केदारनाथ अग्रवाल (kedarnath agrawal)

(Source : Ignou Study Material )

जन्म :1 अप्रैल 1911 | बाँदा, उत्तर प्रदेश

मूल नाम : केदारनाथ अग्रवाल

निधन :22 जून 2000 | बाँदा, उत्तर प्रदेश

प्रस्तावना

केदारजी का जीवन एक मध्यवर्गीय जीवन रहा है। पेशे से वे वकील रहे हैं किन्तु किसानों, मजदूरों से उनका संबंध बहुत करीबी रहा है। उनका सारा कृतित्व व्यापक अर्थों में आम आदमी के सुखः दुःख, उसकी तकलीफों, शोषण और शोषण को दूर करने की चिंताओं से सरोकार रखता है। केदारनाथ अग्रवाल लगभग पचास वर्षों से साहित्य सर्जना में रत हैं। पृष्ठभूमि में हम उनके युग के राजनीतिक-सामाजिक वातावरण का विश्लेषण करेंगे। केदारजी की युगीन पृष्ठभूमि में स्वतंत्रता आंदोलन और स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद आजाद भारत का आज तक का युग समाहित हो जाता है।

केदारजी प्रगतिशील कवि हैं। उन्होंने जीवन को मार्क्सवादी चिंतन द्वारा प्राप्त वैज्ञानिक प्रगतिशील दृष्टि से अपने विवेक द्वारा विश्लेषित, विवेचित करते हुए देखा और कलम बद्ध किया है। इसलिए जहाँ वे अपनी राजनीतिक कविताओं में इस देश की राजनीति के अंतर्विरोधों पर तीखी टिप्पणियाँ करते हैं वहीं शोषित मनुष्य के जीवा के अंतर्विरोध, संघर्ष और उसकी अदम्य शक्ति को भी नजरंदाज नहीं करते। केदारजी ने प्रेम और प्रकृति पर भी

ढेरों कविताएँ लिखी हैं, जो इस बात का प्रमाण है कि वे सिर्फ राजनीतिक कवि नहीं हैं। इसके अलावा श्रमशील मनुष्य पर भी उन्होंने बहुत लिखा है। वास्तव में वे गहरी जीवनासक्ति के कवि हैं। वे मानवीय संबंधों में समानता के पक्षधर हैं। पिछली इकाई में आप यह पढ़ चुके हैं। कि प्रगतिशील कवि ऐतिहासिक चेतना से युक्त होता है अर्थात वह समाज को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में वर्गचेतन प्रधान दृष्टि से देखता है, प्रकृति के प्रति उसका सहज और स्वाभाविक लगाव होता है। केदारनाथ अग्रवाल ऐसे ही प्रगतिशील कवि हैं। उनके काव्य की अंतर्वस्तु का अध्ययन करते हुए आप केदारजी के काव्य की इन विशेषताओं को विस्तार से जानेंगे।

संरचना शिल्प शीर्षक के अंतर्गत हम केदारजी के काव्य शिल्प और काव्य भाषा का विश्लेषण करेंगे। केदारजी की काम्पभाषा सरल और सहज है किंतु कलाहीन नहीं है। भाषा की सरलता और सहजता का यह गुण उन्हें जनता से जुड़े होने के कारण प्राप्त हुआ है। ऐन्द्रियकता, चित्रात्मकता और बिंब उनकी काव्य भाषा को कलात्मक बनाते हैं। सरल और सहज होने के कारण उनकी काव्यभाषा अत्यधिक संप्रेषणीय है। वस्तुतः संप्रेषणीयता उनकी काम्य भाषा और काव्यशिल्प का सबसे बड़ा गुण है। आइये केदारजी के जीवन और कृतित्व •की जानकारी प्राप्त करें।

जीवन परिचय एवं कृतित्व   

केदारनाथ अग्रवाल का जीवन परिचय (kedarnath agrawal ka jeevan parichay)

केदारनाथ अग्रवाल का जन्म अप्रैल 1911 को बाँदा जिले के बबेरू तहसील के कमासिन नामक ग्राम में हुआ था। उनकी माँ का नाम घसिट्टो और बाप का नाम श्री हनुमान प्रसाद था जो शुरू से ही रसिक प्रवृत्ति के कला प्रेमी व्यक्ति थे और कविता भी लिखते थे। शिक्षा दीक्षा के ग्रामीण माहौल में भय और आतंक के बल पर पढ़ाई होती थी। केदार भी ऐसे माहौल में गाँव के अन्य बच्चों की तरह कक्षा तीन तक पढ़े और उसके बाद रायबरेली आ गये। फिर पिता के कटनी जाने पर कक्षा छह की पढ़ाई कटनी में हुई। कटनी में एक साल- रहने के बाद ये अपने पिता जी के साथ जबलपुर चले गये और सन् 1927 में इलाहाबाद । यहीं रह कर उन्होंने बी.ए. किया और कानून पढ़ने कानपुर चले गये। 1938 में लॉ की डिग्री ले कर बाँदा लौटे और वकालत करने लगे।

केदार जी का विवाह बहुत छोटी उम्र में ही हो गया था, जब वे सातवीं में ही थे। इंटर में उन्हें एक कन्या प्राप्त हो चुकी थी । केदार जी के घर पर माहौल आम तौर पर धार्मिक था घर के लोग हिंदू रीति, धार्मिक परंपराओं, रूढ़ियों और टोने-टोटकों का भरपूर पालन करते थे होली, दशहरा, दीवाली, ईद, मुहर्रम पूरे गाँव में मनाए जाते थे हिंदू-मुसलमान दोनों एक दूसरे के त्योहारों में बराबर शरीक होते थे। गाँव में सांस्कृतिक माहौल के साथ-साथ प्राकृतिक वातावरण भी था। ढाक का जंगल पास ही था। केदार अक्सर जंगल में निकल जाते और हिरनों का चौकड़ी भरना देखते या रात में सियारों की हुआ हुआ सुनते। स्कूल के अखाड़े में कसरत और कुश्ती में भी वे भाग लेते। केदार के मन पर भेदभाव के संस्कार बचपन ही से न थे। गाँव में अधिकांश लोग गरीब थे । उच्च या मध्यमवर्ग के लोग बहुत कम थे। केदारजी गरीब बच्चों के साथ खेलते, उनके घर आते-जाते और इस तरह एक-एक घर की गरीबी से बहुत अंतरंग रूप से परिचित होते रहे। “इस परिचय का उनके बालपन पर ऐसा अमिट प्रभाव पड़ा कि बाद को जब उनका कवि प्रकट हुआ तब यह दुख-दर्द और संघर्ष, हाड़तोड़ मेहनत, अमीरी की ओड़ी हुई उसक की तुलना में गरीबी की सहजता, निर्मलता आदि उनकी कविता में हजार-हजार कंठों से फूट पड़ी” (केदारनाथ अग्रवाल सं. अजय तिवारी, पृष्ठ 226)

प्रकृति से लगाव के कारण ही केदार जब रायबरेली स्कूल में पढ़ते थे तो अंग्रेज़ी आदि कक्षाओं में उनका मन नहीं लगता था, उन्हें “नेचर स्टडी” और “मैनुअल ट्रेनिंग” की कक्षाएं अधिक प्रिय थीं, नेचर स्टडी की कक्षा में क्यारियाँ बनाते, आलू बोते, सब्जी लगाते, सिंचाई गुड़ाई करते। उन्हें नरम-नरम मिट्टी बहुत अच्छी लगती। कॉपी पर पत्तियाँ चिपकाना इस कोर्स का हिस्सा था जिसने वनस्पतियों से केदार का घनिष्ठ परिचय कराया।

केदार के पिता स्वयं कवि थे किन्तु केदार को साहित्यिक माहौल जबलपुर और इलाहाबाद में मिला। छुटपन से ही कविता लिखने में ये रुचि लेने लगे थे। जबलपुर में रहते हुए इनके पिता वैद्यकी भी करते थे और रूचि के अनुसार काव्य चर्चा और काव्य रचना में समय भी देते थे। जबलपुर में उन दिनों अच्छा साहित्यिक माहौल था। विभिन्न साहित्यिकार इनके पिता के

