कबीर ग्रंथावली (संपादक- हजारी प्रसाद  द्विवेदी) के पद संख्या 166 अर्थ सहित

kabir ke pad arth sahit.

पद:166

तेरा जन एक आध है कोई।

काम-क्रोध अरु लोभ बिवर्जित, हरिपद चीन्हैं सोई॥

राजस-तामस-सातिग तीन्यु, ये सब तेरी माया।

चौथै पद कौ जे जन चिन्हें, तिनहि परम पद पाया॥

असतुति-निंदा-आसा छांडै, तजै मांन-अभिमानां ।

लोहा-कंचन समि करि देखै, ते मूरति भगवाना॥

च्यंतै तो माधो च्यंतामणि, हरिपद रमै उदासा।

त्रिस्ना अरु अभिमांन रहित है कहै कबीर सो दासा।

भावार्थ :-

इस पद में कबीरदास जी कहते हैं कि हे प्रभु तेरा जन अर्थात् तेरा सच्चा भक्त कोई एक आध ही है अर्थात् बिरला ही कोई है। और ऐसा जो भक्त है, वह भक्त जो काम क्रोध लोभ मोह आदि जो षडविकार कहे गए हैं उनसे रहित हैं। और वह हरिपद अर्थात ईश्वर के चरण कमलों को पहचानने वाला है अर्थात् जिसने उस ईश्वर का अनुभव कर लिया है ऐसे भक्त विरले ही कोई हैं।

यह  माया अथवा यह संसार त्रिगुणमय है और वे तीन गुण राजसी तामसिक और सात्विक कहे गए हैं किंतु जो चौथा पद है जो सत्वगुण रजोगुण और तमोगुण इनसे अतीत है । तीन अवस्थाएं जो कि जाग्रत स्वप्न और सुषुप्ति  है उनसे परे जो तुरीय पद है या तुरिया अवस्था है या जिसे ज्ञानीजन जागृत अवस्था कहते हैं। उसी अवस्था को प्राप्त कर लेता है। 

और कबीर दास जी कहते हैं कि तिन ही परम पद पाया अर्थात् जिसने उस चौथ पद को चीन्ह् लिया पहचान लिया उसी ने उस परम पद को प्राप्त कर लिया है। और इस प्रकार ऐसे परम पद प्राप्त किए हुए महापुरुष के लिए जगत की स्तुति निंदा और किसी से कोई अपेक्षा या आशा रखना यह सब उसमें नहीं दिखाई देती है और उसके मन में न तो  कोई  इच्छा होती है न किसी बात का अभिमान होता है वह तो एक अबोध शिशु की तरह है सरल और सहज होता है।

ऐसा जो भक्त है वह लोहा कंचन सम करी देखे अर्थात वह जो है लोहा और सोना दोनों में बहुत अंतर नहीं मानता अर्थात् धन के प्रति उसकी आसक्ति नहीं रह जाती। वह लोभ की प्रवृत्ति से रहित होता है। और वह जो कि उसने परम पद का अनुभव कर लिया है ब्रह्मत्व का अनुभव कर लिया है, अयम् आत्मा ब्रह्म का अनुभव कर लिया है इसलिए वह ईश्वर की साक्षात मूर्ति की तरह शोभा पाता है।

वे कहते हैं कि चिंतामणि कैसी होती है? चिंतामणि उस मणि को कहते हैं जिसके सामने हम जो भी चिंतन करते हैं जो भी विचार करते हैं वह हमें प्रदान कर देती है किंतु जो परम पद की अनुभूति से संपन्न भक्त है या ज्ञानी जन हैं वह ऐसे चिंतामणि जैसी विभूति के प्रति भी उदासीन रहते हैं। उन्हें त्रिलोकी में किसी भी चीज की आवश्यकता नहीं प्रतीत होती। इस प्रकार जो तृष्णा अर्थात् यह चाहिए वह चाहिए इस तरह की जो वृति है जिसमें नहीं रहती और जो किसी भी प्रकार के अभिमान अर्थात घमंड से रहित है कबीर दास जी कहते हैं कि वही ईश्वर का या राम का सच्चा दास है, सच्चा भक्त है, वही सच्चा ज्ञानी है।