कबीर ग्रंथावली- डॉ. श्यामसुंदरदास-
ख. रमैणी समग्र । (Ramaini Samagra)
|| बड़ी अष्टपदी रमैंणी ||
एक बिनाँनी रच्या बिनांन,
एक बिनाँनी रच्या बिनांन, सब अयाँन जो आपैं जांन ।।
सत रज तम थैं कीन्हीं माया, चारि खानि बिस्तार उपाया ।।
पंच तत ले कीन्ह बंधानं, पाप पुंनि माँन अभिमानं ।।
अहंकार कीन्हें माया मोहू, संपति बिपति दीन्हीं सब काहू।।
भले रे पोच अकुल कुलवंता, गुणी निरगुणीं धनं नीधनवंता।।
भूख पियास अनहित हित कीन्हाँ, हेत मोर तोर करि लीन्हाँ ।।
पंच स्वाद ले कीन्हाँ बंधू, बंधे करम जा आहि अबंधू ।।
अचर जीव जंत जे आहीं, संकट सोच बियापैं ताहीं । ।
निंद्याअस्तुति मान अभिमांना, इनि झूठै जीव हत्या गियांनां ।।
बहु बिधि करि संसार भुलावा, झूठै दोजगि साच लुकावा ।।
माया मोह धन जोबनाँ, इन बँधे सब लोइ ।।
झूठे झूठ बियापियां कबीर, अलख न लखई कोई ।। १।।
शब्दार्थ :-
बिनाँनी = विज्ञानी। बिनांन = विज्ञान। अयाँन = स्वयं। बंधानं= बंधा हुआ । नीधनवंता = निर्धन लोग।
व्याख्या :-
एक बिनाँनी रच्या बिनांन, सब अयाँन जो आपैं जांन ।।
सत रज तम थैं कीन्हीं माया, चारि खानि बिस्तार उपाया ।।
एक वैज्ञानिक ने विज्ञान की रचना की है। जो प्राणी है अपने को शरीर के अनुसार जानता है तो वह पूरी तरह से अज्ञानी है क्योंकि वह शरीर नहीं है। उस वैज्ञानिक ने सत्व रज और तम इन तीनों गुणों से इस माया रुपी संसार की रचना की है। और चारों ओर से इसका विस्तार किया है।
पंच तत ले कीन्ह बंधानं, पाप पुंनि माँन अभिमानं ।।
अहंकार कीन्हें माया मोहू, संपति बिपति दीन्हीं सब काहू।।
पंच तत्वों को लेकर उसने बंधन बनाए हैं और इस सृष्टि की रचना की है। उसमें उसने पाप पुण्य मान अभिमान अहंकार माया मोह आदि माया की रचना की है और संपत्ति विपत्ति सभी में वितरित कर दिया है।
भले रे पोच अकुल कुलवंता, गुणी निरगुणीं धनं नीधनवंता।।
भूख पियास अनहित हित कीन्हाँ, हेत मोर तोर करि लीन्हाँ ।।
उसने भला बुरा कुलवान-कचलहीन, गुणी-निर्गुणी, धनवान और निर्धन, भूख-प्यास, हित-अहित आदि सबका निर्माण किया है।उसके पश्चात उसने हेतु और मेरा तेरा भी बनाया।
पंच स्वाद ले कीन्हाँ बंधू, बंधे करम जा आहि अबंधू ।।
अचर जीव जंत जे आहीं, संकट सोच बियापैं ताहीं । ।
निंद्याअस्तुति मान अभिमांना, इनि झूठै जीव हत्या गियांनां ।।
पांच स्वाद अर्थात पांच ज्ञानेंद्रियों को बनाया उससे पांच विषयों के अनुभवों को ग्रहण किया अर्थात उन्हें बंधु बनाया। उसके पश्चात कर्मों से बढ़ गया जो वास्तव में उसके बंधु नहीं हैं। इस चर अचर सृष्टि में जो चलायमान जीव जंतु है उन्हें ही संकट और शोक व्याप्त होता है। निंदा स्तुति मान और अपमान ये सभी झूठे हैं जो जीव के ज्ञान की हत्या कर देते हैं उसको नष्ट कर देते हैं।
बहु बिधि करि संसार भुलावा, झूठै दोजगि साच लुकावा ।।
माया मोह धन जोबनाँ, इन बँधे सब लोइ ।।
झूठे झूठ बियापियां कबीर, अलख न लखई कोई ।। १।।
बहुत प्रकार की विधियों के द्वारा अर्थात् तो प्रयासों के द्वारा इस संसार को भुलावे में डाल दिया गया है दोजग अर्थात् नरक झूठ है। और सत्य को छुपा दिया गया है। माया मोह धन यौवन इनसे सभी लोग बंध गए हैं। झूठ से झूठ ही व्याप्त हो गया है। कबीर दास जी कहते हैं कि उस अलख को कोई भी लखता नहीं है अर्थात् जो आंखों से दिखाई नहीं देता उसे कोई भी नहीं देख पाता। कहने का तात्पर्य है कि ध्यान के द्वारा अनुभव के द्वारा प्राप्त होने वाले उस परम तत्व की अनुभूति का अवश्य ही अनुभव करना चाहिए।
