कबीर ग्रंथावली (संपादक- हजारी प्रसाद  द्विवेदी) के पद संख्या 207 अर्थ सहित

पद: 207

नैहरमें दाग लगाय आई चुनरी।

ऊ रँगगरेजवा कै मरम न जानै,

नहिं मिलै धोबिया कौन करै उजरी।

तनकै कूंडी ज्ञान का सौदन,

साबुन महँगा बिचाय या नगरी।

पहिरि-ओढ़ीके चली ससुरारिया,

गौवाँ के लोग कहै बड़ी फुहरी।

कहैं कबीर सुनो भाई साधो,

बिन सतगुरु कबहूँ नहिं सुधरी।। 

भावार्थ :-

नैहरमें दाग लगाय आई चुनरी।

ऊ रँगगरेजवा कै मरम न जानै,

नहिं मिलै धोबिया कौन करै उजरी।

नैहर का अर्थ होता है माता-पिता का घर, मायका, तो कबीरदास जी कहते हैं कि अपनी चुनरी अर्थात हमें जो यह शरीर मन बुद्धि मिली है इसे ही वे चुनरी कहते हैं कि इस चुनरी में तुमने दाग लगा लिया है और वह जो रंग रंगने वाला अर्थात ईश्वर है उसके मर्म को तुम नहीं जानते हो।  अब यह जो चुनरी मैली हो गई है तो इसे धोने वाला कोई मिलता नहीं है अब इसे  कौन उज्जवल करेगा कौन इसे धुल सकेगा।

तनकै कूंडी ज्ञान का सौदन,

साबुन महँगा बिचाय या नगरी।

स्तन के कुंड में यह चुनरी ढोई जा सकती है अर्थात चित्त को जीवन रहते हुए शुद्ध किया जा सकता है और यह शुद्ध, ज्ञान के माध्यम से होती है किंतु वह कहते हैं कि यह जो ज्ञान रूपी साबुन है जिससे यह चुनरी धोई जा सकती है वह बहुत ही महंगी है।

पहिरि-ओढ़ीके चली ससुरारिया,

गौवाँ के लोग कहै बड़ी फुहरी।

कहैं कबीर सुनो भाई साधो,

बिन सतगुरु कबहूँ नहिं सुधरी।। 

वे कहते हैं कि ऐसे चुनरी पहन ओढ़ कर दुल्हन बनकर वह ससुराल चली जा रही है तो गांव के लोग कहते हैं कि यह कैसी है कि ऐसी मैली चुनरी पहन कर ही ससुराल जा रही है अर्थात् वे बुरा भला कहते हैं आलोचना करते हैं। तो कबीर जी इसका उपाय, इसका हल बताते हुए कहते हैं कि हे भाई हे साधो! सुनो  यह चुनरी अर्थात यह चित्त बिना सद्गुरु के कभी भी धोया नहीं जा सकता, इसे शुद्ध नहीं किया जा सकता और ईश्वर को आप गुरु के बिना प्राप्त नहीं कर सकते। अतः वह मंतव्य व्यक्त करते हैं कि यदि आपको ईश्वर के मार्ग पर जाना है और आपको उस लायक बनना है तो आप किसी ब्रह्म वेत्ता सद्गुरु की शरण ग्रहण कीजिए।

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