कबीर ग्रंथावली (संपादक- हजारी प्रसाद  द्विवेदी) पद संख्या 202 अर्थ सहित

पद: 202

कबीरा प्याला प्रेमका, अंतर दिया लगाय।

रोम रोमसे रमि रह्या, और अमल क्या खाए।।1।।     

कबीरा हम गुरु-रस पिया, बाकी रही न छाक।

पाका कलस कुम्हार का, बहुरि न चढ़सी चाक।।2।।   

राता-माता नामका, पीया प्रेम अघाय।

मातवाला दीदार का, माँगें मुक्ति बलाय।।3।।

भावार्थ :-

कबीर दास जी कहते हैं कि मैं प्रेम का प्याला अपने अंतर में भीतर में लगा दिया है और जो मेरे रोम रोम में राम रहा है उस प्रियतम का मुझे व्यसन हो गया है। तो फिर मैं दूसरे व्यसन किस लिए करूं। कबीरदास जी कहते हैं कि हमने गुरु रस पिया है । गुरु के प्रसाद से प्रदत ईश्वरीय रस का हमने पान किया है। और अब कोई अन्य रस पीना बाकी नहीं रहा है। जिस प्रकार कुम्हार के द्वारा बनाया हुआ घड़ा जब एक बार अग्नि में पक जाता है तो फिर उसे बार-बार कुम्हार की चाकी पर फिर फिर से चढ़ना नहीं पड़ता।  क्योंकि वह पक गया है, उसी प्रकार हमारी आत्मानुभूति हो जाने से हम संसार चक्र से मुक्त हो गए हैं और हमें जन्म मरण में अब भ्रमण नहीं करना पड़ेगा।

वे कहते हैं कि सभी प्रकार के स्वाद अर्थात रसों संयुक्त भगवन नाम रूपी प्रेम रस का हमने जी भर कर पान किया है और हम घा गए हैं अर्थात् उसे पीकर हम तृप्त हो गए हैं। हम उस रस को पीकर उस ईश्वर के  दीदार के लिए अर्थात् उसके दर्शन के लिए मतवाले हो गए हैं। और हम अब मुक्ति को मांगना भी बला अर्थात झंझट समझते हैं क्योंकि ईश्वर और जीव एक और अभिन्न है। यदि ईश्वर मुक्त है तो जीव भी मुक्त ही है क्योंकि वे दोनों एक और अभिन्न हैं। इस प्रकार वह अपनी मस्त फकीरी अवस्था का वर्णन करते हुए कहते हैं कि अब ईश्वर को पाकर हम मतवाले हो गए हैं।