कबीर ग्रंथावली (संपादक- हजारी प्रसाद  द्विवेदी) पद संख्या 167 अर्थ सहित

kabir ke pad arth sahit.

पद: 167

अबूझा लोग कहाँलौ बूझे बुझनहार बिचारो।।

केते रामचंद्र तपसी से जिन जग यह भरमाया।

केते कान्ह भये मुरलीधर तिन भी अन्त न पाया।।

मच्छ-कच्छ बाराह स्वरूपी वामन नाम धराया।

केते बौध भये निकलंकी तिन भी अन्त न पाया।।

केतिक सिध-साधक-सन्यासी जिन बन बास बसाया।

केते मुनिजन गोरख कहिये तिन भी अन्त न पाया।।

जाकी गति ब्रह्मै नहिं पाये सिव-सनकादिक हारे।

तोके गुण नर कैसे पैहो कहै कबीर पुकारे।।

भावार्थ :-

संत कबीर जी कहते हैं कि जो अबूझ अर्थात अनभिज्ञ लोग हैं वह उसे ईश्वर को नहीं जानते अपितु कोई बिरला ही बूझने अर्थात् पहचानने या जानने वाला ही उसे जान पता है। वे कहते हैं कि रामचंद्र की तरह कितने ही तपस्वी इस संसार में आए किंतु लोग उनसे भी भ्रमित ही होते रहे। कितने ही कान्हा इस पृथ्वी पर आए और मुरलीधर के रूप में प्रसिद्ध हुए किंतु उन्होंने भी उसे परम तत्व का उस ईश्वर का अंत न पाया।

  कितने ही अवतार मत्स्य अवतार कच्छप अवतार वाराह रूपी अवतार और वामन रूपी अवतार भी इस धरा पर आए किंतु उससे भी लोग उस अंतिम मुक्ति या परम तत्व को जान नहीं पाए। इसी प्रकार कितने ही बुद्ध हो गए किंतु तभी भी लोग उस निर्गुण राम के अंत को पा न सके यहां पर इसका यह अर्थ भी हो सकता है तिन भी अंत न पाया अर्थात् भगवान बुद्ध ने भी उस अनंत ईश्वर का अंत नहीं पाया। क्योंकि वह ईश्वर अनंत है उसका कोई अंत नहीं है उसका इसीलिए एक नाम अनंत है।

 कितने ही सिद्ध साधक और संन्यासी जन उस ईश्वर को जानने के लिए वन में निवास करते रहे हैं कितने ही मुनीजन और गोरखनाथ जैसे योगी भी उस ईश्वर को जानने के लिए प्रयासरत रहे हैं किंतु किसी ने भी उस ईश्वर का अंत अथवा सीमा को प्राप्त नहीं किया है। जिसकी गति ब्रह्मा भी नहीं जान सके।  जिसकी गति को शिव और सनकादिक ऋषि भी खोज करते-करते हार गए हैं। ऐसे ईश्वर के गुण को कोई मनुष्य या साधारण व्यक्ति कैसे प्राप्त कर सकता है?  कबीर दास जी कहते हैं कि मैं बार-बार पुकार पुकार कर यह सब को समझाता हूं।