कबीर ग्रंथावली (संपादक- हजारी प्रसाद  द्विवेदी) पद संख्या 190 अर्थ सहित

पद: 190

कबीर भाटी कलालकी, बहुतक बैठे आइ।
सिर सौंपे सोई पिवै, नहीं तो पिया न जाइ।।
हरि-रस पीया जाणिए, जे कबहूं न जाइ खुमार।
मैंमंता घुँमत रहै, नाहीं तनकी सार।।
सबै रसायण मैं किया, हरि-सा और न कोई।
तिल इक घटमैं संचरै, तो सब कंचन होइ।।

शब्दार्थ :- मैमंता = मदमाता।

भावार्थ :- 

तो कबीरदास जी कहते हैं की कलाल अर्थात शराब मिलने का स्थान भट्टी कहलाता है वहां पर बहुत सारे लोग आकर बैठे किंतु जिसने अपना सिर सौंप दिया वही उसे पी पाया यहां पर सिर का अर्थ है अपने अहंकार को समर्पित करना नम्र होना उसके बिना उस शराब को कोई नहीं पी सकता। यह हरिरस रूपी शराब जिसने पिया है और किसने पिया है यह कैसे पता चलेगा कि जब उस हरिरस रूपी शराब का नशा कभी उतरता ही नहीं है और सदा कुमारी चढ़ी रहती है तब जानिए कि उसने हरिरस रुपए शराब को किया है और वह ज्ञानवान हो गया है। वह मैं ममता याने जैसे कोई प्राणी अपने मन से अत्यंत उदासीन है और इधर-उधर जिधर की हवा चली चली उधर ही जैसे कोई पत्ता उड़ता है उस प्रकार संसार में विचरण करता है तो समझिए कि वह हरि रस का पान करने वाला ज्ञानी पुरुष है।

 इस प्रकार विचरण करते हुए उसे अपने शरीर की भी सुध बुध नहीं रहती। कबीर दास जी कहते हैं कि इस प्रकार के सभी रसायनों का मैंने पान किया, यहां पर रसायन का अर्थ है कि ऐसे पेय जिससे व्यक्ति को आनंद आता है या अच्छा लगता है । इस प्रकार के सभी रसायनों का मैंने पान किया किंतु हरि रस रूपी रसायन से अच्छा और कोई रसायन मुझे प्राप्त नहीं हुआ है। और वे कहते हैं कि जब उस ईश्वर का अनुभव तिल के समान भी हो जाता है थोड़ा भी अनुभव हो जाता है तो उसके अनुभव के स्पर्श से सारा शरीर, सारा अस्तित्व पवित्र हो जाता है जिस प्रकार पारस के छूने से लोहा सोना बन जाता है उसी प्रकार उस अनुभव के प्राप्त हो जाने से समग्र अस्तित्व पवित्र हो जाता है।