कबीर ग्रंथावली (संपादक- हजारी प्रसाद  द्विवेदी) पद संख्या 175 अर्थ सहित

पद: 175

नैना अंतरि आव तू, ज्यूं हौं नैन झंपेउ।

ना हौं देखूं और कूं, नां तुझ देखन देऊँ।

कबीर रेख सिन्दूर की काजल दिया न जाई।

नैनूं रमैया रमि रहा,  दूजा कहाँ समाई ।

मन परतीति न प्रेम-रस, ना इस तन में ढंग।

क्या जाणौ उस पीव सूं कैसी रहसि संग।।”

भावार्थ :-

कबीरदास जी कहते हैं कि हे मेरे प्रियतम! अर्थात हे ईश्वर तुम मेरे नैनो के भीतर चुपचाप आ जाओ और मैं अपनी पलकों के दरवाजे बंद कर लेती हूं। न तो मैं किसी और को देखूंगा और ना तुझे ही देखने दूंगा क्योंकि मैं तुझे भी अपने साथ अपनी पलकों के अंदर बंद करके रख लूंगा। भारतवर्ष में जो सुहागिन स्त्रियां होती हैं वह अपनी मांग में सिंदूर की एक रेखा सजा लेती हैं। इस बात को लेकर कबीर दास जी कहते हैं कि मैं पतिव्रता हूं और इसीलिए अपने सिंदूर की एक रेखा को काजल के बदले नहीं दे सकता या नहीं दे सकती। आगे कहते हैं कि मेरे नेत्रों में मेरी दृष्टि में मेरा प्रियतम रम रहा है। और ऐसे में किसी दूसरे को वहां पर कैसे स्थान मिल सकता है क्योंकि एक म्यान में दो तलवार नहीं रह सकती। आगे कहते हैं कि न तो मन में प्रतीति है और न ही प्रेम का रस है और न ही यह तन उनके योग्य है तो मेरी समझ में यह नहीं आता कि मैं अपने उस प्रियतम के साथ किस तरह से रह सकूंगी। क्योंकि वह तो अजन्मा अमर और अविनाशी है और यह शरीर मरने वाला है यह पंच तत्वों से बना है जबकि ईश्वर पंच तत्वों से रहित है। दोनों की प्रकृति भिन्न है। इसलिए मैं नहीं समझ पाती कि मैं उस प्रियतम के साथ किस तरह निवास करूंगी।