भरा दयाल विषहर जरि जागा, 

कबीर ग्रंथावली- डॉ. श्यामसुंदरदास (रमैणी )

||  दुपदी रमैंणी  ||

भरा दयाल विषहर जरि जागा, 

भरा दयाल विषहर जरि जागा, गहगहान प्रेम बहु लागा ।। 

भया अनंद जीव भयै उल्हासा, मिले राम मनि पूगी आसा ।। 

मास असाढ़ रवि धरनि जरावै, जरत-जरत जल आइ बुझावै ।। 

रुति सुभाइ जिमीं सब जागी, अंमृत धार होइ झर लागी ।। 

जिमीं माँहि उठी हरियाई, बिरहिन पीव मिले जन जाई ।। 

मन कांमनि कै भयै उछाहा, कारनि कवन बिसारी नाहा ।। 

खेल तुम्हारा मरन भया मोरा, चौरासी लख कीन्हाँ फेरा ।। 

सेवग सुत जे होइ अनिआई, गुन औगुन सब तुम्हि समाई।। 

अपने औगुन कहुँ न पारा, इहै अभाग जे तुम्हन संभारा ।। 

दरबो नहीं काँइ तुम्ह नाहा, तुम्ह बिछुरे मैं बहु दुःख चाहा ।। 

मेघ नहि बरिखै जाहिं उदासा, तऊँ न सारंग सागर आसा ।। 

जलहर भयौ ताहि नहीं भावै, कै मरि जाइ कै उहै पियावै ।। 

मिलहु राम मनि पुरवहु आसा, तुम्ह बिछुआँ मैं सकल निरासा ।। 

मैं रंक निराँसो जब निध्य पाई, राँम नॉम जीव जाग्या जाई || 

नलिनी कै ज्यूं नीर अधारा, खिन बिछुआँ थैं रवि प्रजारा ।। 

राम बिनां जीव बहुत दुख पावै, मन पतंक जगि अधिक जरावै।। 

माघ मास रुति कवलि तुसारा, भयौ बसंत तब बाग सँभारा ।। 

अपने रंगि सब कोइ राता, मधुकर बास लेहि मैमंता ।। 

बन कोकिला नाद गहगहांना, रुति बसंत सबकै मनिमानाँ ।। 

बिरहन्य रजनी जुग प्रति भइया, बिन पिव मिलें कलपटलि गइया ।। 

आतमाँ चेति समझि जीव जाई, ताजी झूठ राँम निधि पाई।। 

भया दयाल निति बाजहिं बाजा, सहजै राम नाम मन राजा।। 

जरत जरत जल पाइया, सुख सागर कर मूला।

गुर प्रसादि कबीर कहि, भागी संसै सूल।।१।। 

व्याख्या :- 

भरा दयाल विषहर जरि जागा, गहगहान प्रेम बहु लागा ।। 

भया अनंद जीव भयै उल्हासा, मिले राम मनि पूगी आसा ।। 

कबीर दास जी कहते हैं कि वह ईश्वर दयालुता से परिपूर्ण है और जैसे ही ईश्वर का स्वरूप जागृत हो गया है या हमने उसका अनुभव कर लिया है, उसने हमारे संसार रूपी विष का हरण कर लिया है। और मेरा उसके प्रति गहन प्रेम जागृत हो गया है मुझे पता चल गया है कि उसके प्रति मेरा प्रेम अगाध है। ऐसा होने से यह जीव आनंद से परिपूर्ण हो गया है और उल्लास भर आया है राम के इस प्रकार मिल जाने से और मेरे मन की आशा पूरी हो गई है।

मास असाढ़ रवि धरनि जरावै, जरत-जरत जल आइ बुझावै ।। 

रुति सुभाइ जिमीं सब जागी, अंमृत धार होइ झर लागी ।। 

आषाढ़ के महीने में सूरज धरती को तपता है जलता है और जलते जलते फिर जल की वर्षा होने लगती है और वह तपन शांत हो जाती है। कबीर दास जी कहते हैं कि इस प्रकार जैसे ऋतु का बदलाव होता है ग्रीष्म ऋतु से वर्षा ऋतु आ जाती है और ठंडक मिलती है इस प्रकार मेरे हृदय रूपी तपन को ईश्वर ने अपनी अमृत धारा रूपी वर्ष से अमृत की झड़ी लगा देने से वह शांत हो गई है और मेरे हृदय का मौसम भी बदल गया है बड़ा सुहावना हो गया है।

