कबीर ग्रंथावली (संपादक- हजारी प्रसाद  द्विवेदी) पद संख्या 170 अर्थ सहित

पद:170

वै क्यू कासी तजै मुरारी। तेरी सेवा-चोर भये बनवारी।।

जोगी-जती-तपी संन्यासी। मठ-देवल बसि परसै कासी।।

तीन बार जे नित् प्रति न्हावे। काया भीतरि खबरि न पावे।।
देवल-देवल फेरी देही। नांव निरंजन कबहुँ न लेही।।
चरन-विरद-कासी को न दैहूं। कहै कबीर भल नरकहि जैहूं।।

शब्दार्थ :  –   देवल=देवालय । अरसं = स्पशॆ, उपयोग । विरद=यश ।

संदर्भ :- –कबीरदास जी केवल बाह्याचारी दंभियो की निंदा करते हैं।

भावार्थ :-

हे मुरारी, जिन लोगो ने भगवान की सेवा मे चोरी की है वे काशी को क्यो छोड़ने लगे ? तात्पयॆ यह है कि जिन्होंने भगवान का नाम नहीं लिया है, वे काशीवास द्वारा ही अपने उद्वार की आशा कर सकते है । योगी, यती,  तपस्वी, सन्यासी ये सव मठो और देवालयो मे रहते हुए काशी-वास का उपभोग  करते है | वे नित्य प्रति तीन बार स्नान (गगा स्नान) करते है, परन्तु अन्त:करण मे विराजमान परम तत्व की ओर ध्यान नहीं देते है । वे मंदिर-मंदिर घूमते फिरते है,परन्तु निराकार निर्गुण ब्रह्म का नाम कभी नही लेते है। कबीर केहते है कि {मोक्ष की प्राप्ति तो भगवान के चरणो की कृपा से सम्भव है) भगवान के चरणो का यह यश मै काशी को कभी नही दूंगा ,चाहे मुझे नरक मै ही क्यो न जान पडे ।

अलंकार-(१) पुनरूक्ति प्रकाश – देवल देवल ।

विशेष- (१) मुक्ति का श्रेय भगवान को ही है ,काशी को नही । अनन्य भक्त की भाँति कबिरदास अपने इश्टदेव की महिमा को अक्षुप्ण मानते है। वह तो अन्यन्न भी कह चुके है कि ‘ जो कासी तन तजै कबीरा ,रामहि कहा निहोरा?”

   (२) काशी मे मृत्यु होने पर मुक्ति हो जाती है । यह रूढिबद्ध धारणा है।

   ✓