(From IGNOU)
प्रस्तावना
धूमिल नयी कविता के बाद की हिंदी कविता के उस दौर के कवि हैं जब हिंदी कविता बिब, प्रतीकों के जाल में उलझकर अत्यधिक कलात्मक, मूर्त और व्यक्तिवादी होती जा रही थी और जीवन के ठोस, जीवंत यथार्थ से उसका सम्पर्क टूटता जा रहा था। दूसरी ओर देश आजादी के बाद एक ऐसे मोह भंग से गुजर रहा था जिसमें सामाजिक, नैतिक, राजनीतिक मूल्य टूट
यहाँ सब से पहले हम धूमिल के जीवन परिचय और कृतित्व की जानकारी हासिल करेंगे। उसके बाद उनके युग रहे थे, भ्रष्टाचार, बेईमानी, चोर बाज़ारी का बाजार गर्म था, यानि कि चारों ओर अव्यवस्था फैली हुई थी। ऐसे में हिंदी कविता भी कुछ लोगों की कलात्मक रुचि का पर्याय बन कर रह गयी थी। धूमिल ने अपनी कविता को नयी कविता की इस अभिजात और व्यक्तिवादी धारा के विरोध में जनता के साथ और समाज के आम और व्यापक सरोकारों से जोड़ा, भाषा को उसके अभिजात्य से मुक्ति दिला कर जीवन के ठोस, वीभत्स और कड़वे यथार्थ की अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया। उनकी कविता में आयी हुई यौन शब्दावली व्यवस्था और झूठी नैतिकता के पुरजोर विरोध की कलात्मक अभिव्यक्ति का माध्यम बनी।पृष्ठभूमि में उस समय की सामाजिक, राजनीतिक, साहित्यिक परिस्थितियों का विश्लेषण करेंगे। अन्तर्वस्तु में आप धूमिल की के काव्य की विषयवस्तु की विशेषताओं के बारे में पढ़ेंगे और संरचना शिल्प में उनकी काव्य भाषा, प्रतीक एवं बिंब के बारे में पढ़ेंगे। अंत में उनकी कविताओं के कुछ पद्यांशों की व्याख्या की जाएगी, जिसके आधार पर आप उनकी कविताओं की व्याख्या करना सीख सकेंगे।
जीवन परिचय एवं कृतित्व
सुदामा पाण्डेय ‘धूमिल’ का जन्म 9 नवम्बर, 1936 को श्री शिवनायक पाण्डेय के घर बनारस के पास खेवली में हुआ था। उनकी माँ का नाम रजवंती देवी था, जो एक धर्मपरायण महिला थीं। धूमिल अपने चारों भाइयों से बड़े थे। पिता की मृत्यु के बाद घर-भर की जिम्मेदारी इन्हीं को संभालनी पड़ी।
धूमिल ने 1953 में हाई स्कूल की परीक्षा पास की। अपने गाँव में वे पहले व्यक्ति थे, जिसने इतना अध्ययन किया। वे इससे आगे भी पढ़ना चाहते थे किन्तु घर की समस्याओं के कारण उच्च अध्ययन की उनकी आकांक्षा पूरी नहीं हो सकी। उनका विवाह पिता की मृत्यु के एक वर्ष के बाद ही हो गया था। तब वे सिर्फ बारह वर्ष के थे। उनकी पत्नी का नाम मूरतदेवी था। रोजी-रोटी की तलाश में धूमिल गाँव छोड़ कर एक मित्र के बुलाने पर कलकत्ता पहुँचे। किन्तु वहाँ पैर नहीं जमे। तीन वर्ष तक एक लकड़ी के ठेकेदार के साथ काम करने के बाद वे नौकरी छोड़ कर बनारस आ गये। किन्तु इस नौकरी में उन्होंने हिमालय की तराई से ले कर असम के जंगलों तक की सैर कर डाली। ब आकर धूमिल ने 1958 में “औद्योगिक प्रशिक्षण संस्थान” से प्रथम श्रेणी में विद्युत डिप्लोपा प्राप्त किया और इसी वर्ष, यहीं पर वे विद्युत अनुदेशक के पद पर कार्य करने लगे। भ्रष्ट अधिकारियों के कारण उन्हें बार-बार स्थानांतरित किया जाता रहा। बनारस में रह कर वे घर गाँव की खेती की देखभाल कर सकते थे। किन्तु बनारस से बाहर रह कर यह काम कठिन था। 1974 में जब गाँव में चकबंदी हो रही थी, उनका तबादला सीतापुर कर दिया गया। धूमिल के लिए इस वक्त गाँव में रहना जरूरी था इसलिए उन्होंने लंबी छुट्टी की अर्जी भेज दी और बनारस में ही रहने लगे। इन्हीं दिनों उनके सिर का भयंकर दर्द फिर उभर आया। डॉक्टरों ने उन्हें ब्रेन ट्यूमर हो जाने की सूचना दी। नवम्बर 1974 में उन्हें लखनऊ ले जाया गया। ऑपरेशन के बाद 10 फरवरी 1975 को उनकी मृत्यु हो गयी।
धूमिल में ज्ञान की गज़ब की भूख थी जिसे वह परिश्रम करने की क्षमता में मिटाता था। हर वक्त वह कुछ न कुछ सीखने की फिराक में रहता था इसके लिए उसने एक तरीका ढूंढ निकाला था असहमति का वह जिस – किसी से कुछ सीखना चाहता, जानना चाहता, उससे असहमत होते हुए बात करता, तब तक जब तक कि वह व्यक्ति पूरी तरह खाली न हो जाए। पूर्ण रूप से अराजक और व्यक्तिवादी होने से पूर्व ही वह नामवर सिंह के कारण मार्क्सवादी दर्शन की ओर मुड़ गये। –
धूमिल कविता का कारीगर था। वह कविता लिखता नहीं, बनाता था। उसकी जेब में हमेशा कागज पेंसिल रहती थी।धूमिल की कविताएँ “जनयुग”, आलोचना, आरंभ, कल्पना, नयी धारा में छपने लगीं थीं और “संसद से सड़क तक ” ने उसे साठोत्तरी कविता में एक अलग पहचान भी दे दी थी।
कृतित्व (dhumil ki kavitayen)
धूमिल के कुल चार काव्य संग्रह प्रकाशित हुए हैं।
संसद से सड़क तक
कल सुनना मुझे बाँसुरी जल गयी.
