कबीर ग्रंथावली (संपादक- हजारी प्रसाद  द्विवेदी) पद संख्या 176 अर्थ सहित

पद: 176

नैंनो की करि कोठरी, पुतली पलंग बिछाय।

पलकों की चिक डारि कै, पिय को लिया रिझाय।।1।।

प्रियतम को पतिया लिखूं, कहीं जो होय बिदेस।

तनमें, मनमें, नैनमें, ताकौ कहा संदेस।।2।।

भावार्थ :- 

कबीर दास जी कहते हैं कि अपने निर्गुण राम रूपी प्रियतम को रिझाने के लिए मैं क्या करूंगी तो कहते हैं कि नैनो की करि  कोठरी अर्थात नैनो को या अपने नेत्रों को मैं कोठरी अर्थात घर बना लूंगी और उनके अंदर जो पुतलियां है आंखों की पुतली पलंग बिछाए अर्थात उनको पलंग की तरह, पलंग बना लूंगी और पलकों के दरवाजे या पर्दों को बंद कर लूंगी। जब मेरे पिया अंदर आ जाएंगे तो मैं अपनी पलकों को बंद कर लूंगी अर्थात दरवाजा बंद कर दूंगी और अपने प्रियतम को प्रेम से रिझा लूंगी उन्हें मना लूंगी उन्हें संतुष्ट कर दूंगी।

वे आगे कहते हैं कि यदि प्रियतम मेरे स्वामी मुझसे दूर हो तो मैं उन्हें चिट्ठी लिखूंगी या आधुनिक भाषा में कहें तो फोन करूंगी संदेश भेजूंगी किंतु वह तो मेरे प्रियतम ऐसे हैं कि वह मेरे तन में मन में मेरे प्राणों में बसे हुए हैं उनका निवास हर जगह है वह ईश्वर कण कण में व्याप्त है। वह हमारे बाहर हमारे भीतर सर्वत्र  व्याप्त है इसलिए मुझे किसी प्रकार की चिट्ठी लिखने की आवश्यकता नहीं है। और उसे संदेश भेजने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि वह तो पहले से ही सब जानता है वह सर्वज्ञ है।