रे रे मन बुधिवत भंडारा, 

कबीर ग्रंथावली- डॉ. श्यामसुंदरदास (रमैणी )

।।निरंतर।।

रे रे मन बुधिवत भंडारा, 

रे रे मन बुधिवत भंडारा, आप आप ही करहुं बिचारा ।।

कवन सर्वांनों कौन बौराई, किहि दुःख पड़ये किहि दुःख जाई ।। 

कवन सार को आहि असारा, को अनहित को आहि पियारा।। 

कवन साँच कवन है झूठा, कवन करु को लागै मीठा ।। किहि जरिये किहि करिये अनंदा, कवन मुकति को गल के फंदा ।। 

रे रे मन मोंहि ब्यौरि कहि, हौ तत पूछौ तोहि ।।

संसै सूल सबै भई,समझाई कहि मोहि । । ६ ।।

व्याख्या  :– 

रे रे मन बुधिवत भंडारा, आप आप ही करहुं बिचारा ।।

कवन सर्वांनों कौन बौराई, किहि दुःख पड़ये किहि दुःख जाई ।। 

हे मेरे बुद्धि के भंडार ऐसे मन!  तू स्वयं ही अपने आप से विचार कर कि कौन सर्वज्ञ है, कौन सबको जानने वाला है, और कौन बौरा गया है अर्थात् पागल हो गया है या बेसुध हो गया है। किसको दुख भोगना पड़ेगा और किसके दुख दूर हो जाएंगे।

कवन सार को आहि असारा, को अनहित को आहि पियारा।। 

कवन साँच कवन है झूठा, कवन करु को लागै मीठा ।। 

 हे मेरे मन! तू यह भी तो देख की सार क्या है और असार क्या है? किस बात से हित  नही होगा और कौन हमारा हित करने वाला अर्थात प्रिय है। क्या सत्य है और क्या सत्य है और क्या कड़वा लगता है और क्या मीठा लगता है अर्थात तुझे अपने व्यवहार में हर अवसर पर विवेक का आश्रय लेना चाहिए और तदनुसार ही आचरण करना चाहिए।

किहि जरिये किहि करिये अनंदा, कवन मुकति को गल के फंदा ।। 

रे रे मन मोंहि ब्यौरि कहि, हौ तत पूछौ तोहि ।।

संसै सूल सबै भई,समझाई कहि मोहि । । ६ ।।

किस प्रकार से जलना पडता है या जर्जर होना पडता है और किस प्रकार से आनंद उत्पन्न होता है, मुक्ति कैसे प्राप्त होती है और क्या गले का फंदा अर्थात फांसी कि तरह जानलेवा दुख देने वाला है।हे मन! मुझे वह सब विस्तार से कहकर सुना, मैं तुझसे तत्व पूछता हूं।यह संशयका शूल कहां से उत्पन्न हुआ यह सब कुछ मुझे समझाकर कह।

विशेष :-⁷

कबीर ने सांसारिक प्राणियों को स्वयं अपने अच्छे और बुरे, हित और अनहित के निराकरण करने का संदेश दिया है।

।।निरंतर।।

सुनि हंसा मैं कहूं बिचारी, 

सुनि हंसा मैं कहूं बिचारी, त्रिजुग जोनि सबै अँधियारी ।। 

मनिषा जन्म उत्तिम जौ पावा, जाँनूँ राम तौ सयान कहावा।।

 नहीं चेतै, तौ जनम गँमावा, पर्यो बिहान तब फिरि पछितावा ।। 

सुख करि मूल भगति जौ जाँनै, और सबै दुख या दिन आँनै ।। 

अमृत केवल रॉम पियारा, और सबै बिष के भंडारा ।। 

हरि आहि जौ रमियै राँमाँ, और सबै बिसमा के काँमाँ ।। 

सार आहि संगति निरवानाँ, और सबै असार करि जाँनाँ ।। 

अनहित आहि सकल संसारा, हित करि जाँनियै राँम पियारा ।। 

साच सोइ जे थिरह रहाई, उपजै बिनसै झूठ है जाई ।। 

मीठा सो जो सहजैं पावा, अति कलेस थैं करू कहावा ।। 

नाँ जरियै ना कीजै मैं मेरा, तहाँ अनंद जहाँ राम निहोरा । । 

मुकति सोज आपा पर जाँनै, सो पद कहाँ जुभरभि भुलानै।। 

प्रॉननाथ जग जीवनाँ, दुरलभ रांम पियार ।।

सुत सरीर धन प्रग्रह कबीर, जायै रे तर्वर पंख बसियार।।७ ।। 

व्याख्या- 

सुनि हंसा मैं कहूं बिचारी, त्रिजुग जोनि सबै अँधियारी ।। 

मनिषा जन्म उत्तिम जौ पावा, जाँनूँ राम तौ सयान कहावा।।

कबीर दास जी कहते हैं की है प्राणी रूपी हंस मैं बहुत विचार करके कहता हूं कि यह जो तीन प्रकार की योनियाँ हैं जलचर, थलचर और उभयचर यह तीनों ही अंधकार से भरी हुई अर्थात दुखों से लिप्त है। यह उत्तम मनुष्य जन्म यदि पा लिया है तो फिर उस राम नाम को जानकर सयाने अर्थात् बुद्धिमान कहलाओ।