सुदामा पाण्डे का प्रजातंत्र
इसके अतिरिक्त धूमिल विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लेख भी लिखते रहे।
युगीन पृष्ठभूमि
धूमिल की कविता को समझने के लिए उसकी युगीन पृष्ठभूमि जानना आवश्यक है जिसने उस के काव्य को माँजा, तराशा और एक नयी पहचान दी। राजनीतिक पृष्ठभूमि धूमिल जब काव्य रचना में प्रवृत्त हुए तब देश आजादी प्राप्त कर चुका था और नेहरू के नेतृत्व में कांग्रेस ने देश की सत्ता संभाली हुई थी। नेहरू देश में समाजवादी व्यवस्था लाने का स्वप्न देख रहे थे। इसी दौरान देश को एक साथ दो युद्धों का सामना करना पड़ा। 1962 में चीन के साथ और 1965 में पाकिस्तान के साथ। जनता के मोहभंग की शुरुआत भी इसी समय हुई आज़ादी से जो कामनाएँ, जो आकांक्षाएँ जनता ने पाली थीं, वे धूमिल होने लगीं।
रोटी कपड़ा मकान की समस्या, अशिक्षा, बेरोज़गारी आदि की समस्याएँ मुँह खोले खड़ी थीं। 1967 के आम चुनावों में जनता का असंतोष व्यक्त हुआ। कांग्रेस को कई राज्यों में हार का सामना करना पड़ा। केंद्र में भी उसकी शक्ति कमजोर हुई। देश में जगह-जगह जन आंदोलनों द्वारा जनता ने सरकार की नीतियों के विरुद्ध अपनी नाराजगी जाहिर की। आंध्र प्रदेश, प. बंगाल, बिहार में हिंसात्मक आंदोलन भी हुए, जो नक्सलवादी आंदोलन के नाम से जाने गये। 1971 में एक बार फिर देश को एक और युद्ध का सामना करना पड़ा। लेकिन और राजनेताओं “के प्रति जनता के मन में अविश्वास लगातार बढ़ता जा रहा था। सन् 1974 तक आते-आते देश में व्यवस्था के खिलाफ एक बार फिर तूफान उठ खड़ा हुआ गुजरात से चला विद्यार्थी आंदोलन बिहार में फलीभूत हुआ। सर्वोदय नेता जय प्रकाश नारायण ने पूर्ण क्रांति के लिए संघर्ष का नारा दिया। इसने हिंदी काव्य को एक नयी प्रेरणा दी।
आजादी के बाद के इस राजनीतिक फलक पर राजनेताओं के भ्रष्ट चेहरे, दोगली नीतियाँ जनता के सामने खुल कर आयीं। जनता का चुनाव प्रणाली पर से लगभग विश्वास उठ गया। परिणामस्वरूप निराशा, हताशा, मूल्यविहीनता, बेकारी, अत्याचार, हिंसा और अव्यवस्था का माहौल बन गया।
साहित्यिक परिस्थिति : धूमिल ने जब लिखना शुरू किया उस समय हिंदी कविता में प्रयोगवाद और नयी कविता का दौर खत्म हो चुका था। नयी कविता में दो प्रकार की काव्यधाराएँ थीं- -एक प्रगतिशील काव्यधारा जिसमें मुक्तिबोध, – शमशेर आदि कवि थे और दूसरी काव्यधारा व्यक्तिवादी कविता की थी जिसके पुरोधा अज्ञेय थे। इसके समानांतर हो साठोत्तरी कविता में काव्यधाराओं के कुछ ऐसे क्षप्पिक दौर भी चले जो युग की निराशा, मोहभंग, हताशा के कारण उपजे थे, किन्तु जिसके पास कोई जीवनदृष्टि नहीं थी। अकविता, विचार कविता, युयुत्सु भूखी पीढ़ी की कविता जैसी काव्यधाराएं ऐसी ही थीं।
धूमिल की कविताओं पर भी अकविता का प्रभाव पड़ा। यौन से संबंधित शब्दावली इसी अकविता के प्रभाव से उनकी कविता में आयी।
धूमिल का समकालीन काव्य परिदृश्य अकविता आदि क्षणिक आवेगों से भरी नकारात्मक कविता से भरा पड़ा था। ऐसे में धूमिल ने कविता को सार्थकता से जोड़ने की बात कर कविता को इस हताशा, निराशा से बाहर निकाला, कविता के प्रति लोगों का ध्यान खींचा और कविता को व्यक्तिवादी सरोकारों से बाहर निकालकर उसे बृहत्तर सामाजिक सरोकारों से जोड़ने का प्रयास किया।
अन्तर्वस्तु
धूमिल के काव्य की अन्तर्वस्तु अत्यंत व्यापक है उसके भीतर सारा देश है। देश की आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक स्थिति परिस्थिति है। व्यक्ति और समाज की अनेकों समस्याएँ हैं। कांग्रेसी समाजवाद और उसके खोखले जनतंत्र का भंडाफोड़ है। भाषा आंदोलन का चित्र है, तो अकाल का चित्र भी है और उसके कारणों का मार्मिक उद्घाटन भी है। वस्तुतः धूमिल का काव्यं स्वाधीन भारत की व्यथा-कथा है, स्वाधीन भारत की आशा, आकांक्षा, निराशा की जीती-जागती तस्वीर है। आइए, धूमिल की कविता के व्यापक सरोकारों को देखें
समकालीन राजनीतिक व्यवस्था
