कबीर ग्रंथावली (संपादक- हजारी प्रसाद  द्विवेदी) पद संख्या 172 अर्थ सहित

पद: 172

चली मैं खोजमे पियकी। मिटी नहीं सोच यह जियकी।।

रहे नित पास ही मेरे। न पाऊँ यार को हेरे।।

बिकल चहुँ ओरको धाऊँ। तबहुँ नहिं कंतको पाऊँ।।

धरो केहि भाँतिसो धीरा। गयौ गिर हाथ से हीरा।।

कटी जब नैन की झांई। लख्यौ तब गगनमें साईं।।

कबीरा शब्द कहि त्रासा। नयन में यारको बासा।।   

भावार्थ :-

कबीरदास जी अपने को प्रियतमा की तरह देखते हुए कहते हैं कि मुझे अपने प्रियतम अर्थात ईश्वर से मिलने की बड़ी इच्छा है और मेरी यह आशा यह चिंता अभी मिटी नहीं है और मैं अपने पिया की खोज में जा रही हूं। ऐसा जो मेरा पिया है वह नित ही याने रोज मेरे पास ही रहता है फिर भी मैं उसको अपने पास पाती नहीं हूं उससे मिल नहीं पाते हो और बहुत विकल होकर अधीर होकर स्थिर होकर मैं चारों ओर दौड़ दौड़ कर उसको देखना चाहती हूं किंतु है मुझे कहीं भी दिखाई नहीं देता है उसको मैं कहीं भी पाती नहीं हूं और इस प्रकार जब मुझे पता है कि वह मेरे पास ही है तब मैं किस प्रकार से अपने को धीरज बनाऊं क्योंकि अब तक वह मुझे मिला नहीं है और वे कहते हैं कि जैसे किसी व्यक्ति के पास हाथ में हीरा रखा हुआ हो और वह उसकी लापरवाही से गिर जाए,खो जाये, तब वह व्यक्ति अधीर होकर उस हीरे को ढूंढता रहता है उसी प्रकार में अपने स्वामी को ईश्वर को प्रियतम को खोज रही हो अथवा खोज रहा हूं।

अब कबीर दास जी कहते हैं कि इस प्रकार जब मैं ईश्वर को खोज और मेरे मेरी दृष्टि का जो दोस्त था जो जाई थी जब वह कट गई नष्ट हो गई निकल गई दृष्टि दोष मेरा समाप्त हो गया तब मैंने साइन को अर्थात ईश्वर को आकाश में देखा आकाश में देखने का तात्पर्य है की आज्ञा चक्र में जब सुषुम्ना में इड़ा और पिंगला के द्वारा इड़ा और पिंगला और सुषुम्ना का एकत्व होता है और वह वायु जब ऊपर के केंद्रों में गमन करता है तो उसी को आकाश गमन कहा जाता है और उसके उपरांत ही सहस्रार की  ओर जाते हुए योगी को ईश्वर का अनुभव होता है, आत्मा अनुभव होता है ऐसा योग शास्त्रों में वर्णन आता है। कबीरदास जी कहते हैं कि अब मैं संतुष्ट हो गया हूं संतृप्त हो गया हूं और अब मुझे बोलने में त्रास या प्रतिकूलता का अनुभव होता है और अब मेरे यार का, मेरे स्वामी का निवास मेरे नेत्रों में ही हो गया है अब उसे कहीं मुझे ढूंढना नहीं पड़ता भटकना नहीं पड़ता।