पद: 192
व दिन कब आवैगे भाइ।
जा कारनि हम देह धरि है,
मिलिबौ अंगि लगाइ।।
हौ जाँनूं जे हिल-मिलि खेलूँ,
तन मन प्रान समाइ।।
या कांमनां करौ परपूरन,
समरथ हौ रांम राइ।।
मांहि उदासी माधौ चाहै,
चितवन रैनि बिहाइ।।
सेज हमारी स्वघं भई है,
जब सोऊँ तब खाइ।।
यहु अरदास दासकी सुनिये,
तनकी तपनि बुझाइ।।
कहै कबीर मिलै जे सांई,
मिलि करि मंगल गाइ।।
शब्दार्थ :- स्यंघ =सिंह।
भावार्थ :-
कबीरदास जी कहते हैं कि ऐसे मेरे दिन कब आएंगे हे भाई कि जिस कारण यह जिस उद्देश्य से हमने इस शरीर को धारण किया है वह पूरा हो जाएगा और हम अपने प्रियतम से अंग से अंग लगा कर मिल सकेंगे और हम उनके साथ हंसी ठिठोली कर सकेंगे हिल मिल सकेंगे खेल सकेंगे और अपने तन मन और प्राण उन्हीं में समाहित कर देंगे।
वह कहते हैं कि मैं तो इसके लिए समर्थ नहीं हूं किंतु हे मेरे ईश्वर हे मेरे राम! आप इसके लिए समर्थ हो और अपनी इस समर्थता को प्रदर्शित करते हुए आप मेरी यह कामना परिपूर्ण कीजिए।
मैं माया से उदास हूं और माधव अर्थात ईश्वर को चाहता हूं और दिन रात उसका चिंतन करता हूं।
सेज हमारी स्वघं भई है,
जब सोऊँ तब खाइ।।
वह कहते हैं कि मेरा इतना बढ़ गया है कि हमारे सगे जहां हम चैन से सोते हैं वहीं अब हिंसक सिंह के समान हो गई है क्योंकि जब भी वहां पर सोते हैं तो विरह की वेदना से जैसे वह हमें खाने लगती है।
आगे कबीर दास जी कहते हैं की इस दास की यह अरदास अर्थात प्रार्थना सुनिए की आप मेरे तन की तपन को बुझा दीजिए कबीर दास जी कहते हैं की जब हमें साईं अर्थात उस निर्गुण राम का साक्षात्कार हो जाएगा। वे हमें मिल जाएंगे तो हम मिलकर मंगल गान करेंगे।
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