धूमिल साठोत्तरी कविता के कवि हैं। साठोत्तरी कविता मोहभंग की कविता है। यह मोहभंग जनता का अपने राजनेताओं, राजनीति और व्यवस्था से उपजा मोहभंग है। महोभंग से पहले मोह या आशा की स्थिति होती है। वर्षों तक अनवरत संघर्ष के बाद जनता ने आज़ादी मिलने के बाद देश के कर्णधारों से इतनी अपेक्षा की थी कि वे आम आदमी को रोटो-कपड़ा मकान मुहैय्या करवाएंगे, बेकारी दूर होगी, सब को शिक्षा, सब को काम मिलेगा। किंतु आजादी मिलने के बीस वर्षों के बाद जनता ने यह देखा कि उनके सब का बांध टूटता जा रहा है, पंचवर्षीय योजनाएँ, हरित क्रांति, पंचशील के सिद्धांत नेहरू का समाजवाद सब आदमी की सामान्य जरूरतें पूरी करने में नाकाम रहे हैं और राजनेताओं ने राजनीति को अपने स्वार्थ का अखाड़ा बना लिया है और समाज में व्यक्ति को दशा दुर्दशा में बदलती जा रही है। ऐसे में जनता का राजनीतिक व्यवस्था और राजनेताओं से मोहभंग होता है। धूमिल अपनी एक कविता “बीस साल बाद में इसी मोहभंग को अभिव्यक्ति देते हैं. –
बीस साल बाद
मैं अपने आपसे एक सवाल करता हूँ। जानवर बनने के लिए कितने सब की ज़रूरत होती है।
क्योंकि देश में हिंसा का वातावरण है— कर्फ्यू, गोलियों से जनता को भरमाया जा रहा है, उनका ध्यान उनकी समस्याओं से परे खींचा जा रहा है स्थिति इतनी बदतर है कि धूमिल का स्वर आक्रोश से पैना हो कर इस विसंगत स्थिति की त्रासदी को इस शब्दों में व्यक्त करता है –
हवा से फड़फड़ाते हुए हिंदुस्तान के नक्शे पर
गाय ने गोवर कर दिया है।
यह भस अभिव्यक्ति बौखलाए हुए व्यक्ति की मानसिक दशा का परिणाम है जो मूल्यहीनता को बरदाश्त नहीं — कर पाता। किन्तु इस आक्रोश और बौखलाहट से परे भी जब वह सोचने की कोशिश करता है तो यही सोचता है –
क्या आजादी सिर्फ तीन थके हुए रंगों का नाम है। जिन्हें एक पहिया ढोता है
या इस का कोई खास मतलब होता है?
और उसे इस चरमराती और सड़ांध भरी हुई व्यवस्था में कोई उत्तर नहीं मिलता। आजादी के झण्डे के तीन रंग लाल, जो कि परिवर्तन और क्रांति का संकेत है, सफेद- जो कि शांति का प्रतीक है और हरा – – जो खुशहाली का प्रतीक है ये तीनों रंग थके हुए हैं क्योंकि देश में न परिवर्तन हुआ है, न खुशहाली आई है और न ही शांति । इस प्रकार “बीस साल बाद” कविता आजादी के बाद के मोहभंग और निराशा से भरे हुए माहौल को अभिव्यक्ति देती है।
प्रयोगवाद और नयी कविता
धूमिल की एक और कविता है “जनतंत्र के सूर्योदय में”। इसमें कवि ने हमारे प्रजातंत्र के चेहरे को बेनकाब किय है। हमारे नेता किस प्रकार नौकरशाही के साथ मिल कर आम जनता का शोषण करते हैं, कैसे देश के नौजवानों का भविष्य फाइलों में बंद कर काले दराजों में दफ़न कर दिया जाता है। सारा देश नेताओं की नींद और नौकरशाही
नफरत का शिकार हो रहा है। “अकाल दर्शन” कविता में कवि देश के चालाक नेताओं से सीधा प्रश्न पूछता है कि “भूख कौन उपजाता है? जनसंख्या में वृद्धि या नेताओं को जनता के प्रति घृणा, जो हमें बार-बार निरर्थक बातों में उलझा कर बेबस कर देती है।
धूमिल अपने राजनीतिक परिवेश के प्रति पूरी तरह सजग थे। स्वाधीनता प्राप्ति से लेकर सन् 1975 तक की आपातकालीन घटनाओं तक का ब्यौरा उनकी कविताओं में दर्ज है। देश में बढ़ रहे भ्रष्टाचार, हिंसा, आतंक, भाई-भतीजावाद, चुनावी धांधलियाँ, राजनीतिक हत्याएँ, दक्षिणपंथी शक्तियों की साजिशें अर्थात् धूमिल पूरी राजनीतिक व्यस्था का विरो करते हैं। धूमिल की राजनीतिक चेतना अव्यवस्था को पूरी तरह नंगा करती है।
विषमता एवं शोषण पर आधारित आर्थिक ढांचा
धूमिल ने सामाजिक यथार्थ का बेबाक ढंग से अपनी कविताओं में चित्रण किया है। शहर और गाँवों में आर्थिक विषमता एक समान है किन्तु उनके कारण अलग-अलग हैं। शोषकों के चेहरे गाँव और शहर में एक जैसे होते हैं। आर्थिक विषमता और शोषण का चित्रण करती हुई उनकी प्रमुख कविताएँ हैं। ‘अकाल दर्शन”, जिसमें धूमिल बुनियादी सवाल उठाते हैं कि “भूख कौन उपजाता है। वे देखते हैं कि बेशक भूख उपजाने में नेताओं की दोगली नीतियाँ, भ्रष्टाचार और शोषण ही जिम्मेदार हैं किन्तु धूमिल की निगाह में जनता की जड़ता और सारी स्थिति के प्रति गहरी उदासीनता भी इसके लिए जिम्मेदार है। क्योंकि शोषण के तले पिसती हुई जनता यथास्थिति को स्वीकार करके शोषण को अपना भाग्य मान लेती है। धूमिल लिखते हैं –