जिमीं माँहि उठी हरियाई, बिरहिन पीव मिले जन जाई ।। 

मन कांमनि कै भयै उछाहा, कारनि कवन बिसारी नाहा ।। 

जैसे वर्षा होने से धरती पर हरियाली उठ जाती है और बिरहा में तपती हुई बिरहिन को उसके प्रिय के मिल जाने से आनंद आ जाता है। कबीर दास जी कहते हैं कि इस प्रकार के प्रसंग को देखकर मेरे मन रूपी कामिनी का ईश्वर रूपी प्रिया से मिलने की इच्छा तीव्र हो गई है और उसको विस्मृत करने का कोई कारण नहीं है। 

खेल तुम्हारा मरन भया मोरा, चौरासी लख कीन्हाँ फेरा ।। 

सेवग सुत जे होइ अनिआई, गुन औगुन सब तुम्हि समाई।। 

ऐसी विरह वेदना के साथ कबीर दास जी कहते हैं कि तुम्हारे लिए तो यह खेल के समान है किंतु मेरे लिए तो यह मरण है और इसके बिना अर्थात ईश्वर के मिलन के बिना मैं 84 का फेरा किया है अर्थात् इस जन्म मरण के चक्र में भटकती रही हूं। कबीर दास जी कहते हैं कि अपने सेवक यह पुत्र से अगर कुछ अनुचित हो जाता है अन्याय हो जाता है तो वह क्षम्य होता है अर्थात् इसी प्रकार मेरे भी अवगुणों को आप क्षमा कर दें मैं भी वैसा ही हूं। क्योंकि वैसे भी सारे गुण और अवगुण तो तुम ही में समाहित हैं।

अपने औगुन कहुँ न पारा, इहै अभाग जे तुम्हन संभारा ।। 

दरबो नहीं काँइ तुम्ह नाहा, तुम्ह बिछुरे मैं बहु दुःख चाहा ।। 

अब ईश्वर से विनम्र प्रार्थना करते हुए कहते हैं कि मेरे दुर्गुणों का अवगुणों का कोई पर नहीं है और मेरा यही दुर्भाग्य है कि तुमने मुझे सहारा नहीं दिया संभाला नहीं। दरबो अर्थात् द्रवित होना। वे कहते हैं कि हे प्रभु! आप क्यों द्रवित नहीं होते क्योंकि आपके इस प्रकार बढ़ जाने से मैंने बहुत अधिक दुख प्राप्त किए हैं कृपया आप प्रसन्न हो जाइए।

मेघ नहि बरिखै जाहिं उदासा, तऊँ न सारंग सागर आसा ।। 

जलहर भयौ ताहि नहीं भावै, कै मरि जाइ कै उहै पियावै ।। 

हे प्रभु जब मेघ वर्षा नहीं करता है तो उसके जाने से बड़ी उदासी छा जाती है क्योंकि मुझे इस संसार रूपी सागर से जल की आशा नहीं है मुझे तो जैसे चातक पक्षी को स्वाति नक्षत्र के मेघ की ही आस होती है उसी प्रकार मुझे भी केवल आपकी ही आशा है। वह कहते हैं कि मेरा मन रूपी चातक यहां पर जलाशय के भरे रहने पर भी उसकी आशा नहीं करता। वह तो या तो आपके द्वारा प्रदान किए हुए दर्शन के जल का पान करके संतुष्ट होगा  अथवा तो वह मृत्यु का ही वरण कर लेगा।

मिलहु राम मनि पुरवहु आसा, तुम्ह बिछुआँ मैं सकल निरासा ।। 

मैं रंक निराँसो जब निध्य पाई, राँम नॉम जीव जाग्या जाई || 

कबीर दास जी कहते हैं कि हे राम आप मुझे प्राप्त हो जो मिल जाओ और मेरी आशा को पूरी कर दो क्योंकि तुम्हारी बिछड़न से मुझ में चारों ओर निराशा ही व्याप्त है। मैं आपके बिना गरीब हूं और निराश हूं किंतु जब राम नाम की निधि पा लूंगा तो उस राम के अनुभव से यह जीव जागृत हो जाएगा, जाग जाएगा, धन्य हो जाएगा।

नलिनी कै ज्यूं नीर अधारा, खिन बिछुआँ थैं रवि प्रजारा ।। 

राम बिनां जीव बहुत दुख पावै, मन पतंक जगि अधिक जरावै।। 

नलिनी अर्थात कमली के लिए जैसे जल ही उसका जीवन आधार है इस प्रकार क्षण भर के लिए भी जल से बिछड़ जाने पर सूर्य उसे जलने लगता है। कबीर दास जी आगे कहते हैं कि उसे राम रूपी ईश्वर के अनुभव के बिना जीव बहुत दुख प्राप्त करता है और यह मन रूपी पतंगा, इस जग में अधिक और अधिक जलता जाता है।

