।।निरंतर।।
करि बिसतार जग धंधै लाया,
करि बिसतार जग धंधै लाया, अंध काया थैं पुरिष उपाया ।।
जिहि जैसी मनसा तिहि तैसा भावा, ताकूँ तैसा कीन्ह उपावा ।।
ते तौ माया मोह भुलानाँ, खसम राँम सो किनहूं न जानाँ ।।
जिनि जाण्याँ ते निरमल अंगा, नहीं जाँण्याँ ते भये भुअंगा ।।
ता मुखि विष आवै विष जाइ, ते विष ही विष में रहा समाइ ।।
माता जगत भूत सुधि नाँही, अंमि भूले नर आवैं जाहीं । ।
जानि बूझि चेते नहीं अन्धा, करम जठर करम के फंधा ।।
करम का बाध्या जीयरा, अहनिसि लागै जाइ ।।
मनसा देही पाइ करि, हरि बिसरै तौ फिर पीछे पछिताई ।।6।।
व्याख्या –
करि बिसतार जग धंधै लाया, अंध काया थैं पुरिष उपाया ।।
कबीर दास जी कहते हैं की इस शरीर की उत्पत्ति का कारण आज्ञा का अंधकार है आयुर्वेद भी कहता है कि इस शरीर की उत्पत्ति स्त्री दोष से हुई है दोष अर्थात अज्ञान का अंधकार। और फिर उसी का विस्तार करके सारे संसार में प्राणियों को उसे ईश्वर ने व्यस्त कर दिया है।
जिहि जैसी मनसा तिहि तैसा भावा, ताकूँ तैसा कीन्ह उपावा ।।
जिसकी जैसी भावना होती है यह संसार उसे वैसा ही प्रतीत होने लगता है और वह उसी प्रकार का उपाय करने लगता है कर्म करने लगता है क्रियाशील हो जाता है।
ते तौ माया मोह भुलानाँ, खसम राँम सो किनहूं न जानाँ ।।
और इस प्रकार से संसार में सभी प्राणी माया और मोह में तल्लीन होकर ईश्वर की ओर से विस्मृत हो जाते हैं और वह यह भूल जाते हैं की सबका स्वामी जो राम है इन्हें उसे जानना चाहिए। वे उसका अनुभव नहीं करते उससे अनभिज्ञ रहते हैं।
जिनि जाण्याँ ते निरमल अंगा, नहीं जाँण्याँ ते भये भुअंगा ।।
जिन्होंने उसे जान लिया है उनके अंग निर्मल हो गए हैं वह शरीर और मन से स्वस्थ हो गए हैं। जिन्होंने नहीं जाना है उनका शरीर व्याधियों से ग्रस्त हो जाता है और वे मानसिक रूप से भी अस्त-व्यस्त हो जाते हैं। अर्थात उनका अस्तित्व सर्प के समान विषैला हो गया है।
ता मुखि विष आवै विष जाइ, ते विष ही विष में रहा समाइ ।।
माता जगत भूत सुधि नाँही, अंमि भूले नर आवैं जाहीं । ।
आगे भी कहते हैं कि उनके मुख में विष ही अंदर आता है अर्थात् वे अनुचित को ही ग्रहण करते हैं और उनके मुख से विष ही बाहर जाता है। इस प्रकार उनके समग्र अस्तित्व विश्व में ही समाहित हो गया है मानो। इस जगत में वे भ्रम में पड़ गए हैं जैसे मद्यपान किया हुआ व्यक्ति नशे में भ्रमित होता रहता है इस प्रकार इन्हें प्राणी के मूलभूत स्वभाव का पता नहीं है और इस प्रकार मनुष्य इस संसार में आवागमन के चक्र में पड़ गया है और आता है और जाता है।
जानि बूझि चेते नहीं अन्धा, करम जठर करम के फंधा ।।
यह इस प्रकार का नेत्रहीन है कि इस सब कुछ जानकार देखकर भी कुछ समझ नहीं आता और यह अपने कर्मों के जाल में स्वयं ही संस्कार अपने ही कर्मों कि जठराग्नि में जलता रहता है।
करम का बाध्या जीयरा, अहनिसि लागै जाइ ।।
मनसा देही पाइ करि, हरि बिसरै तौ फिर पीछे पछिताई ।।6।।