लोग बिलबिला रहे हैं (पेड़ों को नंगा करते हुए) पत्ते और छाल खा खड़े हैं
मर रहे हैं, दान
कर रहे हैं।
जलसों जुलूसों की भीड़ में पूरी ईमानदारी से हिस्सा ले रहे हैं और
अकाल की मोहर की तरह गा रहे हैं। झुलसे हुए चेहरों पर कोई चेतावनी नहीं है।
(संसद से सड़क तक, पृ. 16)
धूमिल का व्यंग्य बोध
धूमिल ने समकालीन राजनीति और व्यवस्था के भ्रष्टाचार और खोखलेपन को उभारने के लिये व्यंग्य का सहारा लिया। उनकी कविताओं में सबसे अधिक राजनीतिक व्यंग्य ही उभरा है। वैसे धूमिल ने अपने व्यंग्य का लक्ष्य हर उस वस्तु को बनाया है जिसे वह ठीक नहीं समझते। धूमिल ने इस देश की संसद, समाजवाद, आजादी, चुनाव, नेता, राजनीति, जनतंत्र, क्रांति, सभी पर व्यंग्योक्तियाँ लिखी हैं कुछ उदाहरण देखिए –
हिमालय से लेकर हिंद महासागर तक फैला जली हुई मिट्टी का ढेर है जहाँ हर तीसरी जुबान का मतलब नफरत है हुआ
साजिश है अंधेर है
यह मेरा देश है
घृणा में
डूबा हुआ सारा का सारा देश
पहले की ही तरह आज भी मेरा कारागार है।
(संसद से सड़क तक, पृ. 114 )
जयशंकर प्रसाद के “अरुण यह मधुमय देश हमारा” और धूमिल के “जली हुई मिट्टी का ढेर” और “अपना कैदखाना” के देश बोध की विभिन्नता का कारण और कुछ नहीं यह राजनीति ही है, जो देश की दुर्दशा के लिए जिम्मेदार – है। धूमिल की नजर में आज़ादी के बाद के जनतंत्र ने देश को बर्बाद कर दिया है। इस जनतंत्र में यथा राजा तथा प्रजा वाला पोस्टर बड़े विश्वासपूर्वक चिपका हुआ है। भूमिल की नजर में देशभक्ति की परिभाषा क्या है?
हर तरफ धुआ है.
भूमिल
हर तरफ कुहासा है।
जो दाँतों और दलदलों का दलाल है
वही देशभक्त है
(संसद से सड़क तक, पृ. 115 )
जनतंत्र, समाजवाद, आज़ादी और क्रांति की बदले हुए समय में धूमिल की ये परिभाषाएं हैं।
जनतंत्र
एक ऐसा तमाशा है।
जिस की जान
समाजवाद
मदारी की भाषा है “मगर मैं जानता हूँ कि मेरे देश का समाजवाद उन बाल्टियों की तरह है पर है
मालगोदाम में लटकी हुई
और उनमें बालू और पानी भरा है।’ “सिर्फ तीन थके हुए रंगों का नाम है
आज़ादी
जिसे एक पहिया ढोता है”
राजनीति के अलावा धूमिल ने तथाकथित अवसरवादी बुद्धिजीवियों पर शोषण को स्वीकार कर रही जनता की कायरता
पर, शहरी और कस्बाई जीवन पर मूल्यगत हास पर भी व्यंग्योक्तियाँ लिखी है। धूमिल के शब्दों में जनता क्या है
“जनता क्या है?
एक शब्द – सिर्फ एक शब्द है
एक पेड़ है
कुहरा और कीचड़ और काँच से बना हुआ। अपनी पीठ पर ऊन की फसल हो रही है।”
जो दूसरों की ठंड के लिए
वस्तुतः धूमिल की कविता का स्वर ही व्यंग्यात्मक है। धूमिल की कविताएँ पढ़ते हुए एक खास तरह की उद्विग्नता, खीझ, आत्मग्लानि, असहायता और हताशा का अनुभव होने लगता है।
नारी जीवन के चित्र
धूमिल की कविताओं में नारी जीवन के भी चित्र मिलते हैं। इन चित्रों में कोमलता और सौंदर्य बोध के मधुर पक्ष का अभाव ये धूमिल ने अपने आसपास के जीवन और समाज से लिए है, जिसमें नारी संबंधों की अनेकरूपता है। वहाँ अगर व्यभिचार है तो प्यार भी है किन्तु धूमिल ने व्यभिचार और विकृतियों को ही अधिक चुना है। क्योंकि धूमिल जीवन की विकृतियों को उघाड़ कर, अपना असंतोष और आक्रोश प्रकट करना चाहते हैं बदलती – हुई नैतिकताओं, सड़ते हुए जीवन मूल्यों और नैतिक मूल्यों पर उंगली रखना चाहते हैं और जनता में आग पैदा करना चाहते है ताकि जनता अपनी यथास्थिति को तोड़ कर परिवर्तन की दिशा में सोच सके। धूमिल के यौन चित्रण में आरंभ से ही अस्वीकार का स्वर हैं, स्वीकार का नहीं सत्य के एक ही पहलू को उन्होंने चित्रित किया है। लेकिन यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि नारी जीवन के उज्ज्वल पक्ष पर उन्होंने कहीं भी चोट नहीं की है।
धूमिल पर अकविता की व्यक्तिवादी अराजकतावादी दृष्टि का भी प्रभाव था। स्त्री के प्रति उनका दृष्टिकोण इसी प्रभाव का परिचायक है। कविता में यौन संबंधों का उन्मुक्त और विकृत चित्रण धूमिल यद्यपि आमतौर पर प्रतीकात्मक अर्थ में करते हैं, फिर इससे नारी के प्रति उनके दृष्टिकोण का आभास तो मिलता ही है। उदाहरण के लिए उनकी ‘कविता’ कविता लें, जिसमें उन्होंने कविता संबंधी अपनी अवधारणा को स्त्री की सामाजिक दशा से तुलना करके प्रस्तुत किया है। परंतु यहाँ जिस शब्दावली में उन्होंने यह प्रसंग प्रस्तुत किया है, वह स्त्री जाति के लिए बहुत सम्मानजनक नहीं कहा जा सकता।