घर पर जमा होते, साहित्य चर्चा होती, समस्यापूर्ति होती। यहीं पर केदारजी ने निराला. विरोध का स्वर सुना । निराला द्वारा संपादित “मतवाला’ पढ़ा और देखा। इसके बाद सं 1927 में केदार आठवीं पास करने के बाद अपने पिता जी के साथ इलाहाबाद आए और लाए ब्रजभाषा और निराला के विरोध का स्वर । यहाँ उनके पिता के मित्र “रसालजी” थे, जिन्होंने “रसिक मंडली ” स्थापित की हुई थी। इसमें “कवित्त सवैया” और समस्यापूर्ति वाले ब्रजभाषा के कवि आते थे। केदारजी इन गोष्ठियों के असर से ब्रजभाषा की और झुकें। ‘सरस्वती’ के माध्यम से यहाँ खड़ी बोली काव्य से भी केदारजी का परिचय स्थापित हुआ। नरेन्द्र जैसे कवियों से केदारजी का यहीं परिचय हुआ और मित्रता बनी।

कानपुर में बिताया समय केदार के जीवन में महत्वपूर्ण है। मजदूर जीवन की परिस्थितियों और मजदर वर्ग की विचारधारा मार्क्सवाद से उनका परिचय और आत्मीयता कानपुर में – ही हुई बालकृष्ण बलदुआ के इर्द-गिर्द प्रगतिशील विचारों और साहित्यिक संस्कारों का माहौल था। उनके संपर्क में केदार ने बहुत सा विदेशी साहित्य भी पढ़ा

जन 32 में केदार बाँदा आकर वकालत करने लगे तो अदालत के कटु यथार्थ जीवन से और आदमी के स्वभाव के सच्चे झूठे पक्षों के एक-एक रगरेशे से उनका साक्षात्कार हुआ।

इस प्रकार घर के साहित्यिक माहौल, गाँव के श्रमशील जीवन, प्रकृति से गहरा लगाव और समाज के प्रति गहन मानवीय संवेदना के द्वारा केदार का व्यक्तित्व और कवि व्यक्तित्व बना।

कृतित्वः केदारजी ने काव्यरचना के अलावा छिटपुट गद्य रचना भी की हैं। केदार का पहला

काव्य संग्रह “युग की गंगा” 1947 में प्रकाशित हुआ था तब से लेकर आज तक केदारजी के बहुत से संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं जिनमें गुलमेंहदी, युग की गंगा, फूल नहीं रंग बोलते हैं, कहें केदार खरी-खरी, जमुन जल तुम, हे मेरी तुम! प्रमुख हैं। गद्य रचनाएँ: केदारजी ने एक उपन्यास “पतिया” और वैचारिक गद्य भी लिखा है जिसमें साहित्य से संबंधित प्रश्न, कई कवियों पर लेख, कविता, विश्लेषण, समीक्षाएँ, साक्षात्कार और साहित्येतर विषयों पर भी लेख शामिल हैं। उनका गद्य उनके तीन निबंध संकलनों में

संकलित है। इसके अलावा उन्होंने एक यात्रा संस्मरण, विदेशी कवियों की कविताओं के अनुवाद भी किये हैं।,

केदारनाथ अग्रवाल की प्रमुख रचनाएँ

काव्य रचनाएँ

जो जीवन की धूल चाट कर बड़ा हुआ है,  इसी जन्म में इस जीवन में,आज नदी बिल्कुल उदास थी,दुख ने मुझको, पिकासो की पुत्रियाँ, हम जिएँ न जिएँ दोस्त, मैं नारी का प्रेमी, बसंती हवा, दूर कटा कवि मैं जनता का, मैं हूँ , कानपुर , हथौड़े का गीत , बैठा हूँ इस केन किनारे , चंपई आकाश, न बुझी आग की गाँठ, माँझी! न बजाओ बंशी , हे मेरी तुम, तेज़ धार का कर्मठ पानी ,  जो शिलाएँ तोड़ते हैं, नागार्जुन के बाँदा आने पर, चंदनवा चैती गाता है, जल रहा है, धूप, फूल नहीं रंग बोलते हैं , कटुई का गीत, एक खिले फूल से, धूप का गीत, जमुन-जल तुम, आस्था का शिलालेख, न भूलेगी मुझे, खेत का दृश्य, गाँव का बरगद, शमशेर— मेरा दोस्त!, धीरे उठाओ मेरी पालकी, प्रभात, बुंदेलखंड के आदमी, बसंत आया, चंद्र गहना से लौटती बेर, मैंने प्रेम अचानक पाया, हम चलते हैं फिर खेतों में, हरी घास का बल्लम, अंधकार में खड़े हैं, जैसे कोई सितारिया, दल-बँधा मधुकोष-गंधी , नदी एक नौजवान ढीठ लड़की है,  

लौह का घन गल रहा है, युग की गंगा, नींद के बादल, गुलमेंहदी. फूल नहीं रंग बोलते हैं, लोक और आलोक, कहें केदार खरी-खरी, आग का आइना जो शिलाएँ तोड़ते हैं। जमुन जल तुम, मार प्यार की थापें, पंख और पतवार, हे! मेरी तुम, अपूर्वा, बस्ती खिले गुलाबों की।

उपन्यास :-   

“पतिया”

वैचारिक गद्य :   

निबंध समय- समय पर (1970) विचार बोध (1980) विवेक विवेचन (1981)

यात्रा संस्मरण :  

बस्ती खिले गुलाबों कि

अनुवाद

देश देश की कविताएँ

पृष्ठभूमि

आजादी से पूर्वः प्रगतिशील काव्यधारा के प्रतिनिधि कवि केदार जी का आजादी से पर्व साहित्यिक जीवन जब प्रारंभ हुआ उस समय देश अंग्रेजों की गुलामी से छुटकारा पार्न का प्रयास कर रहा था। देश में कांग्रेस पार्टी की बागडोर गाँधी जी के हाथ में थी। 1930 में कांग्रेस द्वारा चलाए गए आंदोलन की असफलता के बाद बहुत से लोग गाँधीवादी रास्ते का विकल्प ढूँढने लगे थे। कांग्रेस के भीतर सोशलिस्टों का एक दल संगठित हुआ, इस दल ने कांग्रेसी नेताओं का विरोध करते हुए किसान सभाएँ की, अनेक कम्युनिस्टों ने मजदूर सभाएँ बनायीं जिनमें कानपुर की मजदूर सभा उल्लेखनीय है। –

फिर भी, अंग्रेज़ों से अखिल भारतीय स्तर पर लोहा लेने के लिये कांग्रेस ही एक मात्र ऐसी पार्टी थी, जिसे व्यापक स्तर पर जनता का समर्थन प्राप्त था। कम्युनिस्ट अभी अपना सुदृढ़ आधार नहीं बना पाए थे। किन्तु समय-समय पर कांग्रेस की बुर्जुआ नीतियों और दृष्टिकोण की आलोचना करते रहते थे। वाम पक्ष के अधिकांश नेताओं का यह मानना था कि किसानों को संगठित किए बिना, उनका सामंत विरोधी संघर्ष चलाए बिना स्वाधीनता आंदोलन में सफलता नहीं मिल सकती दूसरी ओर कांग्रेस, गाँधी जी के नेतृत्व में अहिंसात्मक तरीके से, सभी को अपने साथ लेकर स्वाधीनता प्राप्ति का मार्ग खोज रही थी।

दूसरे महायुद्ध में जर्मनी और जापान की हार के बाद दक्षिणी पूर्वी एशिया में जबर्दस्त क्रांतिकारी जन उभार आया। भारत में बंबई का नाविक विद्रोह (1946) इस जन उभार का प्रतीक है। इस जन उभार के बारे में वामपंथियों का मानना है कि कांग्रेस ने इस जन उभार का समर्थन नहीं किया क्योंकि कांग्रेस कांति और सशस्त्र संघर्ष नहीं चाहती थी यहीं तक यह बात सही है कि गाँधी जी अहिंसक तरीकों द्वारा ही आजादी प्राप्त करने के प्रयास कर रहे थे। इस प्रयास में वे किसानों, मजदूरों, जमींदारों, पूँजीपतियों सभी को साथ ले रहे थे। बाम पक्ष उनकी इस अहिंसक नीति का विरोध करता रहा है। वस्तुतः कांग्रेस और वाम पक्ष के दृष्टिकोण की भिन्नता ही इस कांग्रेस और वाम पक्ष का केन्द्रबिंदु थी।

सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियाँ आजादी से पूर्व के भारत में एक नया मध्यमवर्ग उभरने लगा था, जो नयी दिशा दीक्षा प्राप्त कर अपना अलग से अस्तित्व बना रहा था, फिर भी समाज के ढाँचे में कोई मूलभूत परिवर्तन नहीं हुआ था। कई समाज सुधार आंदोलन चल चुके थे किंतु बाल विवाह, सती प्रथा जैसी कुप्रथाएं अभी भी समाज में विद्यमान थी। अंग्रेजी शिक्षा-दीक्षा अंग्रेजों के हितों के लिए केवल बाबू वर्ग का ही निर्माण कर रही थी। किसान मजदूरों की दशा दयनीय थी। किन्तु स्वाधीनता प्राप्ति की लहर में सभी लोग अपना समर्थन दे रहे थे। यह सामाजिक चेतना जनता में पनप चुकी थी कि अंग्रेजों से छुटकारा पाए बिना इस देश और समाज का उद्धार नहीं हो सकता। अनपढ़ता, गरीबी, कुप्रथाएँ, इन सबको मिटाने के लिए स्वतंत्र भारत का आज़ाद होना आवश्यक है।