यह कर्मों से बंधा हुआ जीव अथवा प्राणी अथवा मनुष्य दिन रात इसी तरह के कार्यों में उलझा रहता है। यह यह भूल जाता है की इस मनुष्य ने मन और शरीर को प्राप्त करके भी ईश्वर को विस्मृत कर दिया है और इसी विस्मृति के कारण इसको बाद में बहुत पछतावा करना पड़ेगा दुखी होना पड़ेगा।
विशेष :-
(१) विषय-वासनाओं में लिप्त जीव की दशा का वर्णन किया गया है।
(२) ‘भुजंग’ शब्द का प्रयोग प्रतीकात्मक है जो वासनाओं को व्यंजित करता है। रूपकातिशयोक्ति अलंकार की भी योजना है।
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।।निरंतर।।
तौ करि त्राहि चेति जा अंधा,
तौ करि त्राहि चेति जा अंधा, तजि परकीरति भज चरन गोव्यंदा ।।
उदर कूप तजौ ग्रभ बासा, रे जीव रॉम नॉम अभ्यासा ।।
जगि जीवन जैसे लहरि तरंगा, खिन सुख कूँ भूलसि बहु संगा ।।
भगति को हीन जीवन कछू नाँहीं, उत्पति परलै बहुरि समाँही ।।
भगति हीन अस जीवनाँ, जन्म मरन बहु काल ।।
आश्रम अनेक करसि रे जियरा, रॉम बिना कोई न करै प्रति पाल ।।७।।
व्याख्या –
तौ करि त्राहि चेति जा अंधा, तजि परकीरति भज चरन गोव्यंदा ।।
कबीर दास जी कहते हैं की है मोह में डूबे हुए मनुष्य अथवा प्राणी तू अपनी सुरक्षा का ध्यान करके सावधान हो जा नेत्रहीन के समान व्यवहार मत कर की देख कर भी अनदेखा करता है यह माया के विस्तार अथवा तो उसके गुणगान को छोड़कर गोविंद के चरणों का भजन कर अर्थात ईश्वर को प्राप्त कर।
उदर कूप तजौ ग्रभ बासा, रे जीव राम नाम अभ्यासा ।।
उदर रूपी कुएं में होने वाले गर्भवास का त्याग कर दो, क्योंकि वह अत्यंत दुखदाई है, हे जीव! इस गर्भवास से बचने के लिए तुझे राम नाम का निरंतर अभ्यास करना चाहिए।
जगि जीवन जैसे लहरि तरंगा, खिन सुख कूँ भूलसि बहु संगा ।।
भगति को हीन जीवन कछू नाँहीं, उत्पति परलै बहुरि समाँही ।।
वह कहते हैं कि संसार का यह जीवन इस प्रकार का है जैसे लहरें तरंगित होती है उनमें तरंग होती है किंतु वह तरंग उनका वास्तविक जीवन नहीं है उनका वास्तविक जीवन जल है। जो उनका आधार है। इस प्रकार संसार के क्षणिक सुखों में लिप्त होकर तू उस ईश्वर के संग को विस्मृत मत कर। वे समझा कर कहते हैं कि भक्तिहीन जीवन कुछ भी नहीं है अर्थात उसका कोई मूल्य नहीं है। इस प्रकार तो वह उत्पत्ति और प्रलय के बीच बार-बार झूलता ही रहेगा, उसमें पड़ता ही रहेगा और कष्ट भोगता रहेगा।
भगति हीन अस जीवनाँ, जन्म मरन बहु काल ।।
आश्रम अनेक करसि रे जियरा, राम बिना कोई न करै प्रति पाल ।।७।।
इस प्रकार के भक्तिहीन जीवन को जीने से बहुत कल तक जन्म मरण होता रहेगा और कष्ट भोक्ता रहेगा। वह कहते हैं कि है जीव तू अनेक आश्रमों में अर्थात ब्रह्मचर्य गृहस्थ वानप्रस्थ सन्यास इस प्रकार के अनेक प्रकार के आश्रमों में तू भट्ट रहेगा किंतु उसे ईश्वर के अतिरिक्त तेरा कल्याण और कोई भी करने में समर्थ नहीं है।
विशेष। :-
(१) ‘अंधा’ शब्द का प्रयोग अज्ञानता के वशीभूत जीव के लिए आया है। अज्ञानता में पड़ा जीव ज्ञान और भक्ति के प्रकाश को नहीं देख सकता है।
(२) उदर-कूप- रूपक अलंकार। जैसे लहरि तरङ्गा में उपमा अलंकार की योजना की गयी है।
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द्वारा : एम. के. धुर्वे, सहायक प्राध्यापक, हिंदी