विशेष :-
(१) पंच तत्व से तात्पर्य, पृथ्वी, जल, अग्नि आकाश और वायु से है ।
(२) इस संसार को झूठा तथा माया-मोह आदि से व्याप्त बताया गया है
(३) माया-मोह – रूपक अलंकार
(४) चारि खानि विस्तार से तात्पर्य अण्डज, स्वदेज, उदभिज, तथा जरायुज नामक चार प्रकार की
सृष्टियों से है।
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।।निरंतर।।
झूठनि झूठ साँच करि जानाँ,
झूठनि झूठ साँच करि जानाँ, झूठनि मैं सब साँच लुकानाँ ।।
धंध बंध कीन्ह बहुतेरा, क्रम बिबर्जित रहै न नेरा । ।
घट दरसन आश्रम षट कीन्हाँ, षट रस खाटि काम रस लीन्हाँ ।।
चारि बेद छह सास्त्र बखानें, विद्या अनंत कथै को जाँनें ।।
तप तीरथ कीन्हें व्रत पूजा, धरम नेम दान पुन्य दूजा ।।
और अगम कीन्हैं ब्यौहारा, नहीं गमि सूझैं वार न पारा।।
लीला करि करि भेख फिरावा, ओट बहुत कछु कहत न आवा ।।
गहन ब्यंद कछू नहीं सूझै, आपन गोप भयौ आगम बूझै ।।
भूलि पर्यो जीव अधिक डराई, रजनी अंध कूप है आई ।।
माया मोह उनवैं भरपूरी, दादुर दॉमिनि पवनाँ पूरी । ।
तरिपै बरिषै अखंड धारा, रैनि भाँमिनी भया अँधियारा ।।
तिहि बियोग तजि भए अनाथा, परे निकुंज न पावै पंथा ।।
बेद न आहि कहूँ को मानै, जानि बूझि मैं भया अयानै । ।
नट बहुरूप खेलै सब जाँनै, कला केर गुन ठाकुर माँनै ।।
ओ खेले सब ही घट माँही, दूसर कै लेखे कछु नाही ।।
जाके गुन सोई पै जाँनै, और को जानै पार अयानैं ।।
भले रे पोच औसर जब आवा, करि सनमॉन पूरिजम पावा ।।
दान पुन्य हम दिहूँ निरासा, कब लग रहूँ नटारंभ काछा ।।
फिरत-फिरत सब चरन तुराँनै, हरि चरित अगम कथै की जानै ।।
गण गंध्रप मुनि अंत न पावा, रह्यौ अलख जग धंधै लावा ।।
इह बांजी सिव बिरंचि भुलांनां, और बपुरा को क्यंचित जानां ।।
त्राहि-त्राहि हम कीन्ह पुकारा, राखि राखि साईं इहि बारा।।
कोटि ब्रह्मंड गहि दीन्ह फिराई, फल कर कीट जनम बहुताई ।।
ईश्वर जोग खरा जब लीन्हों, टर्यो ध्यान तब खंडन कीन्हाँ ।।
सिध साधिका उनथै कहु कोई, मन चित अस्थिर कहुँ कैसे होई ।।
लीला अगम कथै को पारा, बसहु समीप कि रहौ निनारा ।।
खग खोज पीछें नहीं, तू तत अपरंपार ।।
बिन परचै का जानियै, सब झूठे अहंकार ।। 2 । ।
व्याख्या –
झूठनि झूठ साँच करि जानाँ, झूठनि मैं सब साँच लुकानाँ ।।
धंध बंध कीन्ह बहुतेरा, क्रम बिबर्जित रहै न नेरा । ।
झूठ में झूठी व्याप्त हो गया है और उसी का अभ्यास होने के कारण वही सत्य प्रतीत होता है और सत्य झूठ के आवरण से छुप गया है। अनेक प्रकार के व्यवहार और व्यवसाय करके मोह के बंधन में अनेकों प्रकार से पड गए और इसका कोई क्रम नहीं रहा इसका परिणाम यह हुआ की ईश्वर से दूर हो गए।
घट दरसन आश्रम षट कीन्हाँ, षट रस खाटि काम रस लीन्हाँ ।।
चारि बेद छह सास्त्र बखानें, विद्या अनंत कथै को जाँनें ।।
वह कहते हैं कि छह आश्रमों और 6 दर्शन की बात शास्त्रों में की गई है इस प्रकार 6 रस भी होते हैं किंतु व्यक्ति केवल एक काम रस में ही संलग्न रहता है अन्य रसों से विमुख रहता है। चार वेद और छह शास्त्र कहते हैं कि उसे अनंत की विद्या अर्थात् ईश्वरीय ज्ञान को किस प्रकार से जानना चाहिए उसे कौन जानता है अर्थात् कोई कोई जानता है।