ने अपनी कविताओं में कई बार कई ऐसे शब्दों का प्रयोग किया है जो आम बोलचाल में भी शिष्ट नहीं समझे जाते । धूमिल ने संभवतः उन्हें इसलिए प्रयुक्त किया है क्योंकि वे जीवन और कविता दोनों में अभिजातवादी नैतिकवादी को उचित नहीं मानते थे। इस वर्ग की हिपोक्रेसी को तोड़ने के लिए उन्होंने इस अतिवादी मार्ग को अपनाया। यहाँ इतना तो कहा ही जा सकता है कि इस अभिजातवर्ग के प्रति धूमिल का गुस्सा और आक्रोश उचित था क्योंकि आम आदमी के कष्ट उन्हीं की देन थे, लेकिन उस दौर में इस क्रोध और आक्रोश की अभिव्यक्ति संतुलित भाषा में नहीं हो पा रही थी और कवियों के उबाल का शिकार स्त्रियों को भी होना पड़ता था। खास बात यह है कि धूमिल ही ऐसे कवि थे जिन्होंने अकविता के दृष्टिहीन दौर से निकलकर जनोन्मुखी दृष्टिकोण को अपनाने की सार्थक कोशिश की। यही कारण है कि नारी के प्रति उनके दृष्टिकोण में बाद में सकारात्मक बदलाव आया।
प्रयोगवाद और नयी कविता
कविता विषयक धारणा
धूमिल ने कविता के विषय में गहराई तक विचार किया है। कविता की सार्थकता उसके लिए महत्वपूर्ण मसला रह है। काशीनाथ सिंह का कथन है कि “वह कविताएँ नहीं, पंक्तियाँ लिखता था। उसकी जेब में हमेशा कागज और कलम होती थी। सड़क, चायघर, दुकान, पार्क, सिनेमाघर, कचहरी – – हर जगह उसे जो भी मतलब की चीज नजर – आती, जो भी काम का जुमला उसके कान में पड़ता, वह टाँक लेता।” (आलोचना, अंक-33) अपनी कविता के बारे में स्वयं धूमिल ने अपने एक लेख “कविता पर एक वक्तव्य” में लिखा है. “मेरी कविताएँ, गुस्से व ग्लानि की इन्हीं स्थितियों में लिखी गयी हैं, जिनमें मेरी कविताओं का मूल स्वर-बोध को उसके सही डायमेंशनों में रखता है। साथ ही एक चौथे डायमेंशन की शिनाख्त भी करनी है। अब तक चौथे डायमेंशन की धारणा में असीम व अलख की अभिव्यक्ति हुई है। चीज की लम्बाई, चौड़ाई और मोटाई के बाहर के किसी शक्ति विशेष की बात होती रही है। चौथे डायमेंशन से मेरा तात्पर्य चीज के उस निजी सामर्थ्य से है, जो उसमें है और जिसको मध्यस्थता के कारण वस्तु और व्यक्ति अपनी-अपनी स्थितियों में सुरक्षित एक तनाव के बावजूद एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। इस का तात्पर्य यह कदापि नहीं कि हम चीज के प्रति प्रतिबद्ध हैं। बल्कि ऐसा केवल इसलिए है कि हम कहीं न कहीं संलग्न है और यह संलग्नता किसी हद तक हमें प्रतिबद्ध होने की कोशिश तक जरूर ले जाती है। मैं जान गया हूँ कि बम गिरने की पीड़ा से चाय के ठंडे होने का दुःख कितना बड़ा है। कोई चीज कहाँ है और कैसे है का सही बोध ही मेरी रचना का धर्म है। क्रम में चीज के निर्वासन करने की बात भी महत्वपूर्ण है। चीज को नंगा करना उद्देश्य नहीं, बल्कि उसके सही “कद” को प्रस्तुत करने की एक प्रक्रिया मात्र है।”
धूमिल ने अपनी कविताओं में जगह-जगह कविता पर वक्तव्य दिये हैं।
“हर सार्थक कविता
पहले एक सार्थक वक्तव्य होती है”
“इस वक्त जब कान नहीं सुनते हैं कविताएँ कविता पेट से सुनी जा रही है”
वास्तव में धूमिल कविता के विषय में पूरी तरह सचेत व जागरूक था। कवि और कविता की सारी शक्ति और सीमाओं को जानता हुआ भी वह उसकी सामाजिक आवश्यकता के प्रति आस्थावान था। जितनी स्पष्टता उसको कविताओं में है उसका कारण चीजों के प्रति उसकी स्पष्ट धारणा है।
संरचना शिल्प
यहाँ हम धूमिल की काव्य-भाषा, बिंब, प्रतीक पर चर्चा करेंगे। धूमिल नयी कविता के बाद हिंदी कविता के उस दौर में काव्य रचना में प्रवृत्त हुए थे, जब हिंदी कविता को काव्य भाषा बिंबों, प्रतीकों के जाल में उलझी हुई थी. और – जन-जीवन से उसका नाता टूटा हुआ था। अस्पष्टता, दुरूहता कविता की खूबी और खामी दोनों मानी जा रही थीं। धूमिल ने काव्य भाषा को अभिजात्य की इस दलदल से बाहर निकालने का प्रयास किया। काव्य भाषा पर उनका चिंतन उनकी कविताओं में भी व्यक्त होता रहा। “संसद से सड़क तक” की पहली कविता में ही वे कविता की बिंबों एवं सूक्ष्म प्रतीकों से लदी हुई भाषा को नकार देते हैं
