लोग मति के भोले हैं या भ्रमित हैं। कबीरदास जी कहते हैं कि यदि कबीर भी काशी में ही अपना अंतिम समय व्यतीत करना चाहते हों, अर्थात स्वर्ग के लोभ में अपने प्रणोत्सर्ग काशी में ही यदि करना चाहें, तो फिर इस बात का क्या महत्व कि उन्होंने ईश्वर का दर्शन किया है, ईश्वर को निहारा है। अर्थात आत्मा अनुभूति के पश्चात स्वर्ग की या मुक्ति की आशा यदि होती है तो फिर आत्मा अनुभूति का क्या महत्व है। तब हम वैसे थे अर्थात् जन्म मरण में भटक रहे थे और अब हम ऐसे हैं अर्थात जन्म मरण से के चक्र से मुक्त हो गए हैं। यही जीवन का सहज क्रम है। जिसको राम के प्रति भक्ति है उसके लिए यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है बल्कि यह सहज है।
जुलाहे जाति में जन्म लेने वाले अर्थात व्यवसाय से जुलाहा रहने वाले कबीर ने गुरु की कृपा और साधु संगति से उस परम पद को प्राप्त कर लिया है अर्थात इस मार्ग से सभी उसे प्राप्त कर सकते हैं। कबीरदास जी कहते हैं कि हे संतों ध्यान से सुनो कि आप इस भ्रम में नहीं रहना की जिसे मुक्त अवस्था प्राप्त हो गई है उसके लिए मगहर और काशी का कोई अलग-अलग अर्थ है। अर्थात् उनके लिए दोनों ही समान फल देने वाली होती हैं। वे जीवन्मुक्त हो जाते हैं। जिनके ह्रदय में सत्य स्वरूप राम का निवास है उनके लिए स्वर्ग का लोभ नहीं है और नर्क का भय नहीं है।