देश की आर्थिक दशा बहुत खराब थी। अंग्रेज़ों शोषण के बल पर इस देश को गरीबी के मुहाने पर ला पटका था। किसान की फसल का आधे से अधिक हिस्सा जमींदार, नवाब और अंग्रेज़ की जेब में पहुँच जाता था। किसानों मजदूरों की दशा इस अर्थ में भी बहुत दयनीय थी कि उन्हें अंग्रेज हाकिमों और जमींदारों दोनों के शोषण तले पिसना पड़ता था।

साहित्यिक पृष्ठभूमिः पिछली इकाई में आप पढ़ चुके हैं कि हिंदी में “प्रगतिवाद” का आरंभ 1936 के आसपास हुआ था। केदार जी के साहित्य में प्रवृत्त होने का लगभग यही समय है। उस समय हिंदी कविता में छायावाद सिमटने लगा था और यथार्थ जीवन की अभिव्यक्ति के रूप में प्रगतिवाद आंदोलन उभरने लगा था।

इस प्रकार केदार के साहित्यिक जीवन का आरंभ ऐसे राजनीतिक, आर्थिक और साहित्यिक माहौल में हुआ जब अंग्रेज़ों से देश को आजाद करवाने के लिए स्वतंत्रता आंदोलन जोर पकड़ रहा था आर्थिक रूप से देश जर्जर स्थिति में था और साहित्य में छायावादी कविता की जगह प्रगतिशील कविता ले रही थी।

आजादी के बाद देश आजाद हुआ। राजनीतिक रूप से शासन सत्ता अपने लोगों के हाथ में आयी। पूरे देश की जनता ने ये उम्मीदें बांधी हुई थीं कि आजाद होने पर उनके दुःख-दर्द दूर होंगे किसान, मजदूरों को आशाएँ थीं कि उन्हें जमींदारों, मिल मालिकों के शोषण से छुटकारा मिलेगा, सामाजिक कुप्रथाओं का अंत होगा, किंतु जनता की सारी आशाएं पूरी नहीं हो सकीं। इसी दौरान सन् 1962 तथा 1965, 1971 में भारत को तीन युद्धों का भी सामना करना पड़ा जिससे देश की अर्थव्यवस्था पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ा। जाति प्रथा, शोषण, गरीबी, अशिक्षा जैसी सामाजिक बुराईयाँ अभी तक हमारे समाज में व्यापक स्तर पर विद्यमान हैं। आज़ादी के बाद का यह भारत भी केदार जी के कृतित्व की पृष्ठभूमि रहा है। में प्रगतिवाद आंदोलन जब शुरू हुआ, उसके समानांतर ही व्यक्तिवादी कविता लिखने का भी एक दौर चला जिसका नामकरण “प्रयोगवाद” हुआ। 1936 में जिस – प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना हुई थी आजादी के बाद वह धीमा पड़ता गया। – व्यक्तिवादी कविता ही विभिन्न स्वरों में फूटती रही प्रगतिशील कविता पृष्ठभूमि में चली गयी। इसका कारण शायद यही रहा कि अधिकांश साहित्यकारों का संबंध सामान्य जनता किसानों, और मजदूरों से नहीं रहा। अधिकांश लेखक मध्यमवर्ग से ही आए । मध्यमवर्ग ही साहित्य लेखन का मुख्य सरोकार बनता गया किंतु ऐसी परिस्थितियों में भी प्रतिबद्ध प्रगतिशील रचनाकार नागार्जुन, शील, केदारनाथ, त्रिलोचन आदि निर्द्वन्द भाव से अपने लेखन कर्म में जुटे रहे।

1962 में देश की कम्युनिस्ट पार्टियों में भी विभाजन हो गया। जनवादी संघर्ष के कमजोर होने का एक राजनीतिक कारण यह भी रहा।

केदारनाथ अग्रवाल के काव्य की अंतर्वस्तु

केदार ने अपनी लेखन यात्रा का आरंभ चौथे दशक से किया था। प्रारंभ में इन्होंने प्रेम और सौंदर्य की कविताएँ लिखीं लेकिन धीरे-धीरे युग के यथार्थ से जुड़ कर उनका प्रेम एक व्यापक आधार लेकर श्रमशील जनता से जुड़ता गया। किसान और मजदूर, प्रकृति और मनुष्य उनके काव्य के मुख्य सरोकार बनते चले गये। इसलिए केदारजी के काव्य की अन्तर्वस्तु का दायरा बहुत व्यापक है। इनके काव्य की विशेषताओं पर विचार करते हुए आलोचकों ने उनकी विभिन्न विशेषताओं को रेखांकित किया है। प्रख्यात प्रगतिशील आलोचक डॉ. रामविलास शर्मा के अनुसार “पिछले तीस-चालीस साल में जिन कवियों की रचनाओं में राजनीति की निर्णायक भूमिका रही है, वो हैं – केदारनाथ अग्रवाल और नागार्जुन । दूसरे महायुद्ध के दौरान और दूसरे महायुद्ध के बाद, मोटे तौर से 1957 तक भारत के स्वाधीनता आंदोलन और भारत की जनवादी क्रांति, इनके उतार-चढ़ाव से जो सबसे ज्यादा गहरायी से संबद्ध रहे हैं, वे हैं केदारनाथ अग्रवाल और इस उतार-चढ़ाव को जिस कवि ने सबसे शक्तिशाली ढंग से अपने साहित्य में, अपनी कविता में प्रतिबिम्बित किया है, वह भी हैं केदारनाथ अग्रवाल”। केदारजी की कविता में राजनीति की निर्णायक भूमिका तो है ही किंतु साथ ही उसमें बदेलखंड और बुंदेलखंड की प्रकृति, प्राकृतिक परिवेश और जन-जीवन की धड़कने और रंग भी है- इसलिए एक आलोचक इनकी कविता का सबसे बड़ा गुण मानते हैं लोकरूपता को केदार ने किसानों और श्रमशील जनता पर बहत लिखा है इसलिए डॉ. शिव कुमार मिश्र इन्हें मूलतः किसानी संवेदना का कवि मानते हैं। विश्वनाथ प्रसाद मिश्र केदार की प्रकृति संबंधी कविताओं के आधार पर केदार की कविता को “प्रकृति के साहचर्य में मुक्ति की तलाश” की कविता मानते हैं- “केदारनाथ अग्रवाल अपनी सौंदर्य चेतना और सूक्ष्म चित्रण शक्ति के ‘कारण प्रगतिवाद के दायरे को लांघ जाते हैं और अपना एक दूसरा काव्य संसार भी उजागर करते हैं। “

आलोचकों के ये सारे मत इस बात के गवाह हैं कि केदारनाथ अग्रवाल रूढ़िबद्ध प्रगतिशीलता के पक्षधर नहीं हैं और न ही उनकी कविता केवल राजनीति की अभिव्यक्ति तक ही सीमित है

बल्कि राजनीति को वे जीवन को सुंदर, व्यवस्थित और शोषण से मुक्त कराने के हथियार के रूप में देखते हैं। प्रकृति, प्रेम, किसान, मजदूर ये सब केदारजी के काव्य के व्यापक सरोकार हैं। हाँ, इतना अवश्य है कि केदारजी व्यक्तिवाद के दायरे में कभी नहीं फंसे। बल्कि सामाजिक जीवन और समाज से जुड़कर ही अपनी काव्य यात्रा का विकास करते रहे। आइए, केदार के काव्य की अंतर्वस्तु को विस्तार से जानें।

ऐतिहासिक चेतना और राजनीतिक कविताएँ

यह आप पड़ चुके हैं कि ऐतिहासिक चेतना संपन्न प्रगतिशील कवि अपने समय अपने युगे की राजनीतिक, सामाजिक वास्तविकता के प्रति प्रतिबद्ध रूप से जागरूक होता है। केदारनाथ अग्रवाल ने आजादी से पूर्व और आजादी के बाद की भारत की राजनीतिक, सामाजिक वास्तविकताओं का साक्षात्कार किया है। उनकी इस ऐतिहासिक चेतना को उनकी राजनीतिक कविताओं में देखा जा सकता है। डॉ. रामविलास शर्मा का यह कथन कि भारत की चालीस वर्षों की राजनीति का प्रगतिशील इतिहास यदि किसी कवि की रचनाओं में संपूर्ण रूप मे अभिव्यक्त हुआ है तो वे कवि केदारनाथ अग्रवाल हैं, बहुत सार्थक है।