“नहीं अब वहाँ कोई अर्थ खोजना व्यर्थ है –
पेशेवर भाषा के तस्कर संकेतों
और बैलमुत्ती इबारतों में अर्थ खोजना व्यर्थ है।”
यहाँ जिस पेशेवर भाषा की बात धूमिल कर रहे हैं, यह वही कृत्रिम भाषा है, जो नयी कविता के कुछ कवियों की व्यवस्था बन गयी थी और जिसका संबंध जीवन से नहीं के बराबर हो गया था। नयाँ कविता की इस कलात्मक, मंजी हुई किंतु जीवन से असंपृक्त भाषा को धूमिल ने स्वीकार नहीं किया। धूमिल ऐसी काव्य भाषा की तलाश करते हैं जो यथार्थ को पूर्ण रूप से अभिव्यक्त कर सके। काव्य-भाषा के नाम पर वस्तु और व्यक्ति के बीच में एक दीवार खड़ी की जाती रही है। धूमिल इस दीवार को तोड़ना चाहते है ताकि कवि अपने पाठक से सीधे मिल सके। वे लिखते हैं –
“इस संदर्भ में पहला काम कविता को ‘भाषाहीन’ करना है कभी-कभी या अधिकाशंतः प्रतीकों और बिंबों के, कारण कविता की स्थिति उस औरत जैसी हास्यास्पद हो जाती है जिसके आगे एक बच्चा हो, गोद में एक बच्चा हो और पेट में एक बच्चा हो आज महत्व शिल्प का नहीं, कथ्य का है। सवाल यह नहीं कि आपने किस तरह कहा है, सवाल यह है कि आपने क्या कहा है? इसके लिए आदमी की जरूरतों के बीच की भाषा का चुनाव करना और राजनीतिक हलचलों के प्रति सजग दृष्टिकोण कायम रखना अत्यंत आवश्यक है।” (धूमिल, नया प्रतीक, फरवरी q. 4-5)
धूमिल की काव्य भाषा में अश्लील शब्द, ग्रामीण जीवन के शब्द कोर्ट-कचहरी के शब्द बहुत हैं। भाषिक चमत्कार का उनकी भाषा पर आरोप भी लगा है। आइए देखें धूमिल की काव्य-भाषा कैसी है? –
अश्लील शब्दों का प्रयोग
धूमिल ने यौन से संबंधित शब्दों का काव्य में प्रयोग किया, जिससे उन पर अश्लीलता के आरोप भी लगे। किन्तु, धूमिल ने इन शब्दों का प्रयोग उत्तेजना प्रदान करने या चमत्कार लाने के लिए नहीं किया है। विद्यानिवास मिश्र लिखते हैं— “यौन और ऊपर से बीभत्स लगने वाले बिंब, प्रतीक और सादृश्य विधान तो उनकी भाषा को चौखटा देने वाले हाशिया मात्र हैं धूमिल मन से इतने स्वस्थ थे कि समूची सामाजिक व्यवस्था के अस्वास्थ्य को दबाव को अस्वीकार करते रहे।” (कल सुनना मुझे, प्रस्तावना, पू. ख)
ग्रामीण जीवन के शब्द
धूमिल की काव्य-भाषा में ग्रामीण जीवन से जुड़े हुए शब्द, बिंब, प्रतीक सहज रूप से आते हैं। पुतड़ा, सीवान, गर्ने गर्ने, पोटली, कठवत, आंगड़-बांगड़ आदि विश्वनाथ प्रसाद तिवारी का कथन है। “वे अपनी जमीन पर खड़े हो कर अपनी जमीन को अपनी मिट्टी का शब्द देते हैं। उनकी कविता का तेवर एक देहाती कवि का बेलाग, मुँहफट तेवर है यह तेवर उनका अपना है।” (विश्वनाथ तिवारी, समकालीन हिंदी कविता, पृ. 203 ) । वास्तव में धूमिल की भाषा ” ग्रामीण शब्दावली का इस्तेमाल चौंकाने के लिये नहीं हुआ है, न आंचलिक छौंक देने के लिये, बल्कि यही उनकी असली जमीन है। –
कोर्ट-कचहरी के शब्द
धूमिल को अपनी गाँव की जमीन की मुकदमेबाजी के कारण कोर्ट-कचहरी से बहुत पाला पड़ा। इसलिए उनकी कविता में कचहरी के बहुत से शब्दों का इस्तेमाल हुआ है अपराधी, हलफनामा, बेकसूर, कटधरा, मुज़रिम, बहस, जिरह, नवैयत, नालिश, जमीन जैसे बीसियों शब्द धूमिल की कविताओं में मिल जाएंगे।
लोकोक्तियाँ और मुहावरे,
1. धूमिल की कविता में लोक में प्रचलित लोकोक्तियाँ और मुहावरे भी बहुत आए हैं।
2. उन्होंने कुछ नये मुहावरे भी गढ़े हैं जैसे- “धर्मशाला होना”, “हरी आँख”, “चेहरा टटोलना”, “गीली मिट्टी की तरह हाँ-हाँ करना”, “दुनिया के व्याकरण के खिलाफ होना”, “महुए पर मूतना”, “आँखों में कुत्ते भौंकना” आदि ।
3. यह भाषा जीवन के ठोस यथार्थ की अभिव्यक्त करने में तथा संप्रेषित करने में सक्षम है।
4. इसमें प्रतीक और बिंब हैं किन्तु वे कथ्य को अधिक धारदार बना कर उसे संप्रेषित करने में सहायता करते हैं।
5. यह काव्य-भाषा सपाट है किन्तु सतही नहीं है। अर्थात् बात को सीधे-सीधे ढंग से अभिव्यक्त तो करती है किन्तु उस में कलात्मकता का अभाव नहीं है।.
