना चाहते हैं और आपके द्वार पर कोई साधु आता है तो कबीरदास जी कहते हैं कि कभी भी साधु की जाति नहीं पूछनी चाहिए क्योंकि उसका महत्व तो आपको परमार्थ के मार्ग पर जाने में सहायता पहुंचाने में है। वह आपके परमार्थ के मार्ग को सरल और सुगम बनाता है जिस प्रकार युद्ध के समय पर म्यान किसी काम नहीं आती, तलवार से ही युद्ध किया जाता है। उसी प्रकार परमार्थ के मार्ग पर भी साधु की जाति आदि किसी काम नहीं आती बल्कि उसका ज्ञान काम आता है जो आपको परमार्थ के मार्ग पर सफल करके आपको जीवनमुक्त बनाता है ब्रह्मवेत्ता बनाता है।
कबीर दास जी कहते हैं की ज्ञान रूपी हाथी पर सुंदर सा दुलीचा डालकर उस पर आराम से बैठकर यात्रा करनी चाहिए और यदि उस यात्रा के दौरान, तात्पर्य यह है कि जब आप ज्ञान को प्राप्त कर लेते हैं तब आप ज्ञान के आनंद में इतनी सराबोर रहते हैं कि संसार के अन्य लोग आपसे कुछ भी कहें, आपको कोई अंतर नहीं पड़ता। जिस प्रकार किसी हाथी के मस्त चाल से जाते हुए बहुत से कुत्ते भोकने लगते हैं किंतु हाथी अपनी चाल से चला जाता है उसे इन बातों से कोई हानि नहीं होती, कोई फर्क नहीं पड़ता। इसी प्रकार ज्ञानवान के संसार के व्यवहार के प्रति निश्चिंत हो जाने की यह घोषणा है जो कि उसके ज्ञान लाभ कर लेने के कारण उसमें सहज ही दिखाई देती है।