कबीर ग्रंथावली (संपादक- हजारी प्रसाद  द्विवेदी) पद संख्या 173 अर्थ सहित

पद: 173

तलफै बिन बालम मोर जिया।

दिन नहिं चैन रात नहिं निंदिया, तलफ तलफके भोर किया।

तन-मन मोर रहंट-अस डोलै, सून सेज पर जनम छिया।

नैन चकित भए पंथ न सूझै, साईँ बेदरदी सुध न लिया।

कहत कबीर सुनो भइ साधो, हरो पीर दुख जोर किया।

भावार्थ :-

कबीर दास जी अपनी विरह वेदना को व्यक्त करते हुए कहते हैं कि उसे ईश्वर रूपी प्रियतम के बिना मेरा मन अत्यधिक तड़प का अनुभव करता है ना तो दिन में आता है नहीं रात में नींद आती है और इसी तरह तड़प तड़प कर बेचैनी में सुबह हो जाती है।

मेरा तन और मन रहट की तरह एक ही स्थान पर जैसे रहता हुआ घूमता है, इस तरह घूमते रहता है और मेरा जो जीवन है वह जैसे सूनी सेज पर अकेले ही व्यतीत हो रहा है। अर्थात मैं विरह से व्याकुल हूं। वह कहते हैं कि मेरे मेरी दृष्टि आसानी चकित है और भ्रमित है मुझे कोई रास्ता सोचता नहीं है और तो उपरांत भी उसे मेरे स्वामी को ईश्वर को मेरे दुख की कोई सुधि नहीं है, उसने मेरी कोई खबर नहीं ली है।