तप तीरथ कीन्हें व्रत पूजा, धरम नेम दान पुन्य दूजा ।।
और अगम कीन्हैं ब्यौहारा, नहीं गमि सूझैं वार न पारा।।
मनुष्य तप तीरथ व्रत पूजा धर्म दान पुण्य नियम आदि करते रहता है किंतु वह उस अगम से व्यवहार नहीं करता और न हीं उसे वहां तक पहुंचने का कोई रास्ता सूझता है।
लीला करि करि भेख फिरावा, ओट बहुत कछु कहत न आवा ।।
गहन ब्यंद कछू नहीं सूझै, आपन गोप भयौ आगम बूझै ।।
वह ईश्वर अपने अनेक रूप धरकर अलग-अलग वेश बदल लेता है और वह अनेक प्रकार के ओट करके छुप जाता है इसे कहा नहीं जा सकता। वह परम तत्व अत्यंत गहन है उसके विषय में कुछ भी कहा नहीं जा सकता कुछ सोचता नहीं है वह स्वयं ही गोपनीय होकर अगम्य हो गया है उसे शास्त्र जानते हैं अथवा शास्त्रानुसार उसे जाना जा सकता है।
*शब्दार्थ। :-आगम और निगम का अर्थ क्या है? निगम का अर्थ है वेद ,उपवेद और वेद ज्ञान। आगम का अर्थ है आया हुआ ,पहुंचा हुआ, यानी शास्त्र ज्ञान जिससे वेद का सही अर्थ जाना जा सके । निगमागम का अर्थ है वेद ,शास्त्र।
भूलि पर्यो जीव अधिक डराई, रजनी अंध कूप है आई ।।
माया मोह उनवैं भरपूरी, दादुर दॉमिनि पवनाँ पूरी । ।
यह जीव उसे भूल कर अधिक भयभीत हो गया है क्योंकि प्राणी अज्ञात से भयभीत होता है। और अंधकार की रात्रि जो बढ़ती ही जा रही है में अंधे कूप में जा पड़ता है। ऐसी भयानक रात्रि में माया और मोह अत्यधिक बढ़ता जाता है और मेंढक टर्राते हैं,बिजली चमकती है और तूफान आने लगे हैं।
तरिपै बरिषै अखंड धारा, रैनि भाँमिनी भया अँधियारा ।।
तिहि बियोग तजि भए अनाथा, परे निकुंज न पावै पंथा ।।
गरज और बिजली की चमक के साथ मूसलाधार बारिश हो रही है और रात्रि का भयानक अंधकार व्याप्त है। ऐसे में हमारे पास कोई आसरा नहीं है और ईश्वर का वियोग होने से अनाथ हो गए हैं और कोई रास्ता नहीं सूझता है घने जंगल में, ऐसे में भटके हुए होने के कारण कोई रास्ता सूझता नहीं है।
बेद न आहि कहूँ को मानै, जानि बूझि मैं भया अयानै । ।
नट बहुरूप खेलै सब जाँनै, कला केर गुन ठाकुर माँनै ।।
मनुष्य स्वयं इससे निकलने का रास्ता जानता नहीं है और न ही वह किसी का कहा मानता है। इस प्रकार वह जानबूझकर अज्ञान के अंधकार में डूब गया है। नट अर्थात अभिनय करने वाला अभिनेता तरह-तरह के अभिनय करता है वह सब जानता है। किंतु इस प्रकार के कलाकारों का अभिनय कम महत्व अथवा तो गुण उसका स्वामी अर्थात जीव रूपी अभिनेता का ईश्वर रूपी स्वामी ही उसकी कला का महत्व जानता है और उसका सम्मान करता है। अतः प्राणी को ईश्वर के पास जाना चाहिए।
ओ खेले सब ही घट माँही, दूसर कै लेखे कछु नाही ।।
जाके गुन सोई पै जाँनै, और को जानै पार अयानैं ।।
वह सभी घटों में खेल रहा है क्रीडा कर रहा है अर्थात् वह सभी के भीतर बस रहा है किंतु दूसरों के लिए जैसे उसका कोई महत्व ही नहीं है इस प्रकार से अनभिज्ञ रहते हैं। जिसके भीतर ज्ञान रहता है वही उसे जान पता है और दूसरा उसे कैसे जान सकता है वह तो अज्ञान में रहता है।
भले रे पोच औसर जब आवा, करि सनमॉन पूरिजम पावा ।।
दान पुन्य हम दिहूँ निरासा, कब लग रहूँ नटारंभ काछा ।।