प्रत्येक कवि की एक राजनीतिक दृष्टि होती है केदारजी की भी राजनीतिक दृष्टि है जिसे – आप व्यापक शब्दों में प्रगतिशील राजनीतिक दृष्टि कह सकते हैं। यह दृष्टि उन्होंने मार्क्सवादी दर्शन के अध्ययन चिंतन और भारत की जनता के दुःख-दर्द का अनुभव करके प्राप्त की है। मार्क्सवादी दर्शन के अनुसार उन्होंने जो राजनीतिक दृष्टि प्राप्त की है, उसके अनुसार उनका यह विश्वास बना है कि भारत में ऐसा राजनीतिक वातावरण होना चाहिए, ऐसी राजनीति होनी चाहिए, जो किसानों, मजदूरों और धमशील जनता को समाज में उनके अधिकार दिला सके, उनका शोषण दूर कर सके। ऐसी राजनीति की वे जनवादी सरकार के रूप में कल्पना करते हैं जो जनता की सरकार होगी, न कि पूँजीपतियों, जमींदारों और बड़े-बड़े इजारेदारों की यह केदारजी की राजनीतिक दृष्टि है, जो उनकी कविताओं में, गीतों में अभिव्यक्त होती है।

आजादी मे पूर्व, आजादी की लड़ाई में कांग्रेस के सक्रिय नेताओं की नीतियों की आलोचना, उनके समझौतावादी रुख का विरोध तथा अंग्रेजी राज की भर्त्सना केदार इसी दृष्टि के – • तहत करते हैं।

वे मानते हैं कि जब तक जनता की राष्ट्रीय आंदोलन में सक्रिय भागेदारी नहीं होती जब – तक पूँजीपतियों, माम्राज्यवादियों, बड़े-बड़े जमींदारों, इजारेदारों और अंग्रेजी राज के खिलाफ एक साथ संघर्ष नहीं किया जाता तब तक हमें पूर्ण आजादी नहीं मिल सकती। इसलिए – जब-जब इस देश में व्यापक जन उभार आया, केदार की राजनीतिक चेतना प्रखरता के साथ उसका समर्थन करती रही, ऐसे जन उभारों के समय लिखी गयी केदार की कविताएँ चाहे प्रचारात्मक अधिक हैं किंतु वे अपने युग, अपने समय की राजनीतिक स्थिति में उनका साथ देती हैं, जो संघर्ष कर रहे हैं, जो शोषित हैं और जो वास्तव में इस देश और समाज की रीढ़ हैं।

1947 में देश आज़ाद हुआ देश का बंटवारा हुआ लेकिन जनक्रांति नहीं हुई। अक्तूबर 47 में केदार ने “शपथ” कविता लिखी आज़ादी मिलने के बाद भी – –

बही जमींदारों का छल है मानव से मानव शोषित है अतः आज हम हँसते-हँसते नयी शपथ यह ग्रहण करेंगे जनवादी सरकार करेंगे

( कहें केदार खरी-खरी, पृ. 47 )

अर्थात् केदार यह मानते हैं कि हमें जो आज़ादी मिली, वो पूरी आजादी नहीं थी। पूरी आज़ादी तब मिलेगी जब जमींदारों के शोषण तले गरीब किसान नहीं पिसेगा आदमी आदमी का शोषण नहीं करेगा और यह आजादी तभी संभव है जब जनवादी सरकार बने, समाजवादी व्यवस्था की स्थापना हो। केदारजी की राजनीतिक समझ है, जो आज़ादी से पूर्व और आज़ादी के चालीस वर्षों के बाद आज भी उतनी ही दृढ़ता से सार्थक और अपरिवर्तनशील है।

आज़ादी मिलने के बाद कांग्रेस ने सत्ता संभाली। केदार सत्ताधारी कांग्रेसी नेताओं को अपनी रचना द्वारा बार-बार आगाह करते रहे हैं कि हमें साम्राज्यवादी और पूँजीवादी शक्तियों के हाथों नहीं बिकना है, उनकी सहायता ले कर आगे नहीं बढ़ना है बल्कि आत्मनिर्भरता का रास्ता अपनाना है।

यहाँ हमारी जन्मभूमि पर यदि आएगा डालर .. वह अपने साम्राज्यवाद के घोर नशे में

भारतीय पूंजीपतियों से गाँठ-गाँठ कर क्रय दिल्ली की राजनीति को कर लेगा नेहरू और पटेल की मति को हर लेगा

(कहें केदार खरी-खरी,पृ. 50)

यह आप जानते ही हैं कि आजादी मिलने के बाद पंचवर्षीय योजनाएँ आयीं जनता की आशाएँ मोहभंग की स्थितियों से गुजरी, जनसंघयों के दौर धीमे पड़ते चले गये, कम्पनिस्ट पार्टी का विभाजन हो गया… ऐसी स्थितियों में केदार का राजनीतिक स्वर भी धीमा पड़ा किन्तु जनता के श्रम, संघर्ष और आशाओं में उनका विश्वास कम नहीं हुआ, वे निराश नहीं हुए बल्कि किसानों मजदूरों और मेहनतकश जनता को वे बराबर धैर्य बंधाते रहे-

हल चलते हैं फिर खेतों में फटती है फिर काली मिट्टी

फिर उपजेगा उन्नत मस्तक सिंह अयाली नाज फिर गरजेगी कष्ट विदारक धरती की आवाज़

(फूल नहीं रंग बोलते हैं, पृ. 155)

सामाजिक यथार्थ और श्रम सौंदर्य का चित्रण 

प्रगतिशील कवि होने के कारण केदारजी की सामाजिक यथार्थ को देखने की जो दृष्टि है वो वर्ग चेतन प्रधान दृष्टि है। अर्थात् वे समाज में शोषित और शोषक वर्ग में भेद करते हैं और अपनी प्रतिबद्धता शोषितों, मेहनतकश किसानों और मजदूरों के प्रति जाहिर करते हैं। किंतु केदारजी की कविताओं की एक बहुत बड़ी विशेषता यह है कि उसमें जनता के पिछड़ेपन को उसके अंधविश्वासों को नजरअंदाज नहीं किया गया है। सन् 1946 का जन उभार अपनी तर्कसंगत परिणति तक नहीं पहुंचा, इसका कारण वामपक्ष की कमजोरी के अलाव पिछड़ापन भी था

अधिकांश जनता का

रद्दी की टोकरी का जीवन है

संज्ञाहीन, अर्थहीन बेकार पिरे-फटे टुकड़ों सा पड़ा है। देरी है एक दिन, एक बार, आग के छूने की –

राख हो जाना है।

(गुलमेंहदी, पृ. 29)

कानपुर के मजदूर दिन भर काम करके

रोज़ की बदबू में सड़ते हैं दुनिया की

(गुलमेंहदी, पृ. 44 )

एक मजदूर है चैत्

सूरज डूबे, छुट्टी पाके जिंदा रहने से उकता के

ठर्रा पीता है और सो जाता है

(गुलमेंहदी, पृ. 47 )

इससे बढ़कर है चंदू

कहीं एक कोने में बैठा

हाथ चरस की चिलम दबाए शेष आयु का धुंआ उड़ाता

गुपचुप गुपचुप फूँक उड़ाता

(गुलमेंहदी, पृ. 46)

‘वर्तमान समाज व्यवस्था में जनशक्ति कैसे बरबाद होती है, इसकी ओर केदार ने बार-बार ध्यान दिया है। उधर मध्यम वर्ग के बाबू का यह हाल है कि छह दिन काम किया है,

सातवाँ दिन अब मिला है

आज तो सुस्ता रहा हूँ

सुस्ता रहे हैं, शान से लेटे हुए हैं, स्वप्न देखते हैं लंदन से

तीन देवता आ रहे हैं

हिंद अब आज़ाद होने जा रहा है। (गुलमेंहदी, पृ.60)

केदारजी ने जनता के पिछड़ेपन और अंधविश्वासों पर तो लिखा ही है किंतु श्रम करते हुए मनुष्यों पर बहुत लिखा है। रामबिलास शर्मा ने ऐसी कविताओं को “श्रम का सूरज” कहा है। केदार की श्रम के सौंदर्य पर लिखी गयी कविताओं में किसान अक्सर काम करते दिखाया गया है। – हुए

