kabir ke pad arth sahit. कबीर के पद
पद: 181
अब तोहि जान न देहुँ राम पियारे
ज्यूँ भावै त्यूँ होहु हमारे॥
बहुत दिननके बिछुरे हरि पाये,,
भाग बड़े घर बैठे आये।
चरननि लागि करौं बरियाई।
प्रेम प्रीति राखौं उरझाई।
इत मन-मंदिर रहौ नित चोपै,
कहै कबीर करहु मति घोषैं॥
भावार्थ :-
संत कबीर दास जी कहते हैं कि अंततः जब मैंने अपने राम रूपी प्रियतम को प्राप्त कर लिया है तो अब मैं हे प्रियतम! तुम्हें किसी भी तरह जाने नहीं दूंगी। आपको जिस भी तरह से ठीक लगता है आप उस तरह से हमारे होकर रहिए। बहुत काल से बिछड़े हुए ईश्वर को मैंने पाया है और सबसे बड़ी बात तो यह है कि मेरे बड़े भाग्य उदित हुए हैं कि ईश्वर स्वयं मेरे घर पर आ गए हैं। अब मैं उनके चरणों से लगकर उनकी, उनसे बहुत प्रार्थना करती हूं उनके चरणों में प्रीति रखती हूं और उन्हें रिझाने का पूरा प्रयास करती हूं। और वह कहते हैं कि मेरे मन मंदिर में हे राम! अब नित्य ही उपस्थित रहो सुशोभित रहो और इसे छोड़कर कहीं भी कभी भी मत जाओ।
पद: 182
तन-मन-धन बाजी लागि हो।
चौपड़ खेलूँ पीवसे रे, तन-मन बाजी लगाय।
हारी तो पियकी भी रे, जीती तो पिय मोर हो
चौसरियाके खेल में रे, जुग्ग मिलन की आस।
नर्द अकेली रह गई रे, नहि जीवन की आस हो।
चार बरन घर एक है रे, भाँति भाँतिके लोग।
मनसा-बाचा-कर्मना कोई, प्रीति निबाहो ओर हो।
लख चौरासी भरमत भरमत, पौपै अटकी आय।
जो अबके पौ ना पड़ी रे, फिर चौरासी जाय हो।
कहै कबीर धर्मदास रे, जीती बाजी मत हार।
अबके सुरत चढ़ाय दे रे, सोई सुहागिन नार हो।
शब्दार्थ :-
जुग्ग=चौरस के खेल में दो गोटे का एक ही कोठी में इकट्ठा होना। नर्द =चौरस की माटी। पौ= जीत का दांँव-विशेष
भावार्थ :-
संत कबीर दास जी कहते हैं कि मेरे तन मन और धन की बाजी लगी हुई है मैं चौपड़ का खेल खेल रहा हूं ।और वह किसके साथ खेल रहा हूं अपने प्रियतम से खेल रहा हूं। या खेल रही हूं। अपने तन और मन की बाजी लगाकर में चौपड़ का खेल खेल रही हूं यदि मैं इसमें हार जाती हूं तो मैं अपने पिया की हो जाऊंगी। और अगर मैं जीत जाती हूं तो पिया मेरे हो जाएंगे। इस प्रकार चौंसर के इस खेल में मेरी जो युगों युगों से अपने प्रियतम से मिलने की आस थी वह पूरी हो जाएगी। वे कहते हैं कि मैं जब यहां पर बिल्कुल अकेली रह गई हूं तो मेरे जीवन जीने की आस ही नहीं रही है कि अकेले ऐसे किस तरह से जिया जाए।
और वह आगे कहते हैं कि यह घर जो है चार वर्णों का है भले ही 4 वर्ण के लोग हैं संभवतः ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य और शूद्र किंतु इनमें भी इस प्रकार भांति भांति के लोग हैं। भले 4 वर्ग है पर लोग भांति भांति के हैं ।और वे कहते हैं कि मन वचन और कर्म से सभी लोग जो है ईश्वर के प्रति प्रीति का निर्वाह करें। क्योंकि 8400000 योनियों में घूमते घूमते उसी में हम अटक कर रह जाते हैं यदि इस मनुष्य शरीर में इस मनुष्य योनि में यदि अबकी बार आप 84 से छूटने की आपकी सुबह नहीं हुई तो आप 84 की रात्रि में फिर से भटककने लगोगे फिर से उसी जन्म मरण के चक्र में चले जाओगे।
कबीरदास जी कहते हैं कि हे धर्मदास!(उनके शिष्य) अपनी जीती हुई बाजी को हारना नहीं। अब जो है अपनी सुरत अर्थात अपनी चेतना को उत्तम स्तर पर आज्ञा चक्र से होते हुए सहस्रार चक्र की ओर उसे चढ़ा दो, प्रयत्न पूर्वक उसे ऊंचे ऊंचे ले जाओ और इस प्रकार जो है सुहागिन स्त्री की तरह अपने प्रियतम को प्राप्त करके अपने स्वामी को प्राप्त करके, अपने उत्तम सौभाग्य को प्राप्त करो और धन्य हो जाओ। शोभा पाओ।
पद: 183
नाम अमल उतरै ना भाई ।
औ अमल छिन छिन चढ़ि उतरै, नाम अमल दिन बढ़े सवाई ॥
देखत चढ़े सुनत हिय लागै, सुरत किए तन देत घुमाई ।
पियत पियाला भए मतवाला, पायो नाम मिटी दुचिताई ॥
जो जन नाम अमल रस चाखा, तर गई गनिका सदन कसाई।
कह कबीर गूंगे गुड़ खाया बिन रसना का करै बड़ाई ॥
अमल= नशा।
भावार्थ :-
कबीर दास जी कहते हैं कि भगवान नाम लेने की जो हमें आदत हो गई है या उसका हमें सद्व्यसन लग गया है यह अब उतरने का नाम नहीं लेता और दूसरे व्यसन तो हमें क्षण में लग जाते हैं और क्षण में ही उतर जाते हैं किंतु यह है नाम जप का ईश्वर के नाम को जपने का जो अमल है या व्यसन है यह दिन-दिन हवाया होता जाता है और बढ़ता जाता है। देखने से यह चढ़ता है और सुनने से यह हृदय में बस जाता है। और जैसे ही हमें इसका स्मरण होता है हम अपने शरीर को उसमें लगा देते हैं। और हमें बहुत आनंद आता है। हम यह नाम का प्याला पी-पीकर मतवाले हो गए हैं और हमारी जो भी दुविधा है समस्या है संसार है कष्ट है वह सभी इससे मिट गए हैं दूर हो गए हैं। जिस भी व्यक्ति में यह नाम रटन नाम जप, यह भगवान नाम जप के रस को जिसने चख लिया है राम नाम को चख लिया है तो ऐसे लोगों में गणिका अथवा वैश्या जैसे लोग भी तर गए हैं। सदना कसाई जो वृत्ति से कसाई था हिंसा की जिसकी वृत्ति या व्यवसाय था, ऐसा सदना कसाई भी नाम के जप के प्रभाव से इस संसार सागर से तर गए हैं। कबीर दास जी कहते हैं कि यह रस इस तरह का है कि इसे कोई बता नहीं सकता। जिस प्रकार किसी गूंगे व्यक्ति ने गुड़ खाया हो तो वह गुड का स्वाद कैसा है यह जिह्वा के बिना बता नहीं पाता किंतु भीतर ही भीतर आनंदित रहता है उसी प्रकार इस रस को पाकर इसे प्राप्त करने वाला उन्मत्त हो जाता है अत्यंत आनंदित हो जाता है।
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