कबीर ग्रंथावली (संपादक- हजारी प्रसाद  द्विवेदी) के पद संख्या 168अर्थ सहित

kabir ke pad arth sahit.

पद: 168

साधो, देखो जग बौराना ।
साँची कहौ तौ मारन धावै, झूठे जग पतियाना ।
हिन्दू कहत, राम हमारा, मुसलमान रहमाना ।
आपस में दौऊ लड़ै मरत हैं, मरम कोई नहिं जाना ।
बहुत मिले मोहि नेमी-धर्मी, प्रात करे असनाना ।
आतम-छाँड़ि पषानै पूजै, तिनका थोथा ज्ञाना ।
आसन मारि डिंभ धरि बैठे, मन में बहुत गुमाना ।


पीपर-पाथर पूजन लागे, तीरथ-बरत भुलाना ।
माला पहिरे, टोपी पहिरे छाप-तिलक अनुमाना ।
साखी सब्दै गावत भूले, आतम खबर न जाना ।
घर-घर मंत्र जो देन फिरत हैं, माया के अभिमाना ।
गुरुवा सहित सिष्य सब बूढ़े, अन्तकाल पछिताना ।


बहुतक देखे पीर-औलिया, पढ़ै किताब-कुराना ।
करै मुरीद, कबर बतलावैं, उनहूँ खुदा न जाना ।
हिन्दू की दया, मेहर तुरकन की, दोनों घरसे भागी ।
वह करै जिबह, वाँ झटका मारे, आग दोऊ घर लागी ।
या विधि हँसत चलत है, हमको आप कहावै स्याना ।
कहै कबीर सुनो भाई साधो, इनमें कौन दिवाना ।

शब्दार्थ :-

डिंभ धरि बैठे = दम धारण करके बैठे हैं। मेहर = दया।

भावार्थ :-

संत कबीर दास जी कहते हैं कि हे साधो! देखो यह जग बौरा गया है अर्थात् संसार के लोगों में यह  किस प्रकार का पागलपन व्याप्त है। वह कहते हैं कि यदि किसी से सच बात कह दो तो वह सच कहने वाले को ही मारने को दौड़ता है और यदि आप उनकी चापलूसी करते रहो चिकनी चुपड़ी बातें करते रहो, झूठी बातें करते रहो तो वह उसको बहुत अच्छा कहते हैं उसकी प्रशंसा करते हैं उसी पर भरोसा करते हैं। 

वे कहते हैं के हिंदू कहते हैं कि राम हमारा भगवान है और मुसलमान कहते हैं कि रहमान हमारा अल्लाह है और इस प्रकार मेरा-मेरा तेरा तेरा करते-करते आपस में दोनों लड़ते और मरते हैं किंतु इसमें जो मर्म छुपा हुआ है कि वह ईश्वर एक ही है और वह ईश्वर सबका ईश्वर है। ऐसे सच्चे मर्म को वे नहीं जानते हैं। वह कहते हैं कि मुझे बहुत से मोही अर्थात जिनकी व्यक्तिगत संबंधों में अत्यधिक आस्था या लगाव है ऐसे लोग बहुत मिले। तरह-तरह के नियमों का पालन करने वाले नियमबद्ध लोग बहुत मिले। इस प्रकार प्रातः ही स्नान आदि से निवृत हो जाने वाले और आत्मा को छोड़कर पाषाण की मूर्ति अर्थात पत्थर की पूजा करने वाले बहुत मिले कि जिनको जो ज्ञान था वह अनुभव रहित था थोथा ज्ञान था वह आत्म पद से दूर थे। 

वे किसी योगासन पर पालथी मार कर बैठ गए ऐसे भी लोग बहुत मिलेकि जिनके मन में बहुत अभिमान है कि मैं बड़ा ध्यानी हूं मैं बडा योगी हूं, ऐसे भी लोग बहुत मिले हैं जो पीपल की या पत्थर की पूजा करने लगे हैं और तीर्थ और व्रत में जिन्होंने तीर्थ और व्रत में लोग इतने संलग्न हैं इतने खोए हुए हैं कि उन्होंने जो दूसरी सभी बातों को भुला दिया है अर्थात ईश्वर की अनुभव संबंधी बातों को वे नहीं जानते।

बहुत से लोग गले में माला धारण करते हैं सर पर टोपी या पगड़ी आदि धारण करते हैं। मस्तक पर तरह-तरह के तिलक और छाप लगाकर दिखाई देते हैं कुछ लोग साखी या सबद अर्थात पद गाते रहते हैं और बाकी सब कुछ भूल जाते हैं किंतु ऐसे लोगों ने भी अपने आप की खबर नहीं ली अर्थात उन्होंने आत्म पद को प्राप्त नहीं किया है।

ऐसे लोग जो घर-घर में मंत्र देते फिरते हैं कान फूकने वाले और मंत्र देने वाले गुरुओं के विषय में कबीर दास जी कहते हैं कि वह माया के अभियान से आबद्ध रहते हैं ऐसे लोग गुरु और शिष्य सहित भवसागर में डूब जाते हैं और जब अपना अंतिम समय आता है मृत्यु काल आता है तब उन्हें भारी पछतावा हाथ लगता है।

ऐसे बहुत से पीर फकीर और आलिया से भी मेरी भेंट हुई है जो किताब और कुरान पढ़ते हैं और अनेक लोगों को अपना मुरीद अर्थात शिष्य बना लेते हैं और फिर उनको कब्र पर ले जाते हैं और तरह-तरह का विधि विधान बताते हैं उन्होंने भी खुदा को नहीं जाना है, अर्थात आत्म तत्व की उन्हें भी अनुभूति नहीं हुई है।

जो हिंदू धर्म को मानने वाले हैं उनमें दया दिखाई नहीं देती और जो तुर्क अर्थात इस्लाम को मानने वाले लोग हैं उनमें मेहर दिखाई नहीं देती और वह कहते हैं कि इनके दोनों के घर से ही दया और मेहर भाग गई है अर्थात् दूर चली गई है, इनके पास नहीं है। और हिंदू और मुसलमान अपने आप को जो है, बड़ा समझदार बड़ा सयाना मानते हैं और यह सब करते हुए वे हंसते-हंसते जाते हैं अर्थात्  उन्हें लगता है कि उन्होंने बड़ी बुद्धिमानी का कार्य किया है।  किंतु कबीरदास जी कहते हैं कि हे साधो! हे भाई! सुनो आप यह निर्णय करके  मुझे बताओ कि इनमें से दीवाना अर्थात पागल कौन है?, अर्थात दोनों ही पागल हैं दोनों को ही सच्ची समझ नहीं है।