पैनी कसी खेत के भीतर

दर कलेजे तक ले जा कर जो डालता है मिट्टी को

मेरे खेत में हल चलता है फाड़ कलेजा गड़ जाता है धरती तड़काता है राह बनाता बढ़ जाता है

(गुलमेंहदी, पृ. 55, 67)

श्रम पर ही केदारजी की एक बहुत सुंदर कविता है “छोटे हाथ” सुन्दर मुख, सुंदर हाथों की उपमा कमल से दी गयी है लेकिन खेत जोतने वाले किसान के हाथ? कैवार के लिए वे कमल जैसे हैं, लाल कमल जैसे, जो सवेरा होते ही काम में लग जाते हैं। हाथ का काम में लगना कमल का खिलना है।

छोटे हाथ

सबेरा होते लाल कमल से खिल उठते हैं। करनी करने को उत्सुक हो धूप हवा में हिल उठते हैं

(गुलमेंहदी, पू.135)

श्रम के प्रति अपनी इसी निष्ठा के कारण केदार अवकाश भोगी वर्ग का निकम्मापन बर्दाश्त नहीं कर पाते। “डाँगर” को इस वर्ग का प्रतीक बना कर कहते हैं- –

ये कामचोर

आरामतलब

मोटे तोडियल भारी भरकम

हट्टे-कट्टे सब डाँगर ऊँघा करते हैं। हम चौबीस घंटे हाँफते हैं

(गुलमेंहदी, पृ. 50)

केदार के लिए जनता कोई अमूर्त धारणा नहीं है – वह खेतों, खलिहानों में काम करती हुई भिन्न और स्पष्ट आकृतियों वाली जनता है। बुंदेलखंड के आदमी – हट्टे-कट्टे हाड़ों वाले

चौड़ी चकली काठी वाले

(फूल नहीं रंग बोलते हैं, पृ. 73)

युगों से जनता को सिखाया गया है कि उसका दुःख-दर्द उसके पूर्व जन्म के कर्मों का फल है। मेहनत करनी पड़ती है फिर भी खाने को नहीं मिलता, क्योंकि पूर्वजन्म में पाप किये थे । केदार इसके विरोध में नया जीवन दर्शन लेकर आए हैं। श्रम कभी व्यर्थ नहीं जाता, और श्रम करने वाले लोग ही इस व्यवस्था को बदलेंगे –

खो सकता है।

मेरा-तेरा

हो सकता है। पूर्ण असंभव

रत्ती रत्ती जोड़ा सोना का भी पूरा संभव होना

किंतु नहीं श्रम

मेरा-तेरा

इन हाथों का खो सकता है इनके द्वारा

कर्म असंभव

पूरा संभव हो सकता है।

(गुलमेंहदी, पृ. 159 )

25.4.3 परिवेश और प्रकृति के प्रति लगाव केदारजी ने प्रकृति पर ढेरों कविताएं लिखी हैं। बुंदेलखंड की प्रकृति और प्राकृतिक परिवेश उनकी कविताओं में जीवंत होकर आया है। अपने परिवेश और प्रकृति से केदार का यह लगाव जीवन के प्रति गहरी आसक्ति का ही सूचक है। प्रकृति के बारे में अपने विचार प्रस्तुत करते हुए केदार कहते हैं- “प्रकृति में हम रहते हैं जो हमारे लिए माँ है उसी को हमने अपने आज के साहित्य से निष्काषित कर दिया है और हम हो गए हैं प्रकृतिविहीन निस्संग आदमी। प्रकृति और जीवन से उद्भुत हुआ करता है सौंदर्य” यह सौंदर्य केदार की प्रकृति संबंधी कविताओं में बिखरा पड़ा है। एक प्रगतिशील कवि प्रकृति पर कविताएँ लिखता है तो प्रकृति को भी वो सामाजिक यथार्थ से भिन्न करके नहीं देखता। केदार का प्रकृति चित्रण भी सामाजिक वास्तविकता और यथार्थ के अनुभव से विच्छिन्न नहीं है। इसलिए गेहूँ की लहलहाती फसल केदार को हिम्मत वाली लाल फौज की याद दिलाती है।

आरपार चौड़े खेतों में चारों ओर दिशाएँ घेरे

लाखों की अगणित संख्या में ऊँचा गेहूँ डटा खड़ा है

ताकत से मुट्ठी बाँधे है

नोकीले भाले ताने है

हिम्मत वाली लाल फौज सा

मर मिटने को झूम रहा है।

(गुलमेंहदी पृष्ठ 21 )

बुंदेलखंड की प्रकृति और किसानी परिवेश केदार की कविताओं में इतना रच बस कर आता है कि मानो यही उनकी रचनादृष्टि का प्रेरक तत्व है। चंद्रगहना से लौटती बार वे एक मेड़ पर बैठ जाते हैं और देखते हैं –

एक बीते के बराबर यह हरा ठिगना चना बाँधे मुरेठा शीश पर छोटे गुलाबी फूल का सज कर खड़ा है

(फूल नहीं रंग बोलते हैं, पृष्ठ 2)

केदार को प्रकृति के वे रूप अधिक भाते हैं जिनमें गीत, जीवन, खुलापन, उत्साह और उमंग की अभिव्यक्ति होती है। इसलिए उन्हें धूप, नदी, पहाड़, बादल, हवा, फसलें बहुत आकृष्ट करती हैं।

धूप धरा पर उतरी

जैसे शिव के जटाजूटपर नभ से गंगा उतरी

• केदार को जैसे उगते सूरज की धूप बहुत प्रिय है, उसी तरह बसंत ऋतु भी बहुत प्रिय है। सरसों और फागुन उनकी कविता में एक साथ दिखाई देते हैं।

हो गयी सबसे सयानी हाथ पीले कर लिये हैं

और सरसों की न पूछो ब्याह मंडप में पधारी फाग गाता मास फागुन आ गया है आज जैसे

(फूल नहीं, पृष्ठ 17-18)

प्रकृति के प्रति गहरे लगाव के कारण बसंत ऋतु में खिले फूल ही केदार को आकृष्ट नहीं करते बल्कि छोटे से पोखर के तले उगी हुई घास देखकर भी वे उल्लसित होते हैं

और पैरों के तले है एक पोखर

उठ रही इसमें लहरियाँ

नील तल में जो उगी है घास भूरी

ले रही वह भी लहरियाँ केदार की एक बहुत प्रसिद्ध कविता है- “बसंती हवा”, जिसमें मुक्ति की कामना बड़े उदात्त ढंग से अभिव्यक्त हुई है।

(फूल नहीं, पृष्ठ 18)

अनोखी हवा हूँ, बड़ी बावली हैं।

बड़ी मस्तमौला, नहीं कुछ फिकर है बड़ी ही निडर हैं, जिधर चाहती हैं

उधर घूमती हूँ, मुसाफिर अजब हूँ न घर-बार मेरा, न उद्देश्य मेरा

न प्रेमी, न दुश्मन

न इच्छा किसी की, न आशा किसी की जिधर चाहती हूँ, उधर घूमती हूँ हवा हूँ, हवा मैं बसंती हवा हूँ

आपने देखा कि केदार का प्रकृति चित्रण उनके प्राकृतिक परिवेश, स्थानिकता, उनकी सामाजिक विचारधारा और यथार्थबोध से गुंथा हुआ है। 25.4.4 प्रेम संबंधी कविताएँ

कुछ लोगों का यह मानना है कि प्रगतिशील कवि केवल मजदूर और किसानों के बारे में ही लिखता है जीवन के अन्य पक्षों के बारे में वो नहीं लिखता। यह बात उन कवियों के बारे

में सही हो सकती है, जो प्रगतिशीलता को एक बाद या नारे के रूप में अपनाते हैं किंतु सच्चे. प्रगतिशील कवि जीवन को उसकी समग्रता में ग्रहण करते हैं और जीवन का कोई भी पक्ष उनके लिए त्याज्य नहीं होता। प्रगतिशीलता उनकी जीवन दृष्टि का भाग होती है। केदारजी ने प्रेम और प्रकृति पर ढेरों कविताएँ लिख कर इस बात को सिद्ध किया है कि वे रूढ़ अर्थों में प्रगतिशील नहीं हैं।

बल्कि केदारजी ने अपने कवि जीवन का प्रारंभ ही प्रेम और श्रृंगार के रोमानी कवि के रूप में किया था। और आज तक वे निरंतर प्रेम कविताएँ लिखते रहे हैं जो मुख्यतः “नींद के बादल”, “गुलमेंहदी”, “जमुन जल तुम”, “जो शिलाएँ तोड़ते हैं” और “हे मेरी तुम !” आदि काव्य ग्रहों में संकलित है।