काव्य पाठ एवं व्याख्या
“पटकथा” का अंतिम अंश
मैं रोज देखता हूँ कि व्यवस्था की मशीन का अलग छिटक गया है और
मैं रोज देखता हूँ कि व्यवस्था की मशीन का अलग छिटक गया है और
एक पुर्जा गरम होकर
ठण्डा होते ही फिर कुर्सी से चिपक गया है। उसमें न है
न दया है नहीं अपना कोई हमदर्द –
यहाँ नहीं है। मैंने एक-एक को परख लिया है। मैंने हरेक को आवाज दी है
हरेक का दरवाजा खटखटाया
मगर बेकार है
-मैंने जिसकी पूँछ
उठाई है उस को मादा
पाया है
वे सब के सब तिजोरियों के
दुभाषिये हैं।
प्रयोगवाद और नमी कविता
वे कोल हैं। वैज्ञानिक है। अध्यापक हैं। नेता हैं। दार्शनिक
है। लेखक हैं। कवि हैं। कलाकार हैं।
यानी कि –
कानून की भाषा बोलता हुआ
अपराधियों का एक संयुक्त परिवार है भूख और भूख की आड़ में
चबायी गयी चीजों का अक्स उनके दाँतों पर ढूँढ़ना
बेकार है। समाजवाद
उनकी जुबान पर अपनी सुरक्षा का
एक आधुनिक मुहावरा है।
मगर मैं जानता हूँ कि मेरे देश का समाजवाद मालगोदाम में लटकती हुई
उन बाल्टियों की तरह है जिस पर “आग” लिखा है और उनमें बालू और पानी भरा है।
यहाँ जनता एक गाड़ी है
एक ही संविधान के नीचे
भूख से रिरियाती हुई फैली हथेली का नाम
“दया” है और भूख में
मुट्ठी का नाम नक्सलबाड़ी है
मुझसे कहा गया कि संसद
देश की धड़कन को
प्रतिबिम्बित करने वाला दर्पण है
जनता को
जनता के विचारों का
नैतिक समर्पण है।
लेकिन क्या यह सच है?
या यह सच है कि अपने यहाँ संसद
तेली की वह घानी है
जिसमें आधा तेल है
और आधा पानी है।
और यदि यह सच नहीं है
तो वहाँ एक ईमानदार आदमी को
अपनी ईमानदारी का
मलाल क्यों है?
जिसने सत्य कह दिया है
उसका बुरा हाल क्यों है? मैं अक्सर अपने-आपसे सवाल
करता हूँ जिसका मेरे पास
कोई उत्तर नहीं है
और आज तक नींद और नींद के बीच का जंगल काटते हुए
मैंने कई रातें जाग कर गुजार दी है
हफ्तों पर हफ्ते तह किये है। ऊब निर्मम अकेले और बेहद अनमने क्षण
जिये हैं।
मेरे सामने वही चिरपरिचित अंधकार है
हर तरफ
संशय की अनिश्चयग्रस्त ठण्डी मुद्राएँ हैं।
शब्दभेदी सन्नाटा है।
दरिद्र की व्यथा की तरह
उचाट’ और कूथता हुआ घृणा में डूबा हुआ सारा का सारा देश पहले की ही तरह आज भी मेरा कारागार है।
दुभाषिये हैं। वे वकील हैं। वैज्ञानिक हैं।
अध्यापक हैं। नेता है। दार्शनिक हैं। लेखक हैं। कवि हैं। कलाकार हैं।
“वे सब के सब तिजोरियों के यानि कि – कानून की भाषा बोलता हुआ अपराधियों का एक संयुक्त परिवार है भूख और भूख की आड़ में चवायी गयी चीजों का अक्स उनकी जुबान पर अपनी सुरक्षा का एक आधुनिक मुहावरा है। मगर जानता हूँ कि मेरे देश का समाजवाद मालगोदाम में लटकती हुई उन बाल्टियों की तरह है जिस पर “आग” लिखा है और उनमें बालू और पानी भरा है।”
उनके दाँतों पर ढूंढ़ना बेकार है। समाजवाद
प्रसंग : उपलिखित उद्धरित अंश धूमिल की कविता “पटकथा” से लिया गया है। यह कविता धूमिल के प्रथम काव्य संग्रह “संसद से सड़क तक” में संकलित है।
यह कविता आज़ादी के बाद के भारत की स्थितियों का आकलन करती है। कवि का मानना है कि आज़ादी के बाद हमारे राजनेताओं ने जनता से किये गये वायदों को ताक में रख दिया और जनता की समस्याओं की तरफ से मुँह मोड़ लिया। फलतः जो आज़ादी हमें मिली और जिस आजादी से देश के लोगों ने यह आशाएँ बांधी थी, कि हमें रोटी कपड़ा मकान मिलेगा, बेरोजगारी दूर होगी, और देश खुशहाल बनेगा, आजादी के दस पंद्रह वर्षों में ही उनकी इन आशाओं पर पानी फिर गया। देश में भ्रष्टाचार, बेईमानी, झूठ, अनैतिकता, काला बाजार महंगाई और मूल्यविहीनता की स्थितियाँ सिर चढ़ कर बोलने लगीं।
इन पंक्तियों में कवि ने देश की इन्हीं परिस्थितियों पर टिप्पणी की है।
व्याख्या:
