कबीर ग्रंथावली (संपादक- हजारी प्रसाद  द्विवेदी) पद संख्या 171 अर्थ सहित

पद: 171

बहुविध चित्र बनाय कै, हरि रच्यौ क्रीडा-रास।

जेहि न इच्छा झुलिवे की, ऐसी बुधि केहि पास।।

झुलत-झुलत बहु कलप बीते, मन न छोड़े आस।

रचि हिंडोला अहो-निसि हो चारि जुग चौमास।।

कबहुँ ऊँचसे नीच कबहूँ, सरग-भूमि ले जाय।

अति भ्रमत भरम हिंड़ोलवा हो, नेकु नहिं ठहराया।।

डरत हौं यह झूलबे को, राखु जादवराय।

कहै कबीर गोपाल बिनती, सरन हरि तुअ पास।।

भावार्थ :-

कबीरदास जी कहते हैं कि ईश्वर जैसे किसी चित्रकार की तरह है जिसने अनेक प्रकार के चित्र बना दिए हैं और उसने इन चित्रों के माध्यम से क्रीडा रास का निर्माण किया है। किंतु ऐसे लुभावने संसार में जिसकी रचना ईश्वर ने की है इसमें ऐसा कौन है कि जिसे इस रासलीला में, रासलीला के झूले में बैठने की इच्छा ही न हो अर्थात संसार से जिसे वैराग्य हो गया हो। अर्थात् ऐसे लोगों की संख्या बहुत ही कम है। 

ईश्वर की बनाई हुई इस रासलीला में अथवा तो माया रुपी संसार में झूलते झूलते बहुत कल्प व्यतीत हो गए हैं किंतु मन को उससे ऐसा लगाव हो गया है कि वह इस झूले में झूलने की आस छोड़ता ही नहीं है और फिर फिर से अधिक झूलना चाहता है अर्थात इस संसार में भ्रमण करना चाहता है। इस हिंडोले की रचना दिन-रात चौमास और चारों युगों को मिलाकर की गई है अर्थात सृष्टि का जो चक्र है वह युगों युगों तक फैला हुआ है। इस सृष्टि चक्र में प्राणी कभी ऊंचे स्वर्ग को जाता है कभी वह भूलोक में आता है और कभी वह नरक में जाता है इस तरह से यह हिंडोला नीचे से ऊपर और ऊपर से नीचे घूमता ही रहता है और उसमें प्राणी भ्रमित होता ही रहता है।

किंतु कबीरदास जी कहते हैं कि हे यादवों के स्वामी! इस झूले में झूलते झूलते अब मैं थक चुका हूं और इस झूले  में झूलने से अब मैं बहुत डरता हूं अब कृपया मुझे अपनी शरण दीजिए । कबीरदास जी कहते हैं कि हे गोपाल! मैं अब आपसे विनती करता हूं कि अब आप मुझे अपनी शरण दीजिए। मुझे इस झूले पर अब अधिक नहीं झूलना है अर्थात् संसार के चक्र में मुझे जन्म मरण के बंधन में बंधे हुए रहना नहीं है मुझे मुक्त होना है।