केदारजी का प्रेम रोमांटिक कवियों की तरह भावुकता से सना पगा और काल्पनिक नहीं रहा है। उनका प्रेम अपनी प्रेमिका को एक व्यापक परिवेश में देखने की सामर्थ्य रखता हुआ विकसित हुआ है। उनके प्रेम की दूसरी विशेषता यह है कि उन्होंने स्वकीया प्रेम किया है, परकीया प्रेम नहीं । अर्थात् उन्होंने अपनी पत्नी से ही प्रेम किया है, वे आरंभ ही से सामाजिक मर्यादित प्रेम के हिमायती रहे हैं।

स्वकीया प्रेम की यह विशेषता होती है कि आठों पहर मधुचर्या करने की बजाए प्रेमी एक-दूसरे के जीवन के विभिन्न अनुभवों में हिस्सा बंटाते हैं जब कि परकीया प्रेम में सामाजिक मर्यादा के साथ-साथ व्यक्ति अपने दायित्वबोध को भी भुला बैठता है। केदार ने मानवीय भूमि पर स्वकीया प्रेम की स्वस्थ भावना को खड़ा किया है।

केदार की प्रेम कविताओं में प्रेम व्यंजना के साथ-साथ सामाजिक प्राकृतिक परिवेश भी अपने यथार्थ के साथ गूंथ कर आता है, जैसे:

सिर्फ प्रेम व्यंजना वाली कविता हे मेरी तुम !

यह जो लाल गुलाब खिला है, खिला करेगा यह जो रूप अपार हँसा है, हँसा करेगा

यह जो प्रेम पराग उड़ा है, उड़ा करेगा।

प्रेम के साथ यथार्थ प्राकृतिक परिवेश हे मेरी तुम !

काले-काले छाये बादल उड़ जाएँगे

गाँवो खेतों मैदानों को, तज जाएँगे

(जो शिलाएँ तोड़ते हैं, पृष्ठ 158)

(जो शिलाएँ तोड़ते हैं,, पृष्ठ 166 )

केदार अपनी “तुम” को याद करते हुए अपने गाँव अपने परिवेश, अपनी आंचलिक प्रकृति को नहीं भूलते। हिंदी में शायद ही किसी कवि ने प्रेम संबंधी कविताओं में अपने गाँव को इतने विस्तार से याद किया हो

प्यारी । मेरे जन्म गाँव में

प्यारी। उसी लड़कपन वाले गाँव में प्यारी। उसी पढ़ाई वाले गाँव में

प्यारी । उसी रामलीला वाले गाँव में

प्यारी। उसी कमासिन गाँव में

अपने प्यारे गाँव में नैनी से तुमको लाया हूँ।

(जमुन जल तुम, पृष्ठ 59-63)

केदार की प्रेम संबंधी कविताओं में प्रकृति का प्रेम, कविता का प्रेम, पत्नी का प्रेम इनका संगम हो जाता है। यह विशेषता उनके अपने व्यक्तित्व के विकास से ही संभव हुई है। जैसे-जैसे उम्र ढलती है, शेष जीवन के लिए प्रेम उतना ही महत्वपूर्ण होता जाता है। केदार की सहज भाव से लिखी हुई प्रेम कविताएँ कवि की मनोदशाओं के उतार-चढ़ाव को बहुत अच्छी तरह से प्रकट करती हैं। इनमें करुणा की ऐसी अंतर्धारा है जो प्रेम को और भी -मूल्यवान बना देती है। मृत्यु से भय है, चिड़ीमार ने चिड़िया मारी, किसी तरह कवि उसे जिलाए हुए हैं। काल बड़ा क्रूर है,

लेकिन अपना प्रेम प्रबल है। सुख-दुख दोनों

साथ पियेंगे

काल क्रूर से नहीं डरेंगे

नहीं डरेगे डरेंगे

(हे मेरी तुम, पृष्ठ 14 )

केदार जी की प्रेम कविताओं की यह विशेषता है कि उनमें कवि की सामाजिक यथार्थ दृष्टि अभिव्यक्त होती है। इसीलिए प्रेम कविताओं में प्राकृतिक परिवेश, आँचलिक प्रकृति और प्रेम की उदात्तता, गरिमा और व्यापक मानवीय संदर्भ गंधे रहते हैं।

25.5 संरचना शिल्प

केदारजी की काव्य विशेषताओं को पढ़ते हुए आपने उनके काव्य के उदाहरण भी पढ़े हैं। आपने देखा कि केदार की कविताएँ बहुत सहज, सरल हैं और आसानी से समझ में आ जाती हैं। कविता में सहजता और सरलता का यह गुण केदार को लोकजीवन से गहरे रूप में संबद्ध रहने के कारण मिला है। उनकी कविताओं की संरचनात्मक पद्धति और शिल्प की सबसे बड़ी विशेषता है संप्रेषणीयता।

यह शिल्प छायावादी कविता, और प्रयोगवादी कविता के शिल्प से भिन्न है। छायावादी भाषा जहाँ संस्कृतनिष्ठ, रोमानी और सायास गढ़े हुए शब्दों से आकार ग्रहण करती थी वहीं – प्रयोगवाद और आधुनिक कविता की भाषा में भी उलझाव जटिलता बहुत है। इसका कारण शायद वैचारिक दृष्टि और कथ्य के चुनाव पर है। छायावादी कवियों का कथ्य रोमानी एवं वायवी अधिक रहा है। इसी कारण भाषा और कला रूप पर अधिक ध्यान दिया गया है। प्रयोगवादी कविता का कव्य भी मध्यवर्गीय जीवन की कुछ जटिलताओं को प्रयोगधर्मिता के आधार पर देखना रहा है इसलिए भाषा और काव्य संरचना भी जटिल होती रही है। केदार के काव्य का कथ्य संपूर्ण मानव और जीवन को वैचारिक दृष्टि से संवेदनात्मक धरातल पर ग्रहण करके अभिव्यक्ति देता है। फलतः केदार के यहाँ भाषा कथ्य को छिपाती या उलझाती नहीं बल्कि पूरी संवेदना और वैचारिक स्पष्टता के साथ पाठक के सामने उद्घाटित करती है। चाँद प्रकृति का नैसर्गिक सौंदर्य हो, प्रेम कविताएँ हों, किसान-मजदूर के श्रम को उद्घाटित करती हुई रचनाएँ हों या राजनीतिक कविताएँ • यह स्पष्टता और सहजता

बराबर बनी रहती है। केदार की काव्य भाषा में ऐन्द्रियकता, चित्रात्मकता और लोकजीवन के विभिन्न रंग बहुत साफ होकर उभरते हैं। वे अपनी कविता में जिन बिंबों और प्रतीकों को लेते हैं, वे मानव संसार से जुड़े हुए बिंब और प्रतीक हैं। प्राकृतिक बिंब और प्रतीक भी मनुष्य की मुक्ति आकांक्षाओं को अभिव्यक्ति देने के लिए आते हैं जैसे- –

दहका खड़ा है सेमल का पुरनिया पेड़

टपाटप टपकाता जमीन पर

लाल लाल फूली आग

(हे मेरी तुम, पृष्ठ 55)

यहाँ सेमल के पुरनिया पेड़ से लाल-लाल फूली टपकती आग क्रांति का संकेत बन गयी है। केदार जीवन को कभी भी एक दृश्यपटल में बदल कर उसका वर्णन नहीं करते बल्कि जीवन के बीच में अपने आपको रखकर यथार्थ से साक्षात्कार करते हैं इसीलिए उनकी भाषा के कई तेवर हैं जन आंदोलनों के समय लिखी गई राजनीतिक कविताएँ प्रचारात्मक हैं किंतु – – प्रकृति के नैसर्गिक सौंदर्य का चित्रण करते हुए उनकी भाषा में ऐन्द्रियकता, चित्रात्मकता इस खूबी के साथ गंध कर आती है कि संपूर्ण कविता प्रकृति के सौंदर्य की कलात्मक अभिव्यक्ति बन जाती है। उनकी एक प्रसिद्ध कविता है “बसंती हवा” जिसमें हवा की मुक्ति की – आकांक्षा कविता के खत्म होते मानव मुक्ति के स्वप्न से जड़ कर और भी अर्थगर्भित हो – जाती है।

लयात्मकता उनकी भाषा की एक अन्य खूबी है जो उनकी लोकजीवन और जातीय संस्कृति की गहरी पहचान की सूचक है। उनकी भाषा में लोकजीवन के शब्द उनकी इसी पहचान को बढ़ाते हैं।