कवि कहता है कि सब के सब राजनीतिज्ञ, और बुद्धिजीवी वर्ग के लोग, जिनमें वकील, अध्यापक, दार्शनिक, कलाकार, लेखक, कवि और वैज्ञानिक शामिल हैं, अपने स्वार्थ से ही बंधे हुए हैं। उन्हें देश की, समाज की, मूल्यों की या संस्कृति की कोई चिंता नहीं है। ये सब ऐसे अपराधियों के संयुक्त परिवार के सदस्य है, जो बात तो न्याय और सत्य की हैं किंतु अंदर से भ्रष्टाचारी हैं, बेईमान हैं, उनके किसी प्रकार की ऐसी आशा करना कि ये समाज को सही दिशा देंगे पूरी तरह बेकार है और समाजवाद जैसी नारेबाजी कि इस देश में समाजवाद लाएँगे, वास्तव – में जनता के साथ किया जा रहा धोखा है। क्योंकि कहने को तो ये लोग समाजवाद की बात करते हैं, देश में समाजवाद लाने के स्वप्न दिखाते हैं और माथे पर समाजवाद का बिल्ला लगाए हुए घूमते हैं, किंतु वास्तव में काम ये लोग प्रतिक्रिया वादी करते हैं, भ्रष्टाचार, बेईमानी को बढ़ावा देते हैं। इसलिये कवि कहता है कि समाजवाद की बात करना बेकार है क्योंकि इस देश में समाजवाद उन बाल्टियों की तरह है जिन पर लिखा तो “आग” है किंतु उनके अंदर पानी और बालू भरा हुआ है। अर्थात् कवि कहना चाहता है कि इस देश में समाजवाद के नाम का भी स्वार्थ के लिये इस्तेमाल हो रहा है।
सारांश
इस इकाई में आपने साठोत्तरी कविता के महत्वपूर्ण कवि “धूमिल” के बारे में अध्ययन किया।
धूमिल जब रचनाकार्य में प्रवृत्त हुए, उस समय देश के सामने रोटी कपड़ा मकान, अशिक्षा, बेरोजगारी आदि समस्याएँ मुँह बाए खड़ी थीं। भ्रष्टाचार, बेइमानी मूल्य विघटन का बाजार गर्म था और राजनेता अपनी कुर्सी से चिपके हुए स्वार्थवंश देश की समस्याओं से आँखें मूदे हुए थे। हिंदी कविता की “नयी कविता” धारा अभिजात पन के कारण जीवन की इन कठोर वास्तविकताओं को साफ-साफ़ अभिव्यक्त कर पाने में अक्षम थी। कविता और समाज का रिश्ता प्रयोगवाद और नयी कविता
चरमरा कर टूट चुका था। ऐसे में धूमिल ने कविता को उसके अभिजातपन से बाहर निकाल कर आम आदमी के सुख-दुख के साथ जोड़ने का प्रयत्न किया। कविता की सार्थकता के प्रति धूमिल बहुत चिंतित रहे। धूमिल ने अपने काव्य के द्वारा राजनीतिक, सामाजिक स्थितियों में व्याप्त भ्रष्टाचार, अनैतिकता, बेईमानी को उघाड़ कर बेलाग शब्दों में अभिव्यक्त किया। संसद, देश, समाजवाद, क्रांति, आदि हर विचार व चौज पर धूमिल ने अविश्वास प्रकट करते हुए प्रश्न चिन्ह लगाया। इस तरह धूमिल की कविता व्यवस्था से विद्रोह की कविता भी कही जा सकती है।
धूमिल का विद्रोही स्वर मूलतः व्यस्यात्मक है। उन की व्यंग्योक्तियाँ एक बारगी पाठक को चौंका जाती है। किंतु धूमिल की कविता का लक्ष्य सिर्फ विद्रोह की नहीं है, अपितु इस विद्रोह के द्वारा वह इस बात के लिये आगाह करते हैं कि देश की इस दारूण अव्यवस्था के प्रति हमें जागरूक होना चाहिए। निश्चिय रूप से धूमिल ने उस समय हिंदी कविता को सार्थकता के सवाल से जोड़ा जब हिंदी कविता अपनी सार्थकता व्यक्तिवाद के बंद घेरे में खोज रही थी।
भाषा के स्तर पर धूमिल की भाषा आम आदमी की भाषा है बिंबों प्रतीकों से मुक्त जनजीवन की भाषा। इसीलिए वह संप्रेषणीय भी है। धूमिल की भाषा में गाँव, कचहरी, उर्दू-फारसी के शब्द सहज रूप से आते हैं। विचारधारा के स्तर पर धूमिल की कविता का झुकाव प्रगतिवाद की ओर है। हालांकि धूमिल की विचारधारा बहुत स्पष्ट नहीं है किंतु वें व्यक्तिवादी तो नहीं ही हैं।
हिंदी कविता में धूमिल अपने नयेपन और विद्रोही तेवर के कारण अपना एक अलग स्थान रखते हैं।
कुछ उपयोगी पुस्तकें
संसद से सड़क तक धूमिल, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली।
दूसरे प्रजातंत्र की तलाश में धूमिल कुमार कृष्ण, साहित्य निधि, नयी दिल्ली।
सुदामा पाण्डे की कविता में यथार्थबोध, डॉ. चमन लाल गुप्ता, भावना प्रकाशन, नवी दिल्ली।
(Source Of The Study Material : This study material is created on the basis of ignou university study material.
CREDIT GOES TO IGNOU)