कबीर ग्रंथावली (संपादक- हजारी प्रसाद  द्विवेदी) के पद संख्या 208 अर्थ सहित

पद: 208

सील-संतोखते सब्द जा मुखबसै, संतजन जौहरी साँच मानी।

बदन बिकसित रहै ख्याल आनंदमे, अधरमें मधुर मुस्कात बानी।

साँच गेलै नहीं झूठ बोलै नैन, सूरतमें सुमति सोई श्रेष्ठ ज्ञानी।

कहत हौ ज्ञान पुक्कारि कै सबनसो, देत उपदेस दिल दर्द ज्ञानी।

ज्ञान को पूर है रहनिको सूर है, दया की भक्ति दिलमाही ठानी।

औरते छोर लौ एक रस रहत है, ऐस जन जगतमें बिरले प्रानी।

ठग्ग बटपार संसारमें भरि रहे, हंसकी चाल कहाँ काग जानि।     

चपल और चतुर है बने चीकने, बातमें ठीक पै कपट ठानी।

कहा तिनसो कहो दया जिनके नहीं, घाट बहुतै करै बकुलध्यानी।

दुर्मती जीवकी दुबिध छूटै नहीं, जन्म जन्मान्त पड़ नर्क खाली।

काग कुबुद्धि सुबुद्धि पावै कहाँ, कठिन कट्ठोर बिकराल बानी।

अगिनके पुंज है सितलता तन नाही, अमृत औ विष दोऊ एक सानी।

कहा साखी कहें सुमति जागी नहीं, साँचीकी चाल बिन धूर घानी।

सुकृति औ सत्तकी चाल साँची सही, काग बक अधमकी कौन खानी।

कहै कबीर कोऊ सुधर जन जौहरी, सदा सावधान पिये नीर छानी।।   

भावार्थ :-

सील-संतोखते सब्द जा मुखबसै, संतजन जौहरी साँच मानी।

बदन बिकसित रहै ख्याल आनंदमे, अधरमें मधुर मुस्कात बानी।

यहां पर इस पद में कहा गया है कि जिसके मुख में सील और संतोष से संयुक्त शब्द बसते हैं तो जो संत जन है वह उसे ही सच्चा कहते हैं। जो सच्चे संत जन हैं वे सदा आनंद में मगन रहते हैं और उनका मुख कमल की तरह सुंदर और विकसित रहता है और उनके होठों में सदा प्रसन्नता से छलकती रहती है।

साँच गेलै नहीं झूठ बोलै नैन, सूरतमें सुमति सोई श्रेष्ठ ज्ञानी।

कहत हौ ज्ञान पुक्कारि कै सबनसो, देत उपदेस दिल दर्द ज्ञानी।

वह कहते हैं कि वह सत्य के मार्ग पर चलते हैं और झूठ नहीं बोलते उनकी दृष्टि भी सत्य से उत्प्रोत रहती है और उनकी चेतना में उनके व्यक्तित्व में सुमति होती है वह ही श्रेष्ठ ज्ञानी होते हैं। मैं सब से यह ज्ञान पुकार पुकार कर कहता हूं और उपदेश देता हूं कि ज्ञानी ऐसा होता है।

ज्ञान को पूर है रहनिको सूर है, दया की भक्ति दिलमाही ठानी।

औरते छोर लौ एक रस रहत है, ऐस जन जगतमें बिरले प्रानी।

उसमें ज्ञान का भंडार रहता है और वह रात्रि के लिए सूर्य के समान है और उसके हृदय में दया रूपी भक्ति निवास करती है वह हर समय एक रस रहता है और इस प्रकार के ज्ञानी जन संसार में विरले ही होते हैं।

ठग्ग बटपार संसारमें भरि रहे, हंसकी चाल कहाँ काग जानि।     

चपल और चतुर है बने चीकने, बातमें ठीक पै कपट ठानी।

संसार में ठग और बट मार लोगों की बड़ी संख्या है और ऐसे लोग जो काग के समान हैं कौवे के समान हैं वह हंस की चाल को कैसे समझ सकते हैं । ऐसे कौवे और बगुले की तरह के स्वभाव वाले लोग बड़े ही चपल और चतुर होकर बड़ी ही चिकनी चुपड़ी बातें करते हैं। ऊपर से बड़ा अच्छा लगता है, किंतु उनके भीतर में कपट भरा रहता है।

कहा तिनसो कहो दया जिनके नहीं, घाट बहुतै करै बकुलध्यानी।

दुर्मती जीवकी दुबिध छूटै नहीं, जन्म जन्मान्त पड़ नर्क खाली।

उनसे हम क्या कह सकते हैं कि जिनके भीतर दया है ही नहीं ऐसे लोग बगुले की तरह ध्यान करते दिखाई देते हैं किंतु जीव की दुरमति दुर्बुद्धि जब तक नहीं छूटती तब तक वे जन्म जन्मांतर तक नर्क में ही पड़ते रहते हैं।

काग कुबुद्धि सुबुद्धि पावै कहाँ, कठिन कट्ठोर बिकराल बानी।

अगिनके पुंज है सितलता तन नाही, अमृत औ विष दोऊ एक सानी।

ऐसे कौवे के समान स्वभाव वाले कुबुद्धि लोग सुबुद्धि कहां से प्राप्त कर सकेंगे। वह अपने स्वभाव के कारण अत्यंत कठिन कठोर और विकराल वचन कहते हैं। वे अपने आप ही तपते रहते हैं और अग्नि के पुंज बन जाते हैं उनके शरीर में शीतलता नहीं रहती वह अमृत और विष दोनों से मिश्रित स्वरूप में रहते हैं।

कहा साखी कहें सुमति जागी नहीं, साँचीकी चाल बिन धूर घानी।

सुकृति औ सत्तकी चाल साँची सही, काग बक अधमकी कौन खानी।

वे कहते हैं कि हे सखी! अब क्या कहा जाए क्योंकि सुमति तो जागी नहीं है और सत्य की जो चाल है उसके बिना घोर अंधकार है। आगे कहते हैं सुकृत और सत्य की जो चाल है वही सच्ची और सही है। किंतु कौवा और बगुला जैसी जो वृत्ति है जो चाल चलन है वह अधर्म की या अंधकार की खान है उसे आपदाएं प्राप्त होती हैं।

कहै कबीर कोऊ सुधर जन जौहरी, सदा सावधान पिये नीर छानी।।   

कबीर कहते हैं कि ऐसे जन जो सुलझे हुए हैं जिन्हें सच्चा ज्ञान है ऐसे जौहरी के समान लोग संसार में बहुत ही कम मिलते हैं। जैसे समझदार लोग जल को छान कर पीते हैं। अर्थात् उसी प्रकार वे अपनी बड़ी समझ के साथ लोगों से संभलकर व्यवहार करते हैं।