सरल और सहज भाषा में कविता रचते हुए केदार जन के करीब और अपने तो रहते ही हैं। किंतु शब्दों, बिंबों का सचेत प्रयोग वे इस प्रकार करते हैं कि यह सरलता और सहजता ही विशिष्ट बन जाती है। जैसे उनकी कविता की एक पंक्ति है- “पानी की देह में सूरज उगा है” सूर्योदय का यह दुर्लभ और जीवंत चित्र है। इससे भाषा की व्यंजना शक्ति भी बढ़ी है। और प्रकृति सौंदर्य भी ।

प्रगतिशील कवियों के शिल्प की एक अन्य खूबी यह है कि उनके विशेषण, बिंब प्रतीक आदि क्रिया से जुड़े रहते हैं क्योंकि प्रगतिशील कविता निरंतर संघर्ष की कविता है, इसीलिये उसमें क्रिया की प्रधानता है। केदार की कविता में भी देखना, सुनना बहुत अधिक है अनुभव को क्रिया से जोड़कर ही अभिव्यक्त करते हैं, जैसे- – 

वह प्रत्येक

मैंने उसको देखा जब-जब देखा

लोहा देखा

लोहा जैसा तपते देखा

गलते देखा ढलते देखा

मैंने उसको बोली जैसा चलते देखा।

पहले जब देखा था, सावन था, बादल थे इससे कम देखा था

अब तो यह फागुन है। फूलों में देखा है

रंगों से गंधों से बाँधे तन देखा है

इससे अब देखा है

कुल मिलाकर केदार की काव्य भाषा सरल सहज है, उसमें चित्रात्मकता ऐन्द्रियकता है उसमें लोकगीतों की अनुगूंज है और यह भाषा देश की मेहनतकश जनता के सुख दुःख एवं – जीवन से सरोकार रखती है।

25.6 काव्य पाठ एवं व्याख्या

यहाँ हम आपको केदारनाथ अग्रवाल की दो कविताएँ दे रहे हैं जिन्हें पढ़कर आप केदारजी की कविता से परिचित हो सकेंगे। इसके बाद इन्हीं कविताओं में से हम आपको एक कवितांश की संदर्भ सहित व्याख्या करके बताएँगे कि इन कविताओं को आप कैसे विश्लेषित कर सकते हैं। एक कवितांश की व्याख्या आप करें, जिसमें हम आपकी सहायता करेंगे।

“यह धरती है उस किसान की”

यह धरती है उस किसान की

जो बैलों के कंधों पर बरमात घाम में,

जुआ भाग्य का रख देता है खून चाटती हुई वायु में

पैनी कमी खेत के भीतर

दर कलेजे तक ले जाकर जोत डालता है मिट्टी को

पाँस डाल कर

और बीज फिर बो देता है

नये वर्ष में नयी फसल के । ढेर अन्न का लग जाता है। यह धरती है उस किसान की।

नहीं कृष्ण की

नहीं राम की

नहीं भीम, सहदेव, नकुल की नहीं पार्थ की

राव की, नहीं रंक कि

ही तेग, तलवार, धम की नहीं किसी की नहीं किसी की धरती है केवल किसान की।

सूर्योदय, सूर्यास्त असंख्यों

सोना ही सोना बरसा कर मोल नहीं ले पाए इसको भीषण बादल आसमान में गरज गरज कर धरती को न कभी हर पाये प्रलय सिंधु में डूब-डूब कर उभर उभर आयी ऊपर। ‘भूचालों भूकम्पों से यह मिट न सकी है। यह धरती है उस किसान की जो मिट्टी का पूर्ण पारखी जो मिट्टी के संग साथ ही मर कर खपा रहा है जीवन अपना देख रहा है मिट्टी में सोने का सपना मिट्टी की महिमा गाता मिट्टी के ही अन्तः स्थल में अपने तन की खाद मिला कर

तप कर

गल कर जी कर

मिट्टी को जीवित रखता है

खुद जीता है यह धरती है उस किसान की।

(इस कविता में कवि केदारनाथ अग्रवाल कहते हैं कि यह धरती उस किसान की है जो इस पर हल चलाता है और अन्न उपजाता है। कवि कहता है कि यह धरती न तो ईश्वर की है, न ही राजाओं महाराजाओं की, न ही धर्म की – यह धरती केवल किसान की है जो अपना – खून-पसीना बहा कर इस धरती को भी जीवित रखता है और धरती पर रहने वाले मनुष्यों को भी।)

‘धूप चमकती है चाँदी की साड़ी पहने “

धूप चमकती है चाँदी की साड़ी पहने मेक में आयी बेटी की तरह मंगल है। फुली सरसों की छाती से लिपट गयी है। जैसे दो हमजोली सखियाँ गले मिली हैं। भैया की बाहों से छूटी भौजाई-सी लहंगे की लहराती लचती हवा चली है सारंगी बजती है खेतों की गोदी में दल के दल पक्षी उड़ते हैं मीठे स्वर के अनावरण यह प्राकृत छवि की अमर भारती रंग-बिरंगी पंखुड़ियों की खोल चेतना सौरभ से मह मह महकाती है दिगन्त को मानव मन को भर देती है दिव्य दीप्ति से शिव के नन्दी-सा नदिया में पानी पीता निर्मल नभ अवनी के ऊपर बिसुध खड़ा है काल कारा की तरह ठूंठ पर गुमसुम बैठा

खोयी आँखों देख रहा है दिवास्वप्न को। इस कविता में कवि ने प्रकृति का मनोहर चित्रण किया है। उसे लगता है कि धूप मानों मायके में आयी बेटी की तरह मगन हो कर खिली हुई सरसों से ऐसे गले लिपट गयी है, जैसे

दो सहेलियाँ गले मिल रही हों और हवा ऐसे चल रही है जैसे भैया की बाहों से भौजाई शर्म से छूट कर भाग खड़ी हुई हो। खेतों में हवा के चलने से मानों सारंगी बज रही पक्षियों के झुंड के झुंड मीठे स्वर गाते हुए उड़ रहे हैं। प्रकृति की यह छवि चारों दिशाओं को महका रही है- आसमान धरती के ऊपर उसी भाँति खड़ा दीख रहा है जैसे शिव का नांदी नदिया में पानी पी रहा हो)

व्याख्या

यह धरती है उस किसान की जो मिट्टी का पूर्ण पारखी

तप कर

जी कर

जो मिट्टी के संग साथ ही गल कर मर कर खपा रहा है जीवन अपना देख रहा है जीवन अपना देख रहा है मिट्टी में सोने का सपना मिट्टी की महिमा गाता मिट्टी के ही अन्तः स्थल में अपने तन की खाद मिलाकर मिट्टी को जीवित रखता है

खुद जीता है। यह धरती है उस किसान की।

संदर्भ: केदारनाथ अग्रवाल की कविता “यह धरती है उस किसान की” से उद्धृत ये पंक्तियाँ डॉ. रामविलास शर्मा द्वारा संपादित पुस्तक “प्रगतिशील काव्यधारा और केदारनाथ अग्रवाल” नामक पुस्तक में संकलित कविता से ली गयी हैं।

-प्रसंग केदारनाथ अग्रवाल ने किमानी जीवन पर लिखा है। डॉ. शिवकुमार मिश्र तो उन्हें किसानी संवेदना का कवि ही मानते हैं। केदारनाथ अग्रवाल प्रगतिशील कवि हैं वे यह – जानते हैं कि इस देश की 80% जनता किसानी या मजदूरी करके पेट पालती है। जनता के जीवन को उन्होंने बहुत करीब से देखा और अनुभव किया है। इन पंक्तियों में कवि धरती और उस पर हल चला कर अन्न उपजाने वाले किसान के बारे में कहता है कि यह धरती केवल उसी की है जो उस पर अन्न उपजाता है।

व्याख्या: कवि कहता है कि यह धरती उस किमान की है जो मिट्टी का पूर्ण पारखी है अर्थात् जो इस मिट्टी में अन्न उगाना जानता है, जो इस मिट्टी के साथ ही गल कर, खप कर, जी कर मर कर अपना जीवन खपा रहा है अर्थात् इतनी मेहनत करने के बाद भी किसान की – स्थिति ऐसी नहीं है कि वह सुख से रह सके यहाँ कवि का इशारा भारतीय किसान की आर्थिक, सामाजिक स्थिति की ओर है। किसान सब लोगों के लिए अन्न उपजाता है, मेहनत करता है किंतु फिर भी जमींदार, सामंत आदि के शोषण तले पिसता रहता है। कवि आगे कहता है कि ऐसी स्थितियों में भी किसान मिट्टी में सोना उपजाने का सपना देखता है अर्थात् उसे उम्मीद है कि स्थितियाँ बदलेंगी और उसकी मेहनत का समूचा फल उसे ही मिलेगा। इसलिए उसे अपनी मेहनत पर विश्वास है, इस धरती पर मिट्टी पर विश्वास है वो – मिट्टी की महिमा के गीत गाता है। वह अपने तन की खाद मिट्टी में मिलाकर मिट्टी को जीवित रखता है अर्थात् अपनी संपूर्ण शक्ति और मेहनत वो मिट्टी को उपजाऊ बनाने में लगाता रहता है। इसी तरह वह खुद जीता है और मिट्टी को भी जिंदा रखता है। यह धरती उसी किसान की है जो मिट्टी को उपजाऊ बनाता है, उससे अन्न उपजा कर लोगों तक पहुँचाता है।