नहीं चेतै, तौ जनम गँमावा, पर्यो बिहान तब फिरि पछितावा ।। 

सुख करि मूल भगति जौ जाँनै, और सबै दुख या दिन आँनै ।। 

यदि मेरे ऐसा कहने पर भी तू चेत नहीं जाता अर्थात् सावधान नहीं होता तो फिर तू अपना जनम व्यर्थ गंवा देगा, दुख में पड़ेगा और फिर पछतावा ही हाथ लगेगा। सुख का मार्ग भक्ति है ऐसा जो जान लेता है उसके सभी दुख नष्ट हो जाते हैं , और सुख के  दिन आते हैं।

अमृत केवल रॉम पियारा, और सबै बिष के भंडारा ।। 

हरि आहि जौ रमियै राँमाँ, और सबै बिसमा के काँमाँ ।। 

ईश्वर के सिवा, ईश्वर ही केवल अमृतमय है बाकी के सब विष के भंडार हैं। एक तो ईश्वर है दूसरी माया है तो ईश्वर अमृतमय है माया विषमय  है।  यदि आप राम में रमण करते हैं तो वही हरि है और उस हरि के अलावा सभी विषय विषमय  हैं।

सार आहि संगति निरवानाँ, और सबै असार करि जाँनाँ ।। 

अनहित आहि सकल संसारा, हित करि जाँनियै राँम पियारा ।। 

निर्वाण की संगति करना ही सार है अर्थात् वही करने योग्य है। बाकी का सारा संसार असर है। उसमें अपना मन नहीं लगाना चाहिए। सारा संसार हित के विपरीत है अर्थात वह अहित करने वाला है। वह एक राम प्यार ही हित करने वाला है अर्थात्  तत्व की अनुभूति करना ही एकमात्र उद्देश्य होना चाहिए।

साच सोइ जे थिरह रहाई, उपजै बिनसै झूठ है जाई ।। 

मीठा सो जो सहजैं पावा, अति कलेस थैं करू कहावा ।। 

सत्य वही है जो स्थिर रहता है जिसमें कोई परिवर्तन नहीं होता। जो उत्पन्न होता है और जिसका फिर विनाश हो जाता है वह झूठ है असत्य है। मीठा अर्थात रुचिकर वही है जो सहज में प्राप्त हो जाता है किंतु जो अति क्लेश अर्थात बहुत झंझटों के बाद तरह-तरह के प्रयासों के बाद प्राप्त होता है वही कड़वा कहलाता है।

नाँ जरियै ना कीजै मैं मेरा, तहाँ अनंद जहाँ राम निहोरा । । 

मुकति सोज आपा पर जाँनै, सो पद कहाँ जुभरभि भुलानै।। 

ना तो संसार में ईर्ष्या करके जलन करनी चाहिए और नहीं मैं और मेरे में खो जाना चाहिए क्योंकि आनंद तो वहां है जहां पर राम को निहार जाता है अर्थात् उसे निर्गुण राम तत्व का अनुभव किया जाता है आनंद वहीं होता है।

प्रॉननाथ जग जीवनाँ, दुरलभ रांम पियार ।।

सुत सरीर धन प्रग्रह कबीर, जायै रे तर्वर पंख बसियार।।७ ।। 

वह ईश्वर वह राम ही प्राणों का स्वामी है और इस संसार का भी जीवन है ऐसा राम प्यारा प्राप्त करने में बडा दुर्लभ है। पुत्र शरीर धन यह सब बंधन में बंधने वाले हैं कबीर जी कहते हैं। वह कहते हैं कि किसी भी पक्षी का किसी भी वृक्ष पर बसेरा क्षणिक होता है थोड़ी ही देर के लिए होता है उसी प्रकार इस संसार में प्राणी का रहना क्षणिक है नहींवत है थोड़ी देर के लिए है।

विशेष :-

(१) कबीर ने सामान्य प्राणियों को ज्ञान और अज्ञान की वास्तविक स्थिति का परिचय कराया है। प्राणी के जीवन का एकमात्र आधार उस परमात्मा को ही माना है। 

(२) माया-मोह, अहंकार, और राग-द्वैष ही प्राणिमात्र के दुःख के कारण है।

द्वारा : एम. के. धुर्वे, सहायक प्राध्यापक, हिंदी