पद: 174
अबिनासी दुलहा कब मिलिहौ, भक्तन के रछपाल॥टेक॥
जल उपजल जल ही से नेहा, रटत पियास पियास।
मैं बिरहिनि ठाढ़ी मग जोऊँ, प्रीतम तुम्हरी आस॥1॥
छोड़्यो गेह नेह लगि तुमसे, भई चरन लौलीन।
तालाबेलि होत घट भीतर, जैसे जल बिन मीन॥2॥
दिवस न भूख रैन नहिं निद्रा, घर अँगना न सुहाय।
सेजरिया बैरिनि भइ हमको, जागत रैन बिहाय॥3॥
हम तो तुम्हरी दासी सजना, तुम हमरे भरतार।
दीनदयाल दया करि आओ, समरथ सिरजनहार॥4॥
कै हम प्रान तजतु हैं प्यारे, कै अपनी करि लेव।
दास कबीर बिरह अति बाढ़्यो, अब तो दरसन देव॥5॥
भावार्थ :-
संत कबीर दास जी ईश्वर को संबोधित करते हुए कहते हैं की हम विरह व्याकुलों के हे अविनाशी दूल्हा अर्थात ईश्वर जो भक्तों की रक्षा करते हैं भक्तों की रक्षा करने वाले हैं। ऐसे आप हमें कब मिलोगे। वह कहते हैं कि जल के बड़े भाग से थोड़ा सा जल अगर अलग हो जाए तो भी उसका नेह अपने मुख्य जल से बना ही रहता है और वह उससे मिलने के लिए उसे प्राप्त करने के लिए सदा ही प्रयास करता रहता है अर्थात वह अपने मूल स्रोत रूपी जल से मिलना चाहता है।
इसी प्रकार हे ईश्वर, अविनाशी दूल्हे रूपी ईश्वर! मैं व्याकुल होकर आपके मार्ग की प्रतीक्षा कर रही हूं।हे प्रियतम! मुझे तुम्हारी आशा है कि तुम मुझे मिलोगे। मैंने संसार के लोगों से नेह और अपना घर दोनों छोड़ दिया है और आपके श्री चरणो में मैं लवलीन अर्थात प्रेमासक्त हो गई हूं। वह कहते हैं कि घट के भीतर अर्थात् मेरे भीतर बहुत उथल-पुथल मची हुई है और मैं बहुत अशांत हूं जैसे- जैसे जल से मछली को अलग कर दिया जाता है तो मछली की जैसी हालत होती है वह विह्वल हो जाती है उसी तरह की मेरी हालत है।
मुझे दिन में भूख नहीं लगती और रात में नींद नहीं आती और मुझे मेरे ही घर और आंगन सुहाते नहीं है अर्थात् मेरा मन नहीं लगता है। सोने के लिए जो सेज बिछाई गई है वह मेरी बैरन बन गई है और उस पर बैठकर मैं रात भर बिरह में जागती रहती हूं।
कबीर दास जी कहते हैं कि हे प्रभु हम तो तुम्हारी दासी हैं और आप हमारे स्वामी हो। आप हमारे भर्तार अथवा पति या स्वामी हो। प्रार्थना करते हुए कहते हैं कि हे दीनदयाल! दया करके कृपया आइये। हे सृष्टि के सिरजनहार! आप समर्थ हैं और आप आ सकते हैं।
अत्यंत अत्यंत विह्वल होते हुए कबीरदास जी कहते हैं कि हे मेरे प्रियतम! यदि अब आप नहीं आते हैं तो हम अपने प्राण त्याग देंगे। हम अपने प्राण त्याग देंगे या तो आप हमें अपना लो अपना बना लो वह कहते हैं कि आपके इस दास कबीर का विरह का दुख अत्यंत बढ़ गया है और कृपा करके अब तो आप मुझे दर्शन दे ही दीजिए।
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