माघ मास रुति कवलि तुसारा, भयौ बसंत तब बाग सँभारा ।। 

अपने रंगि सब कोइ राता, मधुकर बास लेहि मैमंता ।। 

माघ मास में बहुत अधिक ठंड पड़ती है जिससे कमलिनी आहत होती है नष्ट होती है किंतु जब वसंत ऋतु आती है तब सारा बाग प्रसन्न हो जाता है खिल उठता है। और इस प्रकार सब अपने रंग में रंगे हुए होते हैं अर्थात सभी प्रश्न होते हैं भ्रमण भी मदमस्त होकर फूलों के रस का पान करता है और अलमस्त होकर घूमता रहता है।

बन कोकिला नाद गहगहांना, रुति बसंत सबकै मनिमानाँ ।। 

बिरहन्य रजनी जुग प्रति भइया, बिन पिव मिलें कलपटलि गइया ।। 

वनों में कोयल का नाथ गूंज रहा है और यह वसंत की ऋतु सबके मन को प्रसन्न कर रही है किंतु यह है बिरह रूपी रात्रि जैसे एक युग के समान जाती है, अपने प्रिय के वियोग में विरहिणी के लिए एक पल भी एक कल्प के समान व्यतीत होता है क्योंकि वह अपने प्रिय से मिल नहीं पाती।

आतमाँ चेति समझि जीव जाई, तजी झूठ राँम निधि पाई।। 

भया दयाल निति बाजहिं बाजा, सहजै राम नाम मन राजा।। 

आत्मा जब उस परमात्मा रूपी समष्टि चैतन्य से चेत जाती है अर्थात् एकरूप हो जाती है तब यह जीव सब कुछ समझ जाता है और इस सत्य रुपी संसार को त्याग कर राम रूपी निधि को प्राप्त करता है। वह ईश्वर जब अपनी दयालुता को प्रदर्शित करता है और उसका जीवात्मा अनुभव कर लेता है तब नित्य बाजा बजाता है अर्थात् अनहद नाद का उदय हो जाता है। और सहज ही मन पर इस राम नाम का राज्य हो जाता है अर्थात् उस राम के अनुभव में यह मन तल्लीन हो जाता है।

जरत जरत जल पाइया, सुख सागर कर मूला।

गुर प्रसादि कबीर कहि, भागी संसै सूल।।१।। 

कबीर दास जी कहते हैं कि मैंने अपने गुरु देवता की गुरु प्रसादी प्राप्त करके इस संसार में जलते जलते अर्थात् तृषातुर होकर उस जल को प्राप्त कर लिया है जो सुख के सागर का मूल कारण है और मेरे सभी संशय के शूल भाग गए हैं अर्थात् नष्ट हो गए हैं। मैं आनंदित हो गया हूंँ।

विशेष :-

साँगरूपक तथा रूपकातिशयोक्ति अलंकार उद्दीपक ऋतुओं में विरहिणी की उत्कंठा तथा व्यथा की गहन व्यंजना । कबीर की काव्य प्रतिभा को प्रमाणित करने वाला पद । शब्द योजना में माधुर्य तथा आनुप्रासिकता द्रष्टव्य है।

।।निरंतर।।

राम नाम जिन पाया सारा,

राम नाम जिन पाया सारा, अबिरथा झूठ सकल संसारा ।। 

हरि उतंग मैं जानि पतंगा, जंबुक के हरि कै ज्यूँ संगा ।। 

क्यंचिति है सुपनै निधि पाई, नहीं सोभा कौं धरी लुकाई ।। 

हिरदैं न समाइ जाँनियै नहीं पारा, लागै लोभ न और हँकारा।। 

सुमिरत हूँ अपने उनमानाँ, क्यंचित जोग राँम मैं जाँना ।। 

मुखाँ साध का जानियै असाधा, क्यंचित जोग रॉम मैं लाधा ।। 

कुबिज होइ अमृत फल बंछ्या, पहुँचा तन मन पूगी इंछ्या।। 

नियर थैं दूरि दूरि थैं नियरा, राम चरित न जानियै जियरा।। 

सीत थैं अगिनी फुनि होई, रवि थैं ससि ससि कै रवि सोई ।। 

सीत थैं अगिनि परजई, थल थैं निधि निधि के थल करई ।। 

बज्र थैं तिण खिण भीतर होई, तिण कै कुलिस करै फुनि सोई । । 

गिवर छार छार गिरि होई, अविगति गति जानैं नहिं कोई।।

व्याख्या :- 

राम नाम जिन पाया सारा, अबिरथा झूठ सकल संसारा ।। 

हरि उतंग मैं जानि पतंगा, जंबुक के हरि कै ज्यूँ संगा ।। 

कबीर दास जी कहते हैं कि मैंने राम नाम रूपी सार को प्राप्त कर लिया है और यह सारा संसार वृथा है और इसका सारा प्रसार झूठ है यह जान लिया है। हरि अर्थात् ईश्वर उदार है और मैं पतंगा के समान हूं जो कहीं भी जल मरता है। जिस प्रकार से सियार और सिंह का साथ होता है जो काफी  विजातीय जान पड़ता है। उसी प्रकार मेरा और ईश्वर का साथ है मेरी शक्ति अल्प है और वह अपारशक्ति वाला है।