विशेषः केदारजी ने किसानी जीवन पर बहुत लिखा है। किसानों के सुख दुःख, उनके जीवन और उनकी समस्याओं को उन्होंने बहुत करीब से देखा और जाना है। इन पंक्तियों में कवि सिर्फ यह नहीं कहना चाहता कि धरती और किसान का अटूट रिश्ता है बल्कि वो यह बात जोर देकर कहना चाहता है कि इस रिश्ते का जमींदारों, सामंतों और सत्ताधारियों द्वारा जो शोषण किया गया है, किया जा रहा है, वो खत्म होना चाहिए। धरती को भगवान की संपत्ति

बताकर ऐसे लोग किसानों का शोषण करते हैं और गरीब किसान अपनी मेहनत के फल से वंचित रह जाता है, उसकी सारी मेहनत बड़े-बड़े लोग हड़प जाते हैं। , भाषाः इन की भाषा सरल और संप्रेषणीय है। केदारजी की काव्य भाषा की यह

बहुत बड़ी विशेषता है कि कविता को समझने में दूर की कौड़ी का सहारा नहीं लेना पड़ता।

सारांश

केदारनाथ अग्रवाल प्रगतिशील काव्यांदोलन के एक प्रमुख कवि हैं। आज़ादी के पूर्व से लेकर आज तक वे अपनी काव्य यात्रा में लगे हुए हैं। उनकी राजनीतिक दृष्टि मार्क्सवादी विचार दर्शन के चिंतन-मनन से प्राप्त की हुई प्रगतिशील राजनीतिक दृष्टि है। केदारनाथ ने राजनीतिक कविताएँ लिखी हैं, जिनमें इस देश के चालीस वर्षों का राजनीतिक इतिहास कैद है। राजनीतिक कविताओं के अलावा केदार ने प्रकृति, प्रेम और श्रम करते हुए तथा संघर्षशील मानव के बारे में बहुत लिखा है। वास्तव में केदारनाथ अग्रवाल आम जनता के कवि हैं, केदारनाथ अग्रवाल की भाषा सरल, सहज अतः संप्रेषणीय है। प्रगतिशील कवियों की भाषा का सबसे बड़ा गुण संप्रेषणीयता ही होता किंतु सरल होते हुए भी यह भाषा बहुत कलात्मक है। केदार अधिकतर मानव संसार के बिंबों का प्रयोग करते हैं। प्राकृतिक बिंब और प्रतीक भी वे मानवीय अनुभूतियों और संवेदनाओं को व्यक्त करने के लिए लाते हैं। केदार में एक खास तरह की स्थानिकता, आँचलिकता है, जिससे उनकी रचनाओं में एक सहजता, अपनी जमीन से जुड़े होने का एहसास और लोकजीवन के विभिन्न रंग मिलते हैं। सारांशतः केदारनाथ अग्रवाल इस देश के श्रमशील मनुष्य के सुख-दुःख की वाणी देने वाले प्रमुख प्रगतिशील कवि हैं।

कुछ उपयोगी पुस्तकें

डॉ. रामविलास शर्माः प्रगतिशील काव्यधारा और केदारनाथ अग्रवाल, परिमल प्रकाशन, इलाहाबाद। अजय तिवारी (सं.): केदारनाथ अग्रवाल, परिमल प्रकाशन, इलाहाबाद।

भगत रावत, राजेन्द्र शर्मा, मनोहर देवलिया (सं.): जिऊँगा अभी और अभी और, परिमल प्रकाशन, इलाहाबाद।

बोध प्रश्न  – उत्तर

बोध प्रश्न 1 

क) केदारनाथ अग्रवाल ने काव्य के अतिरिक्त साहित्य की और किन-किन विधाओं में रचना की है ?

क) उपन्यास, अनुवाद, यात्रा संस्मरण

उत्तर बोध प्रश्न 1 

ख) केदारजी के चिंतन पर किस विचारधारा का प्रभाव पड़ा है ?

ख) मार्क्सवादी विचारधारा का

बोध प्रश्न 2

1 केदारनाथ अग्रवाल किस प्रकार की राजनीति की तरफदारी करते हैं – चार पंक्तियों में उत्तर दीजिए ।

2. सामाजिक यथार्थ को देखने की केदारजी की दृष्टि कैसी है, सही पर निशान लगाइए । ‘

क) वर्गहीन ख) वर्गचेतन प्रधान

ग) व्यक्तिवादी

3 केदारजी किसानों, मजदूरों की सामाजिक, आर्थिक हालत की चर्चा करते हुए भी उनके पिछड़ेपन को नजरंदाज नहीं करते, कोई उदाहरण दीजिए।

उत्तर  बोध प्रश्न 2

1 केदारजी ऐसी राजनीति की तरफदारी करते हैं जो समाज में शोषित जन को उनके अधिकार दिला सके, समाज में भेदभाव को समाप्त करे, मनुष्य मनुष्य का शोषण न करे।

2 ( ख ) –

3 एक मजदूर है चैतू

सूरज डूबे, छुट्टी पाके जिंदा रहने से उकता के ठर्रा पीता है और सो जाता है

बोध प्रश्न 3

1) केदार का प्रकृति चित्रण सामाजिक वास्तविकता और यथार्थ के अनुभव से विच्छिन्न नहीं है – कोई उदाहरण देकर बताइये।

2) केदार को प्रकृति के कौन से रूप अधिक भाते हैं और क्यों? चार पंक्तियों में उत्तर दीजिए ।

3) केदार का प्रेम वर्णन सामाजिक यथार्थ दृष्टि से विच्छिन्न नहीं है ? उदाहरण सहित दस पंक्तियों में टिप्पणी कीजिए।

4) केदारजी के प्रेम की दो तीन विशेषताएँ बताइये

उत्तर  बोध प्रश्न 3

1 आर पार चौड़े खेतों में

चारों ओर दिशाएँ घेरे लाखों की अगणित संख्या में

ऊँचा गेहूँ डटा खड़ा है ताकत में मुट्ठी बाँधे है

नोकीले भाले ताने है

हिम्मत वाली लाल फौज सा मर मिटने को झूम रहा है।

2 इसलिए उन्हें प्रकृति के वे रूप अधिक भाते हैं जिनमें गति, जीवन, खुलापन, उत्साह और उमंग की अभिव्यक्ति होती है। (क्योंकि केदार जीवनासक्ति के कवि हैं, वे जीवन को सकारात्मक दृष्टि से देखते हैं।)

3 केदार का प्रेम वर्णन सामाजिक यथार्थ दृष्टि से विच्छिन्न नहीं है। अपनी प्रिया पर कविता लिखते हुए वे सामाजिक परिवेश, गाँव, खेत-खलिहान, आँचलिक प्रकृति और अपने परिवेश को नहीं भूलते। बल्कि ये सब उनकी कविता का अंग बन जाते हैं जैसे अपनी प्रिया को गाँव में लाने के वर्णन में उनका गाँव अपने यथार्थ रूप में चित्रित हुआ है।

प्यारी। मेरे जन्म गाँव में

प्यारी। उसी लड़कपन वाले गाँव में प्यारी। उसी पढ़ाई वाले गाँव में

प्यारी। उसी रामलीला वाले गाँव में प्यारी। उसी कमामिन गाँव में

अपने प्यारे गाँव में नैनी से तुमको लाया हूँ।

4 • केदारजी का प्रेम स्वकीया प्रेम है

वो सामाजिक यथार्थ से विच्छिन्न नहीं है. • केदार जी का प्रेम भावुकता से सना पगा नहीं है।

बोध प्रश्न 4

1) केदारजी की कविताओं के शिल्प की सबसे प्रमुख विशेषता कौन-सी है ?

2) केदारजी की काव्य भाषा की विशेषताएँ संक्षेप में बताइए ।

उत्तर  बोध प्रश्न 4

2 ऐन्द्रियकता, चित्रात्मकता, लयात्मकता

केरनाथ अग्रवा

1 संप्रेषणीयता केदारजी की कविताओं के शिल्प की प्रमुख विशेषता है.