कबीर ग्रंथावली (संपादक- हजारी प्रसाद  द्विवेदी) पद संख्या 165 अर्थ सहित

kabir ke pad arth sahit.

पद:165

मोरि चुनरी में परि गयो दाग पिया।

पाँच तत्व की बनी चुनरिया, सारेहसै बंद लागे जिया।

यह चुनारी मोरे मैके ते आई ससुरेमे मनुवाँ खोय दिया।

मलि मलि धोई दाग न छूटे ज्ञानकी साबुन लाय पिया।

कहै कबीर दाग कब छुटिहै जब साहब अपनाय लिया।

भावार्थ :-

कबीर दास जी ईश्वर  से निवेदन करते हुए कहते हैं कि हे प्रियतम मेरी चित्त रुपी चुनरी में दाग पड़ गये हैं। यह चुनरी अर्थात शरीर पांच तत्वों से बना हुआ है और इस चुनरी में दाग पड़ने के कारण मुझे अब चारों ओर से कोई रास्ता नहीं सूझ रहा है, और मेरा मन भ्रमित हो गया है। मुझे यह चुनरी मेरे मायके से मिली थी अर्थात् जो गीता में कहा गया है ईश्वर अंश जीव अविनाशी…  जीव ईश्वर का ही अंश है और ईश्वर की तरह ही अविनाशी है। 

वही बात कबीर जी कहते हैं कि यह चुनरी अर्थात मेरा चित्त जो ब्रह्म से ही उत्पन्न हुआ है अर्थात ब्रह्म को वह माई का घर बोलते हैं, मां का घर, क्योंकि वहीं से उत्पन्न हुए और अब यह संसार अर्थात् माया का क्षेत्र, उसे वे ससुराल कहते हैं। और वे कहते हैं कि यहां आकर मैंने अपना मन खो दिया है । अपने मन को इस संसार में उलझा दिया है।  इस उलझने के बाद इस चुनरी को मैंने बड़े प्रयासों से मलमल कर धोया, दाग छुड़ा देने का पूरा प्रयास किया, किंतु वह दाग छूट नहीं पाया । इसलिए हे स्वामी! अब आप मुझे ज्ञान की साबुन प्रदान कर दीजिए ताकि मैं अपनी इस चुनरी को अच्छी तरह से धो सकूं । कबीरदास जी कहते हैं यह दाग कब छूटेगा ? यह दाग तब छूटेगा जब साहब अर्थात ईश्वर तुम्हें अपना लेगा, स्वीकार कर लेगा अथवा तो जब आप अपने ब्रह्म तत्व का अच्छी तरह से अनुभव कर लेंगे।