क्यंचिति है सुपनै निधि पाई, नहीं सोभा कौं धरी लुकाई ।। 

हिरदैं न समाइ जाँनियै नहीं पारा, लागै लोभ न और हँकारा।। 

मुझे आकिंचन को वैसा ही हो गया है जैसे मैंने स्वप्न में बड़ी निधि अर्थात खजाना प्राप्त कर लिया हो मैं अपनी शोभा को छुपा नहीं पाता, वह मेरे हृदय में समाता नहीं है और मैं उसे पूरी तरह जान नहीं सकता हूं। मुझे उसके संग का उसके अनुभव का उसके दर्शनों का लोभ हो गया है और मैं अब कोई अहंकार नहीं करता क्योंकि सब उसी की कृपा है।

सुमिरत हूँ अपने उनमानाँ, क्यंचित जोग राँम मैं जाँना ।। 

मुखाँ साध का जानियै असाधा, क्यंचित जोग रॉम मैं लाधा ।। 

कबीर दास जी कहते हैं कि ईश्वर के अनुभव के पश्चात मैंने वह उन मनी दशा प्राप्त कर ली है और राम के अनुभव रूपी योग को मैंने कुछ-कुछ जान लिया है। साधु का मुख देख कर यह है पूरी तरह जाना नहीं जाता किंतु उसके अनुभव से मैंने राम रूपी अनुभव के  योग में अपने को तल्लीन कर लिया है।

कुबिज होइ अमृत फल बंछ्या, पहुँचा तन मन पूगी इंछ्या।। 

नियर थैं दूरि दूरि थैं नियरा, राम चरित न जानियै जियरा।। 

मेरी वैसे ही हालत है जैसे कोई कुबदा व्यक्ति ऊंचाई पर लगे हुए अमरुद फल को प्राप्त कर लेता है तो वह संतुष्ट हो जाता है इसी प्रकार राम रूपी अमृत फल के मिलने से मेरा तन मन प्रसन्न हो गया है मेरी इच्छा संपूर्ण हो गई है।

वह अपने अनुभव का विस्तार करते हुए कहते हैं कि वह पास से दूर और दूर से पास प्रतीत होता है ऐसे रामचरित को हमारा मन पूरी तरह से जान नहीं पता है वह अद्भुत है।

सीत थैं अगिनी फुनि होई, रवि थैं ससि ससि कै रवि सोई ।। 

सीत थैं अगिनि परजई, थल थैं निधि निधि के थल करई ।।

कबीर दास जी जैसे हजारों लाखों वर्षों का इतिहास वर्णन करते हुए कहते हैं कि वह ईश्वर शीतल से अर्थात् शीत से अग्नि को प्रकट कर देता है और अग्नि से शीतलता प्रकट कर देता है। वह सूर्य से चंद्रमा बना देता है और चंद्रमा से सूर्य को उत्पन्न कर देता है। वह शीतलता से अग्नि को प्रज्वलित कर देता है, वह ईश्वर थल से निधि अर्थात् समुद्र को उत्पन्न कर देता है। और समुद्र से थल अर्थात् उसे भूमि में परिवर्तित कर देता है।

बज्र थैं तिण खिण भीतर होई, तिण कै कुलिस करै फुनि सोई । । 

गिवर छार छार गिरि होई, अविगति गति जानैं नहिं कोई।।

कबीर दास जी कहते हैं कि वह ईश्वर वज्र को क्षण भर में ही तृण में परिवर्तित कर देता है और फिर पुनः उस तृण को वज्र में परिवर्तित कर देता है। वह गिरि अर्थात् पर्वत को धूल बना देता है और धूल को पर्वत में बदल देता है। उस अविगत अर्थात सदा वर्तमान रहने वाले ईश्वर की गति को कोई भी नहीं जान सकता।

विशेष :-

राम की उपलब्धि तथा उसके सामर्थ्य की व्यंजना की गयी है। द्वितीय पंक्ति में उपमा अलंकार है।

द्वारा : एम. के. धुर्वे, सहायक प्राध्यापक, हिंदी