अपने आत्म स्वरूप को जाने बिना भले और बुरे सभी प्रकार के लोग जब अवसर आता है तब यमपुरी में जाने का सम्मान प्राप्त करते हैं। उनके दान पुण्य सभी व्यर्थ हो जाते हैं और निराशा हाथ लगती है कबीर दास जी कहते हैं कि इस नाटक के खेल में आप कब तक लिप्त रहेंगे।
फिरत-फिरत सब चरन तुराँनै, हरि चरित अगम कथै की जानै ।।
गण गंध्रप मुनि अंत न पावा, रह्यौ अलख जग धंधै लावा ।।
घूमते घूमते अब हम थक कर चूर हो गए हैं और उसे ईश्वर के चरित्र को कौन जा सकता है जो गम है अर्थात इंद्रियों से जिसका अनुभव करना संभव नहीं। वह ईश्वर गणों गंधर्वों मुनियों से भी जाना नहीं जा सका है उन्होंने भी उसका अंत नहीं पाया है। वह अलख संसार से अलिप्त रहा है और सारे संसार को उसने कार्यों में लगा दिया है, व्यस्त कर दिया है।
इह बांजी सिव बिरंचि भुलांनां, और बपुरा को क्यंचित जानां ।।
त्राहि-त्राहि हम कीन्ह पुकारा, राखि राखि साईं इहि बारा।।
इस बाजीगरी अथवा अथवा इस खेल में शिव और सृष्टि करता ब्रह्मा भी भूले हुए हैं और भला दूसरों की क्या कहा जाए। हम सभी त्राहि त्राहि पुकार रहे हैं अर्थात हे प्रभु हमारी रक्षा कीजिये रक्षा कीजिए इस बार अर्थात् इस जन्म में हमारी लाज रख लीजिए हमें तार दीजिए।
कोटि ब्रह्मंड गहि दीन्ह फिराई, फल कर कीट जनम बहुताई ।।
ईश्वर जोग खरा जब लीन्हों, टर्यो ध्यान तब खंडन कीन्हाँ ।।
हे सर्वेश्वर तुमने मुझे करोड़ ब्रह्मांडों में भ्रमण कर दिया है। फल के अंदर रहने वाले कीड़े की तरह मुझे बहुत जन्मों तक इस माया में रखा है।
मैं ईश्वर रूपी योग को जब सचमुच में ग्रहण कर लिया है तब मेरा ध्यान संपूर्ण होकर समाप्त हो गया है और मैं आत्म स्वरूप को इस माया का खंडन करके प्राप्त किया है।
सिध साधिका उनथै कहु कोई, मन चित अस्थिर कहुँ कैसे होई ।।
लीला अगम कथै को पारा, बसहु समीप कि रहौ निनारा ।।
खग खोज पीछें नहीं, तू तत अपरंपार ।।
बिन परचै का जानियै, सब झूठे अहंकार ।। 2 । ।
सिद्ध और साधकों को जाकर कोई उन्हें यह समझाए कि यह मन यह चित्त अस्थिर है और यह स्थिर कैसे होगा। इसका उपाय वे आगे कहते हैं कि उस अगम की लीला का कोई पार नहीं पा सकता अर्थात् वह अपरंपार है। उसके समीप जाकर, उसके निकट जाकर, उसे निहारने से, उसका दर्शन करने से, उसका अनुभव करने से ही वह जाना जा सकता है।
कबीर दास जी कहते हैं कि पक्षी जब आकाश में उड़ता है तो वह पीछे की ओर नहीं देखता, किंतु वह अपरंपार तत्व हम जब इंद्रियों के विषयों से विरक्त होकर प्रत्याहार के द्वारा पीछे की ओर उल्टा गमन करते हैं ध्यान करते हैं अपनी इंद्रियों को समेट लेते हैं और अंतर में ध्यान करते हैं तो वह अपरंपार तत्व प्राप्त हो जाता है।
उसे ईश्वर का अनुभव किए बिना आत्म स्वरूप को जाने बिना कुछ भी जाना नहीं जाता अर्थात् सब कुछ व्यर्थ सिद्ध होता है और यह जो संसार की मोह माया को लेकर अहंकार किया जाता है यह व्यर्थ है।
विशेष:-
ईश्वर के अगम और अलक्ष्य रूप अर्थात् निर्गुण ब्रह्म का वर्णन है। उपमा, विशेषोक्ति, रूपक, वक्रोक्ति, विरोधाभास आदि अलंकारों का भी प्रयोग किया गया है। वर्षा के बिम्ब का विधान किया है।
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द्वारा : एम. के. धुर्वे, सहायक प्राध